‘इमरोज़’ : अमृता और इमरोज़ के प्रेम-सम्बन्ध को नई निगाह से देखता नाटक

अमृता : ज़िन्दगी बहुत अच्छी कट रही है जीती, तू मेनु पहले क्यूँ नी मिलेया?

[बैठे-बैठे इमरोज़ अमृता का हाथ माँगता है, अमृता उसे हाथ थमा देती है, दोनों आँखें बन्द करके मुस्कुरा रहे हैं।]

इमरोज़ साहब ने पिछले दिनों दुनिया को अलविदा कह दिया पर वे अपने पी़छे उनको याद करते रहने की अनेक वजहें छोड़ गए हैं। अपने अनूठे चित्रों की बदौलत वे हमारी स्मृतियों में हमेशा बने रहेंगे। साहित्यिक दुनिया में अमृता-इमरोज़ का प्रेम सम्बन्ध अत्यन्त चर्चित रहा है। लगभग मिथकीय गरिमा हासिल कर चुके इस प्रेम सम्बन्ध को युवा कलाकार कुनाल हृदय ने अपने नाटक ‘इमरोज़’ में एक नई निगाह से देखते हुए प्रासंगिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, हाल ही में प्रकाशित इस नाटक का एक अंश।  

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[मंच पर आसमानी नीली रोशनी होती है, इमरोज़ इशारे से अमृता को मंच का डाउन लेफ़्ट हिस्सा दिखाता है जहाँ साहिर मंच के नीचे आकर इन्तज़ार कर रहा है और इशारों से उसे बुला रहा है। इमरोज़ एक गोल चक्कर घूमकर हवा में अपने ब्रश से स्ट्रोक मारकर अमृता को मंच पर साहिर की तरफ़ लाकर छोड़ देता है। साहिर अमृता से कुछ नहीं बोलता। दोनों एक-दूसरे को देखते हैं। मूक अभिनय ज़ारी रहता है। पीछे ‘प्यार का दूसरा नाम इन्तज़ार’ गाने के बोल चलते हैं। जितनी देर गाने के बोल चलते हैं, उतने में साहिर अमृता को ख़त पकड़ाकर चला जाता है।]

 

गाने के बोल—

तमन्नाओं का न जवाब है।

ख़्वाहिशें बेहिसाब हैं

पहली पूरी होती है, दूजी जग जाती है

वो भी हो जाए पूरी तो अगली कुलबुलाती है।

इश्क़ वो मिज़ाजी जिसमें मैं और मेरा खुमार

प्यार का दूसरा नाम इन्तज़ार

प्यार का दूसरा नाम इन्तज़ार

 

[अमृता साहिर का ख़त खोलकर पढ़ती है।]

साहिर : मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजाने वाली 

(वॉयस ओवर)

तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं 

पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको 

मेरी रातों के मुक़द्दर में सहर है कि नहीं

 

कहीं ऐसा न हो पाँव मेरे थर्रा जाएँ

और तेरी मरमरी बाँहों का सहारा न मिले

अश्क बहते रहें ख़ामोश सियाह रातों में

और तेरे रेशमी आँचल का किनारा न मिले

 

प्यार पर बस तो नहीं है मिरा लेकिन फिर भी

तू बता दे कि तुझे प्यार करूँ या न करूँ

तू ने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें

उन तमन्नाओं का इज़हार करूँ या न करूँ

— तुम्हारा साहिर

 

[ख़त पढ़ने के बाद अमृता ख़त को अपने बदन से छुलाने लगती है और सूँघने लगती है।]

इमरोज़ : क्या हुआ बरकते, बेचैन क्यूँ हो, उसे छूकर यक़ीन कर लो ​कि वो है तुम्हारे पास।

अमृता : नहीं छू सकती जीती। मैं उसे सिर्फ़ अपने तसव्वुर में छू सकती हूँ। एक अजीब सी कसक पैदा हो रही है जीती। उसके ख़याल से ही मेरी साँसें तेज़ हो जाती हैं। मैं और बहुत कुछ कहना चाहती हूँ।

लेकिन सीधे-सीधे कह नहीं पाती। और उस कसक के बीज काग़ज़ पर एक उलझी हुई नज़्म बो देते हैं।

[भागकर जाती है और इधर-उधर देखकर मेज़ पर रखी कॉपी पर चिट्ठी का जवाब लिखने लगती है।]

अमृता : एक कटोरी धूप को मैं एक घूँट में ही पी लूँ 

(वॉयस ओवर) और एक टुकड़ा धूप का मैं अपनी कोख में रख

[इतने में पीछे से प्रीतम सिंह टहलता हुआ आता है और उसकी कॉपी में झाँककर देखने लगता है, उसकी मौजूदगी भाँपकर अमृता लिखते-लिखते रुक जाती है। प्रीतम सिंह कुछ समझ नहीं पाता सो नाक सिकोड़कर चल देता है। अमृता राहत की साँस भरती है।]

अमृता : (जाते हुए प्रीतम सिंह की तरफ़ देखते हुए) जैसे कोई ख़ुफ़िया ज़ुबान हो जिसे सिर्फ़ मैं और साहिर समझ सकते हैं।

[अमृता आगे लिखती है।]

अमृता : तुम्हारी अमृता।

[उठकर मंच के एक छोर पर जाती है साहिर को ढूँढ़ने, बैकग्राउंड में ‘प्यार का दूसरा नाम इन्तज़ार’ आगे बढ़ता है।]

 

गाने के आगे के बोल—

हर साये में जैसे कहीं धूप है 

कमसिन तमन्नाओं का भी रूप है।

साथ तेरे शाम देखूँ

संग मेरा नाम देखूँ

जि़न्दगी तमाम देखूँ

लेकिन हक़ीक़त से है दूरी

ख़्वाहिशें सारी फिर अधूरी

ख़्वाहिशें तो ख़्वाहिशें हैं

ख़्वाहिशों से क्या दरकार

प्यार का दूसरा नाम इन्तज़ार

[इस गाने के बीच साहिर और अमृता की ख़तो-किताबत चलती रहती है, साहिर मंच के अलग-अलग कोने से उसे किसी जादूगर की तरह आकर ख़त पकड़ाकर चला जाता है, बीच-बीच में इमरोज़ भी आता रहता है अमृता को संकेत देने के लिए ​कि साहिर किस तरफ़ है।]

[नाटक की एक थीम परिक्रमा है जो इस जगह साहिर अमृता और इमरोज़ के चलन से स्थापित होती है]

[जहाँ गाना ख़त्म होता है अमृता साहिर को चिट्ठी पकड़ाने के बाद उसे जाते हुए एकटक देख रही है, पीछे से इमरोज़ आकर उसके कन्धे पर हाथ रखता है, अमृता इमरोज़ के हाथ पर हाथ रखकर ठंडी आह भरती है। इतने में बाहर से साइकिल की घंटी की आवाज़ आती है, डाकिया चिल्लाता है—डाकिया। एक चिट्ठी सरककर दरवाज़े के नीचे से अन्दर आती है।]

अमृता : (भागकर दरवाज़े पर जाती है ख़त लेने) शायद साहिर का जवाब आया हो।

[अमृता चिट्ठी उठाकर नाम देखती है।]

तुम्हारी है।

[चिट्ठी को दरवाज़े के पास रखी टेबल पर गुलदान के पास रख देती है।]

इमरोज़ : मैंने तो कहा ही था उम्मीद मत रखो। और साहब काफ़ी व्यस्त भी रहने लगे हैं, वक़्त निकालकर तुम्हें जवाब ज़रूर देंगे।

अमृता : हम्म! 

[कुछ पल चुप्पी छाई रहती है।]

लेकिन तुम भी आज न जाने क्यूँ मुझे उसकी याद दिलाने पर तुले हो? अगर चली गई उसके पास फिर से तो?

इमरोज़ : मुझे तुम्हें उसके घर से उठा के भी लाना पड़े तो मैं ले आऊँगा। क्यों​कि किसी को सपने से जगाकर हक़ीक़त में लाना कोई गुनाह नहीं है।

अमृता : सपने की यही तो सबसे अनोखी बात है, जब तक सपना चल रहा होता है हक़ीक़त ही लगता है। क्या पता ये भी सपना हो। क्या पता हक़ीक़त जैसी कोई चीज़ ही न हो, ज़िन्दगी बस एक सपने से दूसरे सपने का सफ़र हो जिसकी हक़ीक़त सिर्फ़ मौत है।

इमरोज़ : हो सकता है, लेकिन इतना तो मानती हो न कि ये सपना ख़ूबसूरत है और ख़ूबसूरत सपने को सब बचाने की कोशिश करते हैं। अपने आप से पूछकर देखो कि ये सपना पुराने सपनों से ज़्यादा ख़ूबसूरत है या नहीं?

अमृता : बेशक ख़ूबसूरत है जीती। एक औरत की जि़न्दगी में बहुत अजीब दौर होता है जब उसे एक से ज़्यादा मर्द से होकर गुज़रना पड़ता है। ऐसा लगता है जैसे सूरज और चाँद दोनों साथ आ गए हों ग्रहण बनकर और दिन के उजाले में भी दिखाई देना बन्द हो गया हो। जब उसे छूता कोई और है, और उसके ज़ेहन में ख़याल किसी और का रहता है। ऐसा नहीं है कि प्रीतम के साथ मैंने निभाने की कोशिश नहीं की, लेकिन आदमी दिमाग़वाला हो तो ये उसका वरदान है और औरत बुद्धिमान हो तो श्राप, क्यों​कि फिर वो किसी के भी साथ नहीं निभा सकती। इंटेलिजेंस इज ए कर्स फॉर वुमन इन दिस वर्ल्ड।

मेरे मन पर अधिकार किसी और का था और बदन पर किसी और का अपनी ज़िन्दगी के सोलह साल इस कसक में बिताए हैं मैंने। एक तवील बुरा सपना था वो। कितनी पागल औरत हूँ न मैं, नवराज के चेहरे में भी हमेशा साहिर का चेहरा ढूँढ़ती रही। ऐसा लगता था जैसे रूह को धीमी आँच पर जलने के लिए किसी ने चौदह बरस के लिए छोड़ दिया हो।

इमरोज़ : (चाय की ख़ुशबू सूँघता है) चाय!

[दोनों को याद आता है ​कि चाय चढ़ाई थी जो काफ़ी देर से उबल रही है, इमरोज़ भागकर चाय देखने जाता है।]

अमृता : गई?

इमरोज़ : बच गई!

[गैस बन्द कर देता है, हँसता हुआ चाय डालकर लाता है, मेज़ पर रखता है और उसे जरा सरका देता है, अमृता को सोफ़े पर लेटने के लिए कहता है, उसके पेट की टेक पर ​सिर रखकर लेट जाता है।]

अमृता : ज़िन्दगी बहुत अच्छी कट रही है जीती, तू मेनु पहले क्यूँ नी मिलेया?

[बैठे-बैठे इमरोज़ अमृता का हाथ माँगता है, अमृता उसे हाथ थमा देती है, दोनों आँखें बन्द करके मुस्कुरा रहे हैं।]

इमरोज़ : बरकते?

अमृता : हम्म!

इमरोज़ : आगे बढ़ना है? चार रंग और बचे हैं इश्क़-ए-मिज़ाजी के।

अमृता : थोड़ा रुककर सफ़र दिलचस्प होने वाला हो तो थोड़ी नींद मार लेनी चाहिए।

[एक मधुर धुन पीछे बजती है। अमृता और इमरोज़ आँखें बन्द करके लेटे रहते हैं।]

 

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