मशहूर गीतकार साहिर लुधियानवी की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, ‘साहिर समग्र’ में संकलित उनकी नज़्मों के पहले संग्रह ‘तल्ख़ियाँ’ के एक संस्करण के लिए अमृता प्रीतम की लिखी भूमिका : कोरे काग़ज़ की दास्तान
***
25-26 की दरमियानी रात दो बजे के क़रीब एक फ़ोन आया कि साहिर नहीं रहे, तो पूरे बीस दिन पहले की वो रात उस शब में मिल गई जब मैं बुल्गारिया में थी। डॉक्टरों ने कहा, तुम्हारे दिल की हालत तश्वीनाशक है। उस रात मैंने नज़्म कही―
आज मैं अपने दिल दरिया विच अपने फूल परवाहे
और अचानक मैं अपने हाथों की तरफ़ देखने लग गई कि इन हाथों ने दिल के दरिया में तो अपनी हड्डियाँ बहाई थीं, फिर ये हड्डियाँ कैसे तब्दील हो गईं? ये फ़रेब हाथों ने खाया था या मौत ने?
वक़्त सामने आ गया, जब दिल्ली में पहली एशियन राइटर्स कॉन्फ्रेंस हुई थी। शायरों और अदीबों की उनके नामों में डेलीगेट 'बैज' दिए गए, जो सबने अपने कोटों पर लगा रखे थे। साहिर ने अपने कोट पर मेरे नाम वाला 'बैज' लगा लिया था और अपने नाम का 'बैज' अपने कोट से उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया था। उस वक़्त किसी की नज़र पड़ी और उसने कहा, हमने ग़लत 'बैज' लगा रखे हैं। साहिर हँस दिया था कि 'बैज' देने वालों से ग़लती हुई होगी, लेकिन उस ग़लती को हमने दुरुस्त करना था, न किया। अब बरसों बाद जब रात के दो बजे ख़बर सुनी कि साहिर नहीं रहे तो लगा जैसे मौत ने अपना फ़ैसला उस ‘बैज' को पढ़कर किया जो मेरे नाम वाला था और साहिर के कोट पर लगा हुआ था।
मेरी और साहिर की दोस्ती में कभी भी अल्फ़ाज़ हाइल नहीं हुए। ये दो ख़ामोशियों का एक हसीं रिश्ता था ।
मैंने उसके लिए जो नज़्में कही थीं, उस मजमुअए-कलाम को साहित्य अकादमी एवार्ड मिला। प्रेस रिपोर्टर मेरी तस्वीरें लेने लगे। मैंने उस वक़्त महसूस किया कि मैं काग़ज़ पर कुछ लिख रही हूँ। फ़ोटोग्राफ़र जब तस्वीर लेकर चले गए तो काग़ज़ उठाकर देखा तो उस पर बार-बार सिर्फ़ एक लफ़्ज़ लिखा गया था― साहिर... साहिर... साहिर....
अपने इस दीवानगी के आलम पर बाद में घबराहट हुई कि सुबह जब अख़बार में तस्वीर छपेगी और तस्वीर वाले काग़ज पर से ये नाम भी पढ़ा जाएगा तो कैसी क़यामत आएगी? लेकिन क़यामत नहीं आई। तस्वीर छपी तो काग़ज़ बिल्कुल कोरा दिखाई दे रहा था।
ये अलग बात है कि बाद-अजाँ ये हसरत रही कि ख़ुदाया ये काग़ज़ जो खाली दिखाई दे रहा था, ये ख़ाली काग़ज़ नहीं था। शायद यही कोरे कागज़ का रिश्ता था कि आज से तीस बरस पहले जब 'तल्खियाँ' का एक नया एडिशन शाए हो रहा था तो साहिर ने मुझे उसका दीबाचा [भूमिका] लिखने के लिए कहा था, मगर मेरे एहसासात मेरी तरह ख़ामोश रहे। न जाने कोरे काग़ज़ की ये कैसी जिद थी कि 'तल्खियाँ' का दीबाचा नहीं लिख पाई।
कोरे काग़ज़ की आबरू आज भी उसी तरह है। मैंने अपनी सवानेह–उम्री [जीवनी] 'रसीदी टिकट' में अपने मुआशक़े की दास्तान लिखी थी। साहिर ने पढ़ी थी, लेकिन उसके बाद किसी भी मुलाक़ात में 'रसीदी टिकट’ का जिक्र न मेरी जबान पर आया न साहिर की जबान पर।
आज जब साहिर दुनिया में नहीं और 'तल्खियाँ' का एक नया एडिशन छप रहा है तो इसके पब्लिशर ने चाहा कि इसका दीबाचा लिख दूँ। नज्मों के बारे में कुछ नहीं कहूँगी, क्योंकि साहिर की शायरी का मुक़ाम लोगों की रूह और तारीख़ की रंगों का हिस्सा बन चुका है।
मुझ पर साहिर का क़र्ज़ था। उस दिन से जब उसने अपने मज्यूअए–कलाम पर दीबाचा लिखने को कहा और मुझसे लिखा नहीं गया, आज वही क़र्ज़ उतार रही हूँ। उसके जाने के बाद देर हो गई, ख़ुदाया बहुत देर हो गई!
मुझे याद है, एक मुशायरे में कुछ लोग साहिर से ऑटोग्राफ ले रहे थे, जब लोग चले गए और मैं अकेली उसके पास खड़ी रह गई तो हँसते हुए मैंने अपनी हथेली उसके सामने बढ़ा दी, कोरे काग़ज की तरह और उसने मेरी हथेली पर अपना नाम लिख दिया और कहा, "ये ब्लेंक चैक पर मेरे दस्तख़त है! जो रकम चाहो लिख लेना और जब चाहो कैश करवा लेना।" चाहे वो काग़ज़ मांस की हथेली थी, लेकिन उसने कोरे कागज का नसीब पाया था, इसलिए कोई हर्फ़ उस पर नहीं लिखा जा सकता था।
हर्फ़ तो आज भी मेरे पास नहीं थे तो महज कोरे काग़ज़ की दास्तान है। इस दास्तान की इब्तिदा भी ख़ामोश थी और सारी उम्र उसकी इन्तिहा भी खामोश रही। आज से चालीस बरस पहले जब लाहौर में साहिर मुझसे मिलने आया था, आकर चुपचाप सिगरेट पीता रहा। राखदानी जब सिगरेट के टुकड़ों से भर जाती थी तो वह चला जाता और उसके जाने के बाद मैं अकेली सिगरेट के उन टुकड़ों को जलाकर पीती थी। मेरे और उसके सिगरेट का धुआँ सिर्फ़ हवा में मिलता था। साँसें भी हवा में मिलती रहीं और नज़्मों के लफ़्ज़ भी हवा में।
सोच रही हूँ हवा कोई भी फ़ासला तय कर सकती है। वह पहले भी शहरों का फ़ासला तय करती थी, अब उस दुनिया का फ़ासला भी जरूर तय कर लेगी।
― अमृता प्रीतम
***
[साहिर लुधियानवी की पुस्तकें यहाँ से प्राप्त करें।]