सूर्यबाला के उपन्यास ‘मेरे संधि पत्र’ पर विभा रानी की टिप्पणी
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सूर्यबाला जी की किताबों पर आरम्भ से ही लिखती रही हूँ, साप्ताहिक हिन्दुस्तान के दिनों से। मुम्बई आने पर उनसे बात मुलाकात होती रही है बीच-बीच में।
पिछले महीने सुदर्शना द्विवेदी जी द्वारा आयोजित धूम मचाने वाला ‘बहनों का जलसा’ कार्यक्रम हुआ, जो सूर्यबाला जी पर केन्द्रित था। इस जलसा में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनका एक उपन्यास ‘मेरे संधि पत्र’ मिला।
अलग-अलग पात्रों के मुख से कहे गए कथानक को मुख्य पात्र शिवा की कहानी से जोड़ते हुए इस उपन्यास को पढ़ते वक़्त आप उपन्यास की कमनीयता के साथ-साथ ठोस और कठोर धरातल पर अपनी देहरी बनाते रह जाएंगे। आपको पल प्रतिपल लगता जाएगा कि क्यों है अभी भी स्त्रियों के लिए यह दुनिया इतनी कठोर? क्यों उसे पल-प्रतिपल देनी होती है अग्निपरीक्षा? क्यों उसके लिए उसका तन और मन उसका अपना नहीं, जहाँ वह अपने भीतर की तहों का रेशा-रेशा नहीं उघाड़ सकती और क्यों अपने तन पर अपनी कामना के बेल बूटे नहीं काढ़ सकती?
सौतेली मां का दंश यह समाज हर उस औरत को इतनी आसानी और सहजता से देता चला जाता है कि लगने लगता है जब सौतेली मां के लक्षण और करम आपको पता है ही तो फिर आप सब क्यों किसी को सौतेली मां बना देते हैं? बलवान पुरुष के पास इतनी ताकत, समझ, समय और अपने बच्चों के लिए प्रेम तो होना ही चाहिए कि वह अपना घर, काम और बच्चे देख सके। आखिर एक औरत भी तो अकेली हो जाने पर यह सब करती ही है।
लेकिन, पुरुषों को हमने और हमारे समाज ने केवल अहम दिया है, जिसके आगे वह किसी की भी हेठी कर सकता है। वह अपनी दूसरी पत्नी के प्रति आभारी होने कि वह उसके बच्चों की मां बनने आ गई है, उसके बदले वह उसके रूप, रंग, बात विचार, चाल ढाल का मजाक उड़ा सकता है, अपनी बिगड़ी डील डौल पर भी नाज कर सकता है, पत्नी को सौतेली मां होने के ताने दे सकता है।
और मां! इस सौतेलेपन के दंश से भयभीत हमेशा दबी, सहमी रहती है कि समाज और घर के लोग, यहाँ तक कि पति भी कहीं यह न कह दे कि अपनी मां नहीं हो न! मैंने देखा है कि कई सौतेली माताएँ अपने बच्चों से बढ़कर अपने पति के बच्चों को प्यार करती रहीं हैं। अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाया, उनको जी भरकर प्यार नहीं किया कि कहीं इन सबके लिए भी उसे उलाहनों और तानों के कटघरे में खड़ा कर ना दिया जाए।
‘मेरे संधि पत्र’ की नायिका शिवा भी इन्हीं जकड़नों से बंधी हुई है। एक बेटी उसे उन बंधनों से छुड़ाने की कोशिश करती रहती है, लेकिन डर का धागा वह तोड़ नहीं पाती। ऐसे में, मन के सूखे कोने पर स्नेह की बरसती फ़ूँही से अपने मन में कामनाओं को कैसे अंकुराने दे, क्योंकि औरतों के लिए तो प्रेम करना ही गुनाह है, वह भी एक शादीशुदा और, एक सौतेली मां! समाज हमारा कब उदार होगा, पता नहीं।
कथा के अंत में हम यह उम्मीद करते हैं कि शिवा अपने एकाकी जीवन में बच्चों के अंकल के मद्धम राग से अपने जीवन का संगीत सजाएगी। यह आज का लेखकीय समाधान हो सकता है। हकीकत तो यह है कि अभी भी जाने कितनी शिवाएँ इस अभिशाप और बंधन के भारी बोझ तले दबी हुई हैं। कहानी के साथ जैसे हम घुटते रहते हैं, शिवा की तरह शायद ढेर सारी शिवाएँ। और उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती हैं शिवा और उन्हीं का आख्यान है सूर्यबाला जी का यह उपन्यास।
लेखक की अनुमति से उनकी फ़ेसबुक वॉल से साभार
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