मंटो की डायरी : मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ

मैं अफसाना न लिखूँ तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने या मैंने गुस्ल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी। मैं अफसाना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफसाना मुझे लिखता है। मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूँ― यूँ तो मैंने बीस से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे बाज़ औकात हैरत होती है कि यह कौन है, जिसने इस क़दर अच्छे अफसाने लिखे हैं, जिन पर आए दिन मुक़दमे चलते रहते हैं।

सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनकी सम्पूर्ण रचनाओं के संग्रह ‘दस्तावेज’ के खण्ड चार में संकलित मंटो की डायरी का एक अंश : ‘मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ’।

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मुअज्जज सवातीनो-हज़रात!

मुझसे कहा गया है कि मैं यह बताऊँ कि मैं अफसाना क्योंकर लिखता हूँ। यह ‘क्योंकर’ मेरी समझ में नहीं आया– ‘क्योंकर’ के मानी लुगत में तो यह मिलते हैं― कैसे और किस तरह।

अब आपको क्या बताऊँ कि मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ। यह बड़ी उलझन की बात है। अगर मैं ‘किस तरह’ को पेशे नज़र रखूं तो यह जवाब दे सकता हूँ: “मैं अपने कमरे में सोफ़े पर बैठ जाता हूँ, कागज-कलम पकड़ता हूँ, और बिस्मिल्लाह करके अफसाना लिखना शुरू कर देता हूँ― मेरी तीन बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं। मैं उनसे बातें भी करता हूँ, उनकी बाहम लड़ाइयों का फ़ैसला भी करता हूँ। अपने लिए सलाद भी तैयार करता हूँ― कोई मिलनेवाला आ जाए तो उसकी ख़ातिरदारी भी करता हूँ― मगर अफसाना लिखे जाता हूँ।”

अब ‘कैसे’ का सवाल आए तो मैं यह कहूंगा : “मैं वैसे ही अफसाना लिखता हूँ, जिस तरह खाना खाता हूँ, गुस्ल करता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और झक मारता हूँ।” अगर यह पूछा जाए कि मैं अफ़साना क्यों लिखता हूँ तो इसका जवाब हाज़िर है। “मैं अफ़साना अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफ़सानानिगारी की शराब की तरह लत पड़ गई है।”

मैं अफसाना न लिखूँ तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने या मैंने गुस्ल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी।

मैं अफसाना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफसाना मुझे लिखता है। मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूँ― यूँ तो मैंने बीस से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे बाज़ औकात हैरत होती है कि यह कौन है, जिसने इस क़दर अच्छे अफसाने लिखे हैं, जिन पर आए दिन मुक़दमे चलते रहते हैं।

जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ सआदत हसन होता हूँ, जिसे उर्दू आती है न फारसी, अंग्रेजी न फ्रांसीसी।

अफसाना मेरे दिमाग़ में नहीं, जेब में होता है, जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती। मैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई अफसाना निकल आए― अफ़सानानिगार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ सिगरेट पे सिगरेट फूंकता हूँ, मगर अफसाना दमा से बाहर नहीं थक-हारकर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ।

अनलिखे अफ़साने के दाम पेशगी वसूल कर चुका होता हूँ, इसलिए बड़ी कोफ्त होती है।

करवटें बदलता हूँ; उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ; बच्चियों को झूला झुलाता हूँ, घर का कूड़ा-करकट साफ करता हूँ; नन्हे-मुन्ने जूते, जो घर में जा-बजा बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ― मगर कमबख़्त अफसाना, जो मेरी जेब में पड़ा होता है, मेरे ज़ेहन में उतरता नहीं― और मैं तिलमिलाता रहता हूँ। जब बहुत ज़्यादा कोफ्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होता।

सुना है कि हर बड़ा आदमी गुस्लखाने में सोचता है― मुझे तजवे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ, इसलिए कि मैं गुस्लखाने में भी नहीं सोच सकता। हैरत है कि फिर भी मैं पाकिस्तान और हिंदुस्तान का बहुत बड़ा अफसानानिगार हूँ!

मैं यही कह सकता हूँ कि मेरे नक़्क़ादों की खुशफहमी है, या मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ, उन पर कोई जादू कर रहा हूँ।

किस्सा यह है कि मैं ख़ुदा को हाज़िरो-नाज़िर रखकर कहता हूँ कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ। 

अक्सर औकात ऐसा हुआ है कि जब मैं ज़च-बच हो गया हूँ तो मेरी बीवी ने मुझसे कहा है: “आप सोचिए नहीं कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए।”

मैं उसके कहने पर क़लम या पेंसिल उठाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ।

दिमाग बिलकुल खाली होता है, लेकिन जेब भरी होती है और खुद-ब-खुद कोई अफ़साना उछल के बाहर आ जाता है।

मैं ख़ुद को इस लिहाज़ से अफ़सानानिगार नहीं, जेबकतरा समझता हूँ, जो अपनी जेब ख़ुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता है। मुझ-ऐसा भी बेवकूफ़ दुनिया में कोई और होगा!

 

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