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पिछले कुछ दिनों से परिवार में बैंगन की ही बात होती है। जब भी जाता हूँ, परिवार की स्त्रियाँ कहती हैं—'खाना खा लीजिए। घर के बैंगन बने हैं।' जब वे 'भरे भटे' का अनुप्रास साधती हैं, तब उन्हें काव्य-रचना का आनन्द आ जाता है। मेरा मित्र भी बैठक से चिल्लाता है-'अरे भई, बैंगन बने हैं कि नहीं!' मुझे लगता है, आगे ये मुझसे 'चाय पी लीजिए' के बदले कहेंगी—' एक बैंगन खा लीजिए। घर के हैं।'राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य 'आंगन में बैंगन'।
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राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखक दामोदर मावज़ो के कहानी संग्रह 'स्वप्न प्रेमी' से उनकी कहानी 'इनसानों के देस में'। इस संग्रह में संकलित अधिकांश कहानियों की पृष्ठभूमि गोवा की संस्कृति और जीवनशैली है।
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राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, भालचन्द्र नेमाडे के उपन्यास 'हिन्दू' का एक अंश। यह उपन्यास भारतीय समाज की जातीय-सांस्कृतिक संरचना का बहुआयामी आख्यान है। इसमें मोहन जोदड़ो से लेकर उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के ग्रामीण भारत की अनेक कथाएँ दर्ज है।
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राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, शरद जोशी के व्यंग्य संग्रह 'जीप पर सवार इल्लियाँ' से उनका व्यंग्य 'एक मिनी भ्रष्टाचार।'