उर्दू-हिन्दी : गंगा-जमुनी तहजीब की नींव

किसी भाषा से अनुवाद केवल इस भाषा का उस भाषा में उलथा नहीं होता। यह एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति में प्रवेश है। एक भाषा से दूसरी भाषा और संस्कृति में रूपान्तरण। यूँ भी अनुवाद यदि शाब्दिक हो तो वह अच्छा नहीं माना जाता। उसमें भाव भी उतरना चाहिए। भावानुवाद। जिस भाषा में अनुवाद हो रहा है उसकी तासीर पाठ में आनी चाहिए। पढ़ते समय पाठक को लगे कि वह अपनी भाषा-बोली में लिखा ही पढ़ रहा है, कुछ बाहरी नहीं। कई बार तो यह बात लाने के लिए स्थान और पात्रों के नाम बदल दिए जाते हैं। इसे अनुवाद नहीं, रूपान्तरण कहा जाता है।

अनुवाद और रूपान्तरण दो भाषाओं का आपसी आदान-प्रदान है। अंग्रेजी-हिन्दी, फ्रेंच-हिन्दी, जर्मन, स्पेनिश आदि विदेशी भाषाओं में ही नहीं भारतीय भाषाओं—कन्नड़-हिन्दी, तमिल-हिन्दी, तेलुगू, उड़िया, बांग्ला सभी में आपसी आदान-प्रदान को अनुवाद ही कहा जाता है। प्राय: सभी उत्तर भारतीय भाषाओं का स्रोत संस्कृत को माना जाता है। परन्तु अलग-अलग भू-भागों में, भिन्न परिस्थितियों में विकसित होने के कारण भाषाएँ अलग-अलग ध्वनियों में विकसित हुईं। भिन्न परिस्थितियों के कारण लिपियाँ भी अलग-अलग हो गईं। कुछ भाषाओं की लिपि संस्कृत की लिपि देवनागरी से मिलती-जुलती है और कुछ की अलग। दक्षिण भारत की भाषाएँ द्रविड़ भाषा परिवार से हैं। इनकी ध्वनियाँ भी अलग हैं और लिपि भी। संस्कृत से मेल-जोल और संघर्ष के कारण बहुलता में संस्कृत शब्दों को इन भाषाओं ने अपना लिया। पूजा-अर्चना और बहुत से अन्य महत्त्वपूर्ण अवसरों पर संस्कृत मंत्रों और श्लोकों का पाठ उत्तर भारत की तरह वहाँ भी संस्कृत में ही होता है।

मामूली भिन्नताओं के बावजूद सांस्कृतिक रूप से भारत एक है। हमारे मौसम, पर्व-त्योहार, पहनावा, भोजन, रुचियाँ बहुत कम बदलावों के साथ एक ही जैसी हैं। कई भाषाओं को बहुत कम यत्न करके सीखा जा सकता है। ध्वनियाँ और शब्दों का अर्थसाम्य इसमें मदद करता है। इतनी एकता और समानताओं के होते हुए भी इन भाषाओं की आपसी आवाजाही अनुवाद और रूपान्तरण ही कहलाएगी, इसे किसी अन्य प्रकार से सम्बोधित नहीं किया जा सकता।

अपनी बात आपके सामने रखने की इस पूर्व-पीठिका में मैं उर्दू को शामिल नहीं कर सका। और यह अनायास नहीं है। सभी तरह की एकरूपताओं और भिन्नताओं की परख करते हुए मैं उर्दू को साथ नहीं रख सका। उर्दू से हिन्दी बदलाव को भी मैं अनुवाद या रूपान्तरण नहीं कहना चाहूँगा। यह बात मैं अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए स्पष्ट करूँगा।

उर्दू का जन्म गंगा-जमुना की तलहटी में हुआ। यहीं यह पली-बढ़ी। यहीं के रहवासियों ने इसे जन्म दिया और विकसित किया। लम्बे अर्से तक यह शासन की भाषा रही। मुसलमान शासक अपने साथ फारसी भाषा और अरबी लिपि लाए। हिन्दी-उर्दू का प्रथम व्याकरण तथा शब्दकोश लिखनेवाले जे.बी. गिलक्रिस्ट के अनुसार :

दाता’ भाषाओं के शब्दों की संख्या के आधार परतीन प्रकार की उर्दू है। प्रथम प्रकार की उर्दू में अत्यन्त कम अरबी-फ़ारसी शब्द हैं। दूसरे प्रकार में उतने ही फ़ारसी-अरबी शब्द हैं जितने देशज शब्द। तीसरे और आखिरी प्रकार मेंजो कि दरबारी बोली हैअरबी तथा फ़ारसी शब्दों का बाहुल्य होता है। गिलक्रिस्ट आगे कहते हैंवह भाषा जिसे लम्बे अरसे तक ‘मूर्स’ के नाम सेगँवारू बोली के रूप मेंपदावनत किया गया परन्तु वर्तमान में लोकप्रिय रूप मेंहिन्दुस्तानी के नाम से जाना जाता हैजिसे बहुधा हिन्दीउर्दू तथा रेख़्ता के नाम से भी पुकारा जाता हैयह अरबीफ़ारसी तथा संस्कृत अथवा 'भाखा’ का संयुक्तीकृत रूप हैजो प्राचीन युग में प्रकट हुई लगती हैहिन्दुस्तान की वर्तमान भाषा है। (श्रीश चौधरी, ‘भारत में विदेशी लोग एवं विदेशी भाषाएँ’, में उद्धृत गिलक्रिस्टजॉन बोर्थविक (1820), ‘द स्ट्रेंजर्स इन्फैलिबल ईस्ट इंडिया गाइड’)

जैसे-जैसे बादशाहों का हिन्दुस्तानीकरण होता गया, फारसी की जगह उर्दू लेती गई। पहले यह रेख़्ता कहलाई। फ़ारसी भाषी सैनिकों और हिन्दुस्तानी सैनिकों ने पहले सैन्य शिविरों में इसका व्यवहार शुरू किया। लिपि अरबी रही। यह फ़ारसी से एकदम अलग भाषा थी। इसकी ध्वनियाँ अलग थीं। इसे मध्य एशिया की भाषाओं की, जहाँ से मुगल शासक आए थे, अनुगामी नहीं कहा जा सकता। इसका व्याकरण अलग था। यह हिन्दुस्तानी भाषा थी, एकदम देसी। दुनिया में जैसे हिन्दी हिन्दुस्तानी या भारतीय भाषा है वैसे ही उर्दू भी हिन्दुस्तानी भाषा है।

उस समय हिन्दी अथवा हिन्दवी का प्रयोग, उत्तर भारत की सभी लोकप्रिय आधुनिक भाषाओं की विभिन्न क्षेत्रीय बोलियों के सन्दर्भ में किया जाता था। यह आज के परिप्रेक्ष्य की हिन्दी को सन्दर्भित नहीं करता। वे सभी आम हिन्दू और मुस्लिमों के द्वारा बोली जानेवाली लोकप्रिय स्थानीय भाषाएँ थीं। इस भाषा का व्याकरण स्थानीय बोलियों से आया और अन्य अनेक शब्द दो मुख्य स्रोतों, फ़ारसी-अरबी और संस्कृत में से किसी से भी मुक्त रूप से लिये गए। इस प्रक्रिया में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही समान थे, दोनों ने ही अपनी आवश्यकता और मर्जी से मुक्त रूप से दोनों स्रोतों से शब्द लिये और उनका स्थानीय भाषा के व्याकरणानुसार प्रयोग किया, भले ही नाम किसी ने जो भी दिया हो। (श्रीश चौधरी, 'भारत में विदेशी लोग और विदेशी भाषाएँ’, पृ. 157)

इसी तरह संस्कृत उद्गम होने पर भी देश, काल, परिस्थितियाँ भिन्न होने के कारण गुजराती, मराठी, बांग्ला, उड़िया आदि भाषाओं की ध्वनियाँ और लिपियाँ अलग-अलग बनीं और बढ़ीं।

उर्दू के साथ ऐसा नहीं था। जहाँ हिन्दी बढ़ रही थी, वहीं उर्दू ने जन्म लिया। कहन का तरीका जो हिन्दी का था वही उर्दू का था। भावों का आरोह-अवरोह एक था। बोलनेवाले-लिखनेवाले एक जैसे थे जिनका रहन-सहन, खान-पान, जन्म-मरण, सभी क्रिया-व्यापार एक जैसे थे और एक साथ थे। केवल लिपि अलग थी। इसका भी तात्कालिक कारण मुझे शासक वर्ग की सहूलियत और ठसक ज्यादा लगती है। क्योंकि यह भाषा शासकों की भाषा थी और उनके साथ बाहर से आई फ़ारसी के संस्कार ज्यादा थे इसलिए इसमें फ़ारसी शब्द ज्यादा रहे, हिन्दी संस्कृत के रास्ते से आई थी सो उसमें संस्कृत शब्द ज्यादा रहे। इस विषय में भाषाविद् और इतिहासकार श्रीश चौधरी का यह कथन ध्यान देने लायक है :

विभिन्न स्रोतों के शब्दों का एक अन्य भाषा अथवा क्षेत्र की अलग-अलग भाषाओं के व्याकरणानुसार प्रयोग सत्रहवीं और अठारहवीं सदी तक जारी रहा। लिपियाँ बदलती रहींजायसी ने अरबी का प्रयोग कियातुलसी ने देवनागरी का तथा कई ने अपनी इच्छानुसार अन्य लिपियों का प्रयोग किया। (श्रीश चौधरी, 'भारत में विदेशी लोग और विदेशी भाषाएँ’, पृ. 173)

अपनी बात को आगे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं :

उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ तकउर्दू/हिन्दी ने स्वयं को ‘एक विशाल देश हिन्दुस्तान’ की एकमात्र सम्पर्क भाषा के रूप में स्थापित कर लिया। शायद ही कोई ऐसा मुसलमान था जो इस भाषा को अपने वर्गशिक्षा तथा उम्र के अनुसार विविध कोटि के परिमार्जन के साथ नहीं समझता और बोलता था। ऐसा ही प्रत्येक हिन्दू के साथ थाजिन्हें कम से कम इसका प्रारम्भिक ज्ञान तो अवश्य ही था। उस काल तकयह भाषा ‘सामान्यत: देशज तथा हिन्दुस्तान में बसे विभिन्न विदेशी मूल के अनेक लोगों के मध्य संवाद तथा सम्पर्क का उभय-निष्ठ माध्यम बन गई थी...।’ विभिन्न राष्ट्रीयता वाले सभी यूरोपीय आपस में संवाद के लिए भी अपनी भाषा की बजाय इसी भाषा का प्रयोग करते थे। ऐसा ही देश की सभी सेनाएँ भी करती थीं। उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में लिखनेवाले गिलक्रिस्ट का आकलन है कि शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसे अपने घर से हिन्दी/उर्दू का कम से कम प्रारम्भिक ज्ञान नहीं मिलता होगा। अन्यथा विभिन्न जातियोंधर्मों तथा क्षेत्रों से सम्बद्ध भारत के निवासियों के लिए आपस में संवाद स्थापित करना अत्यन्त मुश्किल होता। गिलक्रिस्ट जोर देते हुए कहते हैं कि भारत में अगर किसी को एक भाषा सीखनी हो तो उसे ‘हिन्दुस्तानी’ सीखनी चाहिए। यदि किसी ने ‘हिन्दुस्तानी’ सीखी है तो वह फ़ारसी अधिक बेहतर ढंग से तथा आसानी से सीख सकेगा।  (श्रीश चौधरी, 'भारत में विदेशी लोग और विदेशी भाषाएँ’, पृ. 177)

दुनिया में ऐसा दूसरा उदाहरण मुश्किल है, जहाँ दो बड़ी पूर्ण विकसित भाषाएँ जिनमें विपुल श्रेष्ठ साहित्य रचा गया हो और रचा जा रहा हो, एक साथ एक ही मैदान में बनी-बढ़ी हों, जिनकी अभिव्यक्ति का तरीका एक हो और ध्वनियाँ भी समान हों। इन्हीं गहरी समानताओं के कारण हिन्दी-उर्दू को दो भाषाएँ कहने को मेरा मन स्वीकार नहीं करता। लेकिन यह सच्चाई है। और इन दोनों भाषाओं की लिपियाँ अलग हैं। लेकिन इसकी वजह भी शायद कोई और नहीं, सिर्फ लिपियों का प्रचलन था। पुन: श्रीश चौधरी का उल्लेख करना चाहूँगा :

लिपि के आधार पर सामान्य लोगों ने हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाषाओं के रूप में व्यवहृत कियादेवनागरी लिपि की भाषा हिन्दी तथा अरबी लिपि की भाषा उर्दू। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध मेंहिन्दी-उर्दू के मध्य साम्प्रदायिक विभाजन स्पष्ट हो गया। अनेक हिन्दुओं ने इस भाषा में लिखाजैसा कि अनेक मुस्लिमों ने भी किया। परन्तु अब हिन्दू मुख्यत: संस्कृत तथा पालीइत्यादि के शब्दों के बाहुल्य के साथ देवनागरी लिपि में लिखते थेजबकि दूसरी ओर मुस्लिम अरबीफ़ारसी अथवा तुर्की शब्दों के बाहुल्य के साथ अधिकतर अरबी लिपि में लिखते थे। (श्रीश चौधरी, 'भारत में विदेशी लोग और विदेशी भाषाएँ’, पृ. 178)

एक प्रकाशक के नाते अपनी बात कहूँ तो हमने कभी उर्दू से हिन्दी अनुवाद की जरूरत महसूस नहीं की। हम हिन्दी में पुस्तकों का प्रकाशन करते हैं। इसलिए यहाँ केवल उर्दू से हिन्दी में प्रकाशित होनेवाली पुस्तकों की बात करूँगा। हिन्दी से उर्दू में पुस्तकें हमने प्रकाशित नहीं कीं, जबकि उर्दू से हिन्दी में मंटो, राजेन्द्र सिंह बेदी, इस्मत चुग़ताई, कुर्रतुल ऐन हैदर, कृश्न चन्दर, अली सरदार ज़ाफरी, रघुपति सहाय ‘फ़िराक’, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, जिलानी बानो, जां निसार अख्‍़तर, गालिब, मीर, फ़ैज़, अब्दुल्ला हुसैन, इन्तज़ार हुसैन जैसे बड़े रचनाकारों की बहुत-सी पुस्तकों का प्रकाशन हमने किया है। गुलज़ार और जावेद अख़्तर भी हमारे यहाँ से छपे हैं। पर हमने इनमें से किसी के भी लेखन का अनुवाद नहीं कराया। दरअसल हमें, राजकमल प्रकाशन समूह को इसकी कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई। हमने हमेशा केवल लिपि की दूरी को खत्म किया। लिपि बदलते ही उर्दू हिन्दी बन गई। रचना में प्रयुक्त कठिन शब्दों को बदला नहीं, पाठक की सुविधा के लिए इनके अर्थ दे दिए। इससे कथ्य को समझना आसान हो जाता है। साथ ही हिन्दीभाषी पाठक की शब्दावली में कुछ नए उर्दू शब्दों के आने की संभावना भी बनती है।

हमारा मानना है कि हिन्दी में उर्दू के शामिल हो जाने से भाषा में रवानी बढ़ जाती है, कोमलता और ठहराव आ जाता है। केवल लिपि के बदलाव को अनुवाद या रूपान्तरण नहीं कहा जा सकता। हम इसे ‘लिप्यन्तरण’ कहते हैं। इसमें भाषा नहीं बदलती, शब्द नहीं बदलते, भाषा और शब्दों का क्रम वही रहता है। वाक्य-विन्यास को भी बदलने की जरूरत नहीं पड़ती।

‘हिन्दी’ और ‘उर्दू’ के रूप में जानी जाने वाली इस भाषिक समानता के सबसे मुखर प्रवक्ता, प्रसिद्ध उर्दू विद्वान ज्ञानचन्द जी मानते थे कि :

...औसत उर्दू लेखन तथा औसत हिन्दी लेखन के मध्य का अन्तर उतना बड़ा नहीं है जितना बड़ा अन्तर औसत उर्दू और कठिन उर्दू अथवा औसत हिन्दी और कठिन हिन्दी के मध्य है...

ज्ञानचन्द उचित ही कहते हैं—

आधारभूत शब्दन कि केवल उद्धृत शब्दभाषा और बोली का निर्धारण करते हैं। यद्यपि मलयालम के करीब अस्सी प्रतिशत शब्द संस्कृत के हैं फिर भी भाषा द्रविड़ ही है। कुछ सौ शब्दों को छोड़कर अल्बानी भाषा का सम्पूर्ण शब्दकोश अन्य भाषाओं से व्युत्पादित है (ख़ासकर लैटिन से)इसके बावजूद यह एक स्लाविक भाषा है। क्या यह सच नहीं है कि हिन्दी का आधारभूत शब्दकोश उर्दू के समान हैउसी प्रकारलिपियों का भेद एक भाषा को दो भाषाओं में विभक्त नहीं कर सकता हैजैसे कि लिपियों की समानता दो भाषाओं को एक भाषा नहीं बना सकती है... (अमृत राय, (1991), ‘अ हाउस डिवाइडेड : दि ऑरिजिन एंड डेवलेपमेंट ऑफ हिन्दी-उर्दू’ में उद्धृत)

हिन्दी के लेखकों में से भी अधिकांश इस विभाजन को अहमियत नहीं देते। डॉ. राही मासूम रज़ा के विचारों को रेखांकित करते हुए डॉ. कुँवरपाल सिंह कहते हैं :

राही मासूस रज़ा उर्दू-हिन्दी को सबसे निकट की दो भाषाएँ मानते थेलेकिन भाषा की राजनीति के कारण ये दोनों भाषाएँ दूर हो रही हैं। राही जीवन भर इसके लिए प्रयत्नशील रहे कि दोनों भाषाओं की दूरी कम हो। इसके लिए उनका सुझाव था कि उर्दू देवनागरी लिपि में लिखी जाए क्योंकि लिपियाँ भाषा और साहित्य नहीं होतीं। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि पंजाबीगुरुमुखी और फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है। इसी तरह सिंधी भी दो लिपियों में लिखी जाती है। मराठीनेपालीसंस्कृत और हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैंतब भी ये भाषाएँ अलग हैं। (ख़ुदा हाफि़ज कहने का मोड़’, राही मासूम रज़ाकी भूमिका में कुँवरपाल सिंह।)

राही मासूम रज़ा खुद भी कहा करते थे कि, ‘मैं वैसे ही हिन्दी का कथाकार हूँ, जैसे गालिब हिन्दी के कवि हैं।’ ‘आधा गाँव’ उन्होंने अरबी लिपि में लिखा; उन्हें देवनागरी तब नहीं आती थी। कुँवरपाल सिंह ने वह हिन्दी यानी देवनागरी में लिप्यन्तरित किया। प्रेमचन्द ने ‘सेवासदन’ अरबी लिपि में लिखा। बाद में इसे देवनागरी में किया गया। प्रेमचन्द की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘गोदान’ पहले ‘गऊदान’ के रूप में उर्दू में लिखी गई थी।

राही मासूम रज़ा ने अन्य कई जगहों पर भी इस मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। एक उद्धरण यहाँ देना अप्रासंगिक न होगा :

यह ग्यारहवीं या बारहवीं सदी की बात है कि अमीर खुसरो ने लाहौरी से मिलती-जुलती एक भाषा को दिल्ली में पहचाना और उसे हिन्दवी का नाम दिया। उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक यही हिन्दवीदेहलवीहिन्दीउर्दू-ए-मुअल्ला और उर्दू कही गई। अब तक लिपि का झगड़ा खड़ा नहीं हुआ थाक्योंकि यह तो वह जमाना था कि जायसी अपनी अवधी फ़ारसी लिपि में लिखते थे और तुलसी अपनी अवधी नागरी लिपि में। लिपि का झगड़ा तो अंग्रेज़ी की देन है। भाषा का नाम तो हिन्दी ही हैचाहे वह किसी लिपि में लिखी जाए। इसलिए मेरा जी चाहता है कि कोई सिरफिरा उठे और सारे ‘हिन्दी साहित्य’ को पढ़कर कोई राय कायम करे। अगर मुसहफी उर्दू के तमाम कवियों को हिन्दी का कवि कहते हैं (उनकी किताब का नाम ‘तजकरए-हिन्दी गोयाँ’ है।) और अगर गालिब अपने ‘हिन्दी कलाम’ को याद करने की कोशिश करते नज़र आएँतो हमीं में कौन से सुर्ख़ाब के पर लगे हैं कि हम अपने आपको हिन्दी कवि कहते हुए शरमाएँमैं उर्दू लिपि का प्रयोग करता हूँपरन्तु मैं हिन्दी कवि हूँ। और यदि मैं हिन्दी का कवि हूँ तो मेरे काव्य की आत्मा सूरतुलसीजायसी के काव्य की आत्मा से अलग कैसे हो सकती हैयह वह जगह हैजहाँ न मेरे साथ उर्दूवाले हैं और न शायद हिन्दीवाले। (उर्दू साहित्य की भारतीय आत्मा’, राही मासूम रज़ापृ. 31)

आज उर्दू हिन्दी में भी लिखी जा रही है। हिन्दी उर्दू में लिखी जा रही है। हिन्दी में ग़ज़लें कही जा रही हैं और उर्दू में दोहे। पाकिस्तान में परवीन शाकिर जैसे रचनाकार भाषाओं के भेद को समाप्त किए दे रहे हैं। उनकी गज़लों में कभी-कभी तो फ़ारसी का एक शब्द भी नहीं होता; पाकिस्तान में दोहे खूब लिखे जा रहे हैं। यह स्थिति अमीर खुसरो से अब तक चली आ रही है।

एक प्रकाशक के रूप में हमने उर्दू-हिन्दी पुस्तकों के हर पक्ष पर शोध किया है। किताब के चयन से लेकर पुस्तक के पाठकों तक पहुँचने की पूरी प्रक्रिया को बार-बार देखा गया। जैसाकि प्राय: होता है—नए लेखकों की अपेक्षा पुराने स्थापित लेखकों की पुस्तकें ही ज्यादा पसन्द की जाती हैं। फ़ैज़ और सआदत हसन मंटो का नाम यहाँ लेना जरूरी लगता है। राजकमल ने ही पहली बार इनका व्यवस्थित प्रकाशन किया। पाँच भागों में ‘दस्तावेज़’ की शक्ल में मंटो की चुनी हुई श्रेष्ठ रचनाएँ, शरद दत्त और बलराज मेनरा के सम्पादन में प्रकाशित की गईं। बलराज मेनरा ने पाकिस्तान जाकर वहाँ काफी समय रहकर यह काम किया। आज कॉपीराइट मुक्त होने के बाद भी मंटो की रचनाओं का प्रामाणिक और श्रेष्ठ लिप्यन्तरण ‘दस्तावेज’ यही है।

फ़ैज़ की पूरी शायरी ‘सारे सुख़न हमारे’ के रूप में अब्दुल बिस्मिल्लाह ने लिप्यन्तरित की। यह और फ़ैज़ की दूसरी पुस्तकें राजकमल ही प्रकाशित कर रहा है। सभी अलग-अलग पुस्तकें भी प्रकाशन की तैयारी में है। इस किताब का कवर मकबूल फ़िदा हुसैन ने बनाया है।

उर्दू से किसी भी भारतीय भाषा में विधिसम्मत प्रकाशन की शुरुआत राजकमल ने ही की। इससे पहले और आज भी पाकिस्तान का उर्दू लेखन प्राय: बगैर किसी लेखकीय अनुबन्ध के ही भारत में होता रहा है। हमने पहली बार मंटो के परिवार से अनुबन्ध कर ‘दस्तावेज़’ का प्रकाशन किया। ऐसे ही अनुबन्ध इन्तज़ार हुसैन और अब्दुल्ला हुसैन, फ़ैज़ से भी किए गए। अभी अमजद इस्लाम अमजद और अम्बरीन हसीब अम्बर की पुस्तकों के लिप्यन्तरण और अनुबन्ध की प्रक्रिया चल रही है।

मैं इस मजलिस से यह अपील करना चाहूँगा कि वे इस मसले में कुछ करें। उर्दू में छपनेवाली किताबों के लिए एक आन्दोलन की तरह यह होना चाहिए। यह तय किया जाना चाहिए कि हिन्दुस्तान में पाकिस्तान की किताबें और पाकिस्तान में हिन्दुस्तान की किताबें, लेखक और प्रकाशक से वैधानिक अनुबन्ध के बगैर प्रकाशित न हों। इससे किताबों की प्रस्तुति में तो गुणात्मक सुधार होगा ही लेखकों और प्रकाशकों को भी उनकी मेहनत का उचित परिणाम मिलेगा।

उर्दू से सर्वाधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक लिप्यन्तरण करनेवाले हमें अब्दुल मुगनी के रूप में मिले। नई-पुरानी बहुत सी पुस्तकों का सम्पादन और लिप्यन्तरण उन्होंने किया है। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक और जामिया में प्रोफेसर रहे असगर वजाहत और अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भी इस काम में हमें बहुत सहयोग दिया है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, कैफ़ी आज़मी, सफ़िया अख्‍़तर आदि की किताबें इनके सहयोग से ही छप सकीं।

पाठ्य भाग के बेहतर, सुगम पाठ और बिना रुकावट तुरत सुबोध अर्थ बताने के लिए फुटनोट देने की नई पद्धति विकसित की गई। आज वर्षों बाद भी इसका प्रयोग कम ही किया जाता है। यह देखने में सुन्दर और समझने के लिए बहुत मददगार है। इसमें शे’र या नज़्म की पंक्ति के सामने ही कठिन शब्दों का अर्थ दे दिया जाता है। पंक्तियों के मिलान में कठिनाई जरूर होती है, पर यह कारगर तरीका है। ‘क़ैफि़यात’ और ‘तरकश’ इसके सुन्दर उदाहरण हैं।

पुस्तकों के प्रामाणिक पाठ का प्रकाशन हमारी परम्परा है और जिम्मेदारी भी। जिम्मेदारी समझने की बात है, जिसे हम बख़ूबी निबाहते हैं। आनेवाली पीढ़ियों तक भाषा और पाठ की सही पहचान बनी रहे, यह हम चाहते हैं। इसके लिए अतिरिक्त व्यय और बहुत अधिक समय की जरूरत होती है। ‘दीवान-ए-मीर’ और ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ के नए संस्करण इसका हालिया बयान हैं।

हमारे पाठक उर्दू शायरी के दीवाने हैं। उर्दू शायरों की किताबें उर्दू से कहीं ज्यादा हिन्दी में पढ़ी जाती हैं। अफ़सानों और उपन्यासों के लिए भी यह बात कही जा सकती है। पिछले दस सालों में उर्दू से शायरी की जितनी किताबें हिन्दी में छपी हैं उतनी पहले कभी न छपी होंगी। बेहतरीन उर्दू किताबों का स्वागत करने के लिए हम हमेशा तैयार हैं।

एक बात कहने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। हम हिन्दीवाले अपनी हिन्दी को तरल बनाने के लिए उर्दू से शब्द लेना अच्छा समझते हैं और यह भाषा को बेहतर बनाने में मदद भी करता है। पर उर्दू में ऐसा करने की बात क्यों नहीं सोची जाती। उर्दू में जहाँ शब्द नहीं मिलता वहाँ अंग्रेजी से शब्द ले लिया जाता है। हिन्दी के बारे में सोचना भी मुनासिब नहीं समझा जाता। इस सोच को बदलने की बाबत सोचा जाना चाहिए।

उर्दू-हिन्दी के बीच आदान-प्रदान का सिलसिला बढ़ना चाहिए। हिन्दी में उर्दू से सैकड़ों किताबें हर साल छपती हैं। हिन्दी से उर्दू में चन्द किताबें ही आती हैं। मेरी जानकारी की सीमा हो सकती है पर यह बहुत गलत नहीं होगी। हिन्दी में ऐसा बहुत कुछ है जिसे उर्दू के पाठक पसन्द करेंगे। कृतियों और कृतिकारों के नाम अनगिनत हैं। जरूरत है, उर्दू पाठकों के लिए क्रमशः उपलब्ध कराने की। राजकमल प्रकाशन उर्दू प्रकाशकों के साथ इस क्षेत्र में सहयोग के लिए भी तत्पर है। राही मासूम रज़ा ने कभी कहा था कि :

हिन्दीवालों से मेरा यह कहना है कि यदि आप ईमानदारी से उर्दू को हिन्दी की एक शैली मानते हैं तो उसके साथ आप वही बर्ताव क्यों नहीं करते जो अवधीब्रज या राजस्थानी के साथ किया जाता हैहिन्दी साहित्य और भाषा के विभाग मीर, गालिबनज़ीरअनीसइकबालजोश और फ़ैज़ को जायसीसूर और तुलसी ही की तरह क्यों नहीं अपनाते? गालिब ने भी जायसी ही की लिपि में लिखा है। तो फिर हम गालिब और जायसी में फ़र्क़ क्यों करें?

यह बात पूरी तरह तो नहीं लेकिन इतनी तो उर्दू वालों से मैं कह सकता हूँ कि वे भी हिन्दी से अपनी नजदीकी बनाने की पहल करें। वर्तमान समय में सभी देशी भाषाओं पर खतरे मँडरा रहे हैं। लेकिन इधर उर्दू पर एक अलग ढंग का खतरा भी महसूस हो रहा है, जिसके पीछे एक ख़ास सोच की राजनीति काम कर रही है। हमें उससे भी सावधान रहना होगा। ऐसे किसी भी संकट का सामना मिल-जुलकर ही किया जा सकता है। मुझे लगता है कि हिन्दी से निकटता इससे निकलने में मददगार होगी। हिन्दी पढ़े युवाओं के बीच उर्दू की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है। उर्दू शायरी ने इसे नई ऊँचाइयाँ दी हैं। हिन्दी कविता उर्दू शायरी के अनुपात में बहुत कम पढ़ी जाती है। मुशायरों में और शायरी की पुस्तकों में भी हिन्दी भाषी युवाओं की भारी संख्या में शिरकत इसका ज़िन्दा उदाहरण है। ‘रेख़्ता’ जैसी संस्थाओं का उदय और कुछ ही समय में परिदृश्य पर छा जाना एक बड़ी मिसाल है जिससे हिन्दी भाषी समाज में उर्दू की स्वीकार्यता का अनुमान लगाया जा सकता है।  ‘रेख़्ता’ ने उर्दू शायरी को लोकप्रियता के साथ-साथ नई पहचान दी है। यह और भाषाओँ और बोलियों के लिए भी अनुकरणीय पहल है।

मुझे लगता रहा है कि भारतीय भाषाओं के प्रकाशन विकास के लिए भारतीय भाषाओं के प्रकाशकों का एक संघ होना चाहिए। स्पष्ट है कि मैं अंग्रेजी को भारतीय भाषाओं में शामिल नहीं कर रहा हूँ। भारतीय भाषा प्रकाशक संघ एक दूर की कौड़ी लग सकती है, शायद अभी है भी। लेकिन हम हिन्दी-उर्दू प्रकाशकों के संघ की बात तो कर ही सकते हैं। हमारे बहुत से हित-अहित समान हैं। मिल-बैठकर एक दूसरे के बारे में फैली संवादहीनता को दूर किया जा सकता है। इस दिशा में होनेवाली किसी भी पहल में हम जरूर शामिल होंगे।

उर्दू-हिन्दी पुस्तकों के संयुक्त वितरण तंत्र पर भी विचार किया जाना एक सकारात्मक कदम हो सकता है। देश में भी और विदेश में भी हिन्दी-उर्दू के पाठक प्राय: साथ ही रहते हैं। पूरे उत्तर भारत में जहाँ हिन्दी है वहाँ उर्दू भी है। दक्षिण में हैदराबाद क्षेत्र में भी ऐसा ही है। इससे पुस्तकों के वितरण सम्बन्धी खर्चे कम होंगे। पुस्तक विक्रेताओं की जो भारी कमी महसूस की जा रही है, वह दूर होगी और दोनों भाषाओं के पाठकों को पुस्तकें आसानी से मिल सकेंगी।

और अन्त में मैं दोहराना चाहूँगा कि उर्दू में लेखक-प्रकाशक के बीच उचित अनुबन्ध के तहत ही पुस्तक प्रकाशन की शुरुआत का संकल्प फौरन से पेशतर लिया जाना चाहिए। यह व्यावसायिक और विधिसम्मत अनुबन्ध हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों के बीच भी समान रूप से लागू होना चाहिए। राजनीतिक पहल की प्रतीक्षा न करके इसे जन सहयोग से तुरन्त लागू किया जाए। यह सिर्फ़ भाषा का मामला नहीं है। बल्कि गंगा-जमुनी तहजीब की नींव का मामला है। जिसकी हिफ़ाजत हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है।

 

[राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी का यह लेख तद्भव  पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।]