रेणु की बीमारी, निधन और मैला आँचल के छपने की कहानी

“मैं पटना अस्पताल पहुँचा तो रेणु जी की रुग्ण अवस्था को देखकर मन को बड़ा धक्का लगा। हिन्दी का महान साहित्यकार, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के 1976-77 के आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाकर, जेल की सजा काटनेवाला, सरकार द्वारा प्रदत्त पद्मश्री लौटानेवाला, जनरल वार्ड में अकेला पड़ा, कंकाल शरीर के साथ जीवन की आखिरी साँस गिन रहा है। शर्म से सर झुक गया। बिहार सरकार पर गुस्सा भी आया।”

हिन्दी के आँचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु के एक बेहद खास मित्र थे- बृजमोहन बाँयवाला। रेणु जी उनको बिरजू नाम से बुलाते थे। वे बिरजू को अक्सर चिट्ठी लिखा करते थे। उनकी चिट्ठियाँ राजकमल प्रकाशन से ‘चिट्ठियाँ रेणु की भाई बिरजू को’ शीर्षक से एक किताब के रूप में प्रकाशित है। जिसका संकलन बिरजू बाबू के छोटे भाई विद्यासागर गुप्ता ने और सम्पादन प्रयाग शुक्ल और रुचिरा गुप्ता ने किया है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, विद्यासागर गुप्ता द्वारा लिखित इस किताब की भूमिका का एक अंश।  

फरवरी 1977 की बात है। पटना से लतिका जी (रेणु की पत्नी) का फोन आया कि रेणु जी काफी अस्वस्थ हैं और पटना हॉस्पिटल में भर्ती हैं। उनकी आपसे मिलने की बहुत इच्छा है और कहा है कि आप उनके लिए पटना आते वक्त कलकत्ता की मशहूर मिठाई की दुकान ‘नकरचन्द नन्दी’ का नालेर गुड़ का सन्देश लेकर जरूर आएँ।

एक छोटे-से गाँव औराही हिंगना में साधारण किसान परिवार में जन्मे फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का खाने-पीने का शौक अभिजात्य वर्ग जैसा था। कहाँ कौन-सी चीज बढ़िया बनती थी उन्हें पता होता था। जब भी हम पटना जाते थे वे पटना के मशहूर पिंटू की दुकान का रसगुल्ला जरूर खिलाते थे। कलकत्ता और पटना में कहाँ-कहाँ निखालिस चाइनीज खाना मिलता था उन्हें इसकी जानकारी होती थी। वे हमेशा हम लोगों को टेंगडा में चुगवाह या चाइना टाउन में चाइनीज खाने के लिए ले जाते थे। पटना के कॉफी हाउस का एक कोना ‘रेणु कार्नर’ के नाम से ही जाना जाता था। रेणु जी जब भी पटना में रहते, रोज तीन-चार घंटे उनकी बैठक जमती थी, जिसमें वहाँ के पत्रकार, प्रकाशक, राजनीतिक मित्र मिल-बैठकर अड्डा लगाते थे।

रेणु जी फारबिसगंज या कलकत्ता में हमारे घर जब भी आते, एक साथ भोजन करने बैठते, तो बहुत स्वाद लेकर हर व्यंजन खाते थे। वे मछली खाने के बहुत शौकीन थे। फारबिसगंज जब भी आते थे, हम लोगों और रेणु जी के मित्र सरयू मिश्र जी को कहलाया जाता था कि अपने ग्राम भदेसर के पोखर की मछली जरूर बनवाएँ। रेणु जी मछली को जल तरोई कहते थे। सरयू बाबू के यहाँ दही-चूड़ा और मछली का भोज जिसने भी एक बार खाया, वह अभी तक याद करता है। वे हमेशा हमारे यहाँ नवान्न का दही-चूड़ा भेजते थे। कभी लिखते― 

आपका इस बार का नवान्न का दही-चूड़ा बाकी है, मालकिन शायद बुधवार को खुद लेकर आए।

21 फरवरी 1975 के पत्र में वे बिरजू बाबू को लिखते हैं― 

वेणु की माँ आपके लिए खीर भेज रही हैं इसमें चीनी नहीं डाली गई है।* एक और पत्र में लिखते हैं कि “वेणु की माँ थोड़ा सत्तू भेज रही है आपके लिए। मैं इसे दूध चीनी में घोलकर लेता हूँ। आप सिर्फ दूध में ले सकते हैं।” 

(*बिरजू बाबू को शुगर की बीमारी थी।)

मैं अपने साथ ‘नकरचन्द नन्दी, गिरीशचन्द्र डे’ की दुकान का सन्देश लेकर पटना अस्पताल पहुँचा तो उनकी रुग्ण अवस्था को देखकर मन को बड़ा धक्का लगा। हिन्दी का महान साहित्यकार, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के 1976-77 के आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाकर, जेल की सजा काटनेवाला, सरकार द्वारा प्रदत्त पद्मश्री लौटानेवाला, जनरल वार्ड में अकेला पड़ा, कंकाल शरीर के साथ जीवन की आखिरी साँस गिन रहा है। शर्म से सर झुक गया। बिहार सरकार पर गुस्सा भी आया। पता चला, कुछ दिन पहले नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री बी.पी. कोइराला, अमेरिका से अपने कैंसर का इलाज कराकर वापस काठमांडू जाने के रास्ते पटना आए और वहाँ उन्हें रेणु की बीमारी का पता चलने पर उनसे मिलने अस्पताल आए थे। बी.पी. कोइराला ने लिखा है 

अस्पताल में शैयालीन रेणु को देखा। वह एक कंकाल बना हुआ था। डाक्टर ने बताया कि वह कुछेक जानलेवा रोगों से ग्रस्त है। लेकिन मेरे लाख मना करने पर भी उठ बैठा और मेरे पाँव छूकर, गोया कोई खोई चीज पाकर गद्गद हो गया। वह मुझे हमेशा सदाज्यु (बड़ा भाई) कहता था। उसने धीरे-धीरे कहा कि मैं अभी बीमार हूँ सदाज्यु अतः नेपाल की दूसरी प्रजातांत्रिक लड़ाई में आपको सहयोग नहीं दे सकूँगा। लेकिन जैसे ही स्वस्थ हो जाऊँगा तब सारनाथ आकर सुशीला भाउजी (बी.पी. की पत्नी) के पास रहूँगा और सेवा करूँगा। रेणु मेरे छोटे भाई जैसा था।

11 अप्रैल, 1977 को रेणु जी की मृत्यु हो गई। कोइराला को इसकी जानकारी काठमांडू जेल में मिली। इस बारे में उन्होंने लिखा है

उसकी मृत्यु से लगा कि मेरी एक बड़ी चीज खो गई है।... मेरे लिए रेणु मरा नहीं है। वह मेरे हृदय में जीवित है। हम कोइराला परिवार के सदस्यों के हृदय में जीवित हैं, हम प्रजातंत्र के बारे में नेपाली या भारतीय सिपाहियों के हृदय में जीवित हैं। रेणु मर गया, लेकिन रेणु जिन्दा है। अपनी जिन्दादिली के लिए, अपने क्रान्तिकारी विचारों के लिए, तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष के लिए, अपनी जिजीविषा के लिए, अपनी सिसृक्षा के लिए...।

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने उनकी मृत्यु पर कहा :

रेणु के आकस्मिक निधन से अपूरणीय क्षति समाज और साहित्य को हुई है। वे मेरे सम्मानित मित्र और सहयोगी थे। जन-आन्दोलन में उनका योगदान अभूतपूर्व रहा है। बिहार जन-आन्दोलन में सम्पूर्ण क्रान्ति और सांस्कृतिक क्रान्ति को जिस प्रकार उन्होंने जोड़ा था, वह अविस्मरणीय है। वे एक सच्चे सत्याग्रही थे। 30 वर्षों के स्वराज्य के बावजूद भारत माता का आँचल आज भी उतना ही मैला है जितना रेणु ने ‘मैला आँचल’ में लिखा है।

रेणु जी की मृत्यु का समाचार 11 अप्रैल, 1977 को मुझे बम्बई (मुम्बई) में जुगनू शारदेय ने दिया और रात में रेडियो स्टेशन पर ‘रेणु की याद’ कार्यक्रम में शरीक होने के लिए कहा। तब मुझे अपने परिवार के साथ फारबिसगंज में जगदीश मिल में रेणु जी के साथ बिताये दिन की हर बात याद आने लगी थी। हमारे परिवार, विशेषकर मेरे बड़े भाई बिरजू बाबू से रेणु जी का 1946 से 1977 तक करीब 30 वर्षों का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। 

रेणु जी के गाँव औराही हिंगना से फारबिसगंज की दूरी करीब आठ मील है। रेणु के गाँव तथा आसपास के देहात के मुसाफिरों को ट्रेन पकड़ने के लिए फारबिसगंज स्टेशन आना पड़ता है। फारबिसगंज रेलवे स्टेशन 1895 में बन गया था। सुल्तानपुर स्टेट के अंग्रेज मालिक फोरबेस साहब की कोशिश से 1895 में पूर्णिया से आगे बढ़कर रेलवे लाइन फारबिसगंज लाई गई और उसी के नाम पर स्टेशन और जगह का नाम सुल्तानपुर से बदलकर फारबिसगंज हो गया।

1948 में बिरजू बाबू भी कलकत्ता से अपनी पढ़ाई पूरी करके ‘जगदीश मिल्स’ का काम सँभालने के लिए फारबिसगंज में स्थायी रूप से रहने लगे थे। पारिवारिक वातावरण का प्रभाव बिरजू बाबू पर भी रहा तथा वे रोज चरखा चलाते थे तथा खादी पहनते थे। फारबिसगंज में आकर उन्होंने ‘कुमार सभा’ नाम से एक पुस्तकालय की स्थापना की, जिसे बाद में फारबिसगंज के सार्वजनिक पुस्तकालय में सम्मिलित कर लिया गया। बिरजू बाबू इस पुस्तकालय के कई वर्षों तक अध्यक्ष रहे तथा यहाँ रेणु जी ने भी कई महीने लाइब्रेरियन के रूप में कार्य किया। करीब पन्द्रह वर्ष पहले इस पुस्तकालय का नाम ‘रेणु पुस्तकालय’ कर दिया गया जिसका उद्घाटन हरियाणा के राज्यपाल धनिकलाल मंडल ने किया। लेकिन पिछले पाँच सालों से ‘विद्यार्थी परिषद्’ वालों ने इस पर कब्जा करके अपना दफ्तर बना लिया है तथा पुस्तकालय परिसर में दो मंदिर और एक धर्मशाला बन गई है। बिरजू बाबू 1967 से 71 तक फारबिसगंज नगरपालिका के अध्यक्ष भी रहे। उसी काल में उन्होंने फारबिसगंज की उस सड़क पर जहाँ डॉक्टर लोहिया रहकर काफी समय बिताते थे, का नामकरण 'डॉ. राममनोहर लोहिया पथ' रखवा दिया। इसी वातावरण में बिरजू बावू की रेणु जी, सरयू मिश्र तथा नागार्जुन से घनिष्ठता बढ़ती गई। मिल में साहित्यिक गोष्ठियाँ भी होती रहती थीं।

1946 में भागलपुर जेल से छूटने के बाद रेणु जी भी अपने गाँव औराही हिंगना आकर रहने लगे। जेल में उनके ऊपर समाजवादी साथियों तथा बांग्ला के महान साहित्यकार सतीनाथ भादुड़ी तथा द्विजदेनी जी का विशेष प्रभाव पड़ा, तथा वे पक्के सोशलिस्ट बनकर निकले एवं क्षेत्र की सोशलिस्ट पार्टी की गतिविधियों में भी काफी रुचि लेने लगे। उस समय फारबिसगंज में उनकी मंडली में स्थानीय सोशलिस्ट नेता कमलनाथ झा, भोला प्रसाद मंडल, नरसिंह नारायण सिंह, देवनाथ राय तथा सरयू मिश्र होते थे। भोला बाबू का स्टेशन के पास खाने-पीने का एक होटल होता था, बाद में वे एम.एल.सी. बने तथा 'विहार खादी बोर्ड' के चेयरमैन भी। कमलनाथ झा, ललित नारायण मिश्र के साथ कांग्रेस में चले गए और सांसद भी हो गए। कमलनाथ जी भाषण वहुत बढ़िया देते थे। वे भाषण वीर कहे जाते थे। सरयू मिश्र दो बार सोशलिस्ट पार्टी से एम.एल.सी. बने तथा बाद में कांग्रेस में चले गए और बिहार सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी बने।

जेल से छूटकर आने के बाद रेणु जी पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ और राजनीतिक घटनाओं-समस्याओं पर लेख लिखने लगे थे। उनकी लिखने की एक विशिष्ट शैली होती थी, रिपोर्ताज में, तथा पाठकों को बहुत पसन्द आती भी थी। 1952 में उन्होंने अपना पहला उपन्यास ‘मैला आँचल’ लिखकर पूरा किया जिसके सारे पात्र उनके आस-पास के गाँव-शहर में रहनेवाले लोग थे। उत्तर बिहार के इस अंचल के छोटे-से-छोटे प्राणी का दुख-सुख, जीते- जागते, लड़ते-झगड़ते उनकी विशेषता, असंगतियाँ, धार्मिक विश्वास, पाखंड, राजनीतिक गुटबाजी, जात-पाँत, तथा गांधी जी के आजादी के आन्दोलन का वर्णन, पात्रों की मानसिक उथल-पुथल, समस्याएँ तथा संवेदनाओं को अपनी आंचलिक बोली-भाषा में इस उपन्यास में उन्होंने पिरोया हैऐसा लगता है कि हम सिनेमा के परदे पर एक बड़ा कैनवस देख रहे हैं। ‘मैला आँचल’ पर तो बहुत कुछ लिखा-कहा जा चुका है, सुधी आलोचकों द्वारा, यहाँ तो प्रसंगवश मैंने भी कुछ पंक्तियाँ लिख दी हैं। उपन्यास की पांडुलिपि रेणु जी ने बिरजू बाबू को भेजी, किसी प्रकार छपवाने का प्रबन्ध करने के लिए। उन्होंने बिरजू बाबू को लिखा :

यह पांडुलिपि जब तक अप्रकाशित अवस्था में मेरे पास पड़ी रहेगी; समझो ‘बिना ब्याही जवान बेटी गरीब की’।

बिरजू बाबू ने अपने साहित्यिक सम्पर्कों से प्रकाशकों से छापने के बारे में बात की। लेकिन कोई भी प्रकाशक नए लेखक का उपन्यास छापने को तैयार नहीं हुआ। बिरजू बाबू ने बहुत ही दुविधा से अपनी असमर्थता प्रकट की तथा पांडुलिपि रेणु को लौटा दी। रेणु की दूसरी पत्नी (लतिका जी) ने कुछ कर्ज द्वारा कुछ पैसे का प्रबन्ध किया तथा रेणु अपने सम्पर्क से कुछ इन्तजाम करके पटना के एक प्रकाशक से 1954 में इसे प्रकाशित कराने में सफल हो गए और हिन्दी साहित्य जगत में रेणु ने अपने पहले ही उपन्यास ‘मैला आँचल’ से अपना डंका बजा दिया। रेणु ने नई राह बनाई और निर्विवादित रूप से बड़े लेखक हुए। बड़े ही नहींअप्रतिम भी। आंचलिक उपन्यासकारों में सिरमौर।

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