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राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, विष्णु नागर के संस्मरणों की किताब 'डालडा की औलाद' के कुछ अंश। इन संस्मरणों में लेखक ने बचपन से अब तक समाज को जितने रूपों में देखा है, उसे केन्द्र में रखकर अपने आसपास के जीवन के बारे में लिखा है।
भाग्यशाली हम
बहुत दिनों से मैं सोच रहा हूँ कि हम साधारण लोग किस-किस अर्थ में भाग्यशाली हैं। एक तो इस अर्थ में हम किस्मतवाले हैं कि हमारे माँ-बाप न टाटा-बिड़ला थे, न अंबानी-अडाणी, न बड़े राजनेता थे, न बड़े कलाकार थे या फिल्मी हीरो-हीरोइन थे। न महान सन्त थे, न नाथूराम गोडसे जैसे हत्यारे थे। हम अपने माता-पिता की प्रसिद्धि या धन या महानता या कलंक के बोझ तले दबे हुए नहीं हैं। हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, अपने किए या अनकिए से हैं। इसके दुख कम, सुख ज्यादा हैं। हो सकता है इनमें से किसी की सन्तान होते तो पता नहीं कितनी सीढ़ियाँ अपने आप चढ़ चुके होते या और अधिक गिरकर भी बड़े बन चुके होते। मगर यह हजार गुना बेहतर है कि हम नीचे हैं, जमीन पर हैं। हम न जाने कितनी आवाजें, कितनी गूँजे
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राजकमल ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, विष्णु नागर की लिखी रघुवीर सहाय की जीवनी 'असहमति में उठा एक हाथ' का अंश 'लखनऊ उनका वतन था, देस था.'