साहिर लुधियानवी को जनसाधारण आम तौर पर फ़िल्मों के गीतकार के रूप में ही जानता-पहचानता है। लेकिन तथ्य यह है कि फ़िल्में उनके जीवन में बहुत बाद में आईं, उससे पहले वे एक प्रगतिशील शायर के तौर पर अपनी बड़ी पहचान बना चुके थे। फ़िल्मों ने बस उन्हें रोज़गार दिया जिसके जवाब में उन्होंने फ़िल्मों को कुछ ऐसे अमर उपहार दिए जिन्हें उन्होंने अपने ऊबड़-खाबड़ और गहरी उदासी में बीते जीवन में कमाया था।
एक ऐसे परिवार में पैदा होकर, जिसका शायरी और अदब से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था, और एक ऐसे पिता का पुत्र होकर जिसके साथ उनके सम्बन्ध कभी पिता-पुत्र जैसे नहीं रहे और एक ऐसे समाज में जीकर जिसका सस्तापन, नाइंसाफ़ी और संकीर्णताएँ उनकी उदास आँखों से बचकर निकल नहीं पाती थीं, उन्होंने वह कमाया जिसे भले ही उस वक़्त के आलोचकों ने बहुत मान नहीं दिया, लेकिन जो आम आदमी की यादों में हमेशा के लिए पैठ गया। फ़िल्मों में आने से पहले ही वे अपने समय के सबसे लोकप्रिय और चहेते शायरों में शुमार हो चुके थे।
साहिर की ऐसी कई नज़्में और ग़ज़लें हैं, और गीत भी, जिनमें उन्होंने समाज की आलोचना दो-टूक लहज़े में की है। प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े साहिर की चिन्ताओं में गाँव में भूख और अकाल से जूझ रहे किसानों के दु:ख से लेकर शहरों में भूख के हाथों बिकतीं उन औरतों जिन्हें समाज वेश्या कहता है—तक का दर्द एक जैसी गहराई से आया है, जिसका मतलब यही है कि दु:ख को देखना, जीना और पकड़ना, शायर के रूप में यही उनका एकमात्र कौशल था, और इसी के विस्तार में उन्होंने हर माथे की हर सिलवट को पिरोकर तस्वीर बना दिया।
यह किताब उनकी रचनाओं का समग्र है, अभी तक उपलब्ध उनकी तमाम ग़ज़लों, नज़्मों और गीतों को इसमें इकट्ठा करने की कोशिश की गई है। उम्मीद है दर्द-पसन्द पाठकों को इसमें अपना वह खोया घर मिल जाएगा जो इधर की चमक-दमक में खो गया है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 2016 |
Edition Year | 2023, Ed. 3rd |
Pages | 432p |
Translator | Aasha Prabhat |
Editor | Aasha Prabhat |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 3.5 |