पिछले कुछ दिनों से परिवार में बैंगन की ही बात होती है। जब भी जाता हूँ, परिवार की स्त्रियाँ कहती हैं—'खाना खा लीजिए। घर के बैंगन बने हैं।' जब वे 'भरे भटे' का अनुप्रास साधती हैं, तब उन्हें काव्य-रचना का आनन्द आ जाता है। मेरा मित्र भी बैठक से चिल्लाता है-'अरे भई, बैंगन बने हैं कि नहीं!' मुझे लगता है, आगे ये मुझसे 'चाय पी लीजिए' के बदले कहेंगी—' एक बैंगन खा लीजिए। घर के हैं।'
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य 'आंगन में बैंगन'।