'फ़िलिस्तीन : एक  नया कर्बला' किताब में संकलित कहानी ‘पंख’

“उसका दिल चाह रहा था कि काश वह कैम्प की दीवारों को उस शब्द से भर देती जिसके लिए उसके दिल में प्यार-ही-प्यार है। मगर जाने कहाँ से शैतान की औलादें आन टपकीं और उसे भागना पड़ा। उसे याद आया वह लड़का जिसका नाम उर्वा था। जो इनके आने के बाद भी दीवार पर लिखता रहा और भागा नहीं था। उसे उन्होंने मार डाला। उसी ने तो सिखाया था फ़िलिस्तीन के झंडे को रंग से बनाना। वह उसे यादकर रो पड़ी। बहते आँसुओं के बीच, उर्वा का धुँधला चेहरा उभरा जो किसी परिन्दे की तरह कैम्प में उड़ रहा था। वह उसके पीछे भागी। उसका दिल चाहा कि वह भी वैसे ही उड़े।”

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, फ़िलीस्तीन की पृष्ठभूमि में लिखी गई लेबनानी पत्रकार तलत सौकेरत की कहानी ‘पंख’। यह कहानी लेखक-पत्रकार नासिरा शर्मा की नई किताब ‘फ़िलिस्तीन : एक  नया कर्बला’ में संकलित है। फ़िलिस्तीन और इजरायल की राजनीति, समाज और साहित्य पर केन्द्रित इस किताब के माध्यम से हम यहूदियों और अरब फ़िलिस्तीनियों, दोनों के हालात को समझ सकते हैं।

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उसने दीवार पर ‘फ़िलिस्तीन’ लिखा और शरणार्थी शिविर से लगी सड़क पर दौड़ती चली गई। क़ाबिज़ पुलिस ने गोलियाँ चलाईं। जब वह घर पहुँची तो बुरी तरह हाँफ रही थी।

“क्या बात है नजवा?” माँ ने पूछा मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप लकड़ी की कुर्सी पर जाकर बैठ गई। कुछ पल बाद वह अपनी रंगीन चॉक को डिब्बे में सजाने लगी।

“हाथ धोकर आओ, खाना लग गया है।” माँ की आवाज़ उभरी। नजवा ने चालू को उँगलियों से हलके से थपका फिर हँस पड़ी। उसका दिल चाह रहा था कि काश वह कैम्प की दीवारों को उस शब्द से भर देती जिसके लिए उसके दिल में प्यार-ही-प्यार है। मगर जाने कहाँ से शैतान की औलादें आन टपकीं और उसे भागना पड़ा। उसे याद आया वह लड़का जिसका नाम उर्वा था। जो इनके आने के बाद भी दीवार पर लिखता रहा और भागा नहीं था। उसे उन्होंने मार डाला। उसी ने तो सिखाया था फ़िलिस्तीन के झंडे को रंग से बनाना। वह उसे यादकर रो पड़ी। बहते आँसुओं के बीच, उर्वा का धुँधला चेहरा उभरा जो किसी परिन्दे की तरह कैम्प में उड़ रहा था। वह उसके पीछे भागी। उसका दिल चाहा कि वह भी वैसे ही उड़े।

“तुम्हारे पास पंख होना चाहिए यदि तुम उड़ना चाहती हो।”

“कैसे?” उसने व्याकुलता से पूछा मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया और इन्तेफ़ादा (नवजागरण) के लड़कों को पत्थर फेंकता देखता रहा।

“तुम मुझे अपने पंख उधार दे दो।” उसकी बात सुन उर्वा ने अपनी चोंच से एक पत्थर उठाया और उसके हाथों में थमाया। वह खुश हो गई और उसने पत्थर हवा में फेंका ठीक किसी मिसाइल की तरह जो एक सिपाही के चेहरे पर लगा और वह जमीन पर औंधा गिर गया।

एकाएक वह साँप बन गया और उसका पीछा करने लगा। उसकी साँस तेज़ चलने लगी। साँप जैसे ही पास आया उर्वा ने लपककर नजवा को अपने पंखों पर बिठा लिया। साँप ने जहर उगलना और गोली बरसाना शुरू कर दिया।

“नजवा…” माँ की आवाज गूँजी, “मैंने तुमसे कहा था कि हाथ धोकर आ जाओ।”

“क्या उर्वा चिडिया की तरह उड़ सकता है?” नजवा ने माँ से पूछा। माँ हाथ का काम छोड़ बेटी के पास आई और उसने बेटी को ताज्जुब से घूरा। 

“उर्वा शहीद हो चुका हैउसकी याद तुम्हें कैसे आई?” माँ ने बेटी को टटोलती नजरों से देखा।

“वह कैसे उड़ सकता है?” नजवा ने पूछा।

“बच्चे स्वर्ग के परिन्दे होते हैं।” माँ इतना कह काम में लग गई मगर नजवा को हाथ धोने के लिए कहना न भूली।

“क्या मैं उसकी तरह बन सकती हूँ।” नजवा ने माँ की बात नहीं सुनी। उसका दिमाग़ तो इस भेद को समझने में उलझा हुआ था। वह फिर अपने से बुदबुदाई, रोज मैं उसे कैम्प में उड़ता देखती हूँ सुन्दर पंखों के साथ। उसने रंगीन चॉक पर नज़र गाड़ी और सोचा।”

“मैं पहले झंडा रँगूँगी फिर अपने गीत लिखूँगी और इसके बाद हवा में उडूंगी।” यकायक उसके दिमाग़ में एक विचार कौंधा जो उसे पसन्द आया।

“क्यों न मैं बड़ा पंख बनाकर रंग डालूँ?”

नजवा अपनी जगह से उठी और कैम्प के सामनेवाली सड़क पर दौड़ गई। माँ पुकारती रह गई। दीवार के पास पहुँचकर पहले उसने लिखा ‘मुझे परिन्दों और बच्चों से प्यार है।’ इसके बाद उसने पंख बनाना शुरू कर दिया और उसमें इस तरह डूबी कि वह सबकुछ भूल गई। एक के बाद एक पंख वह बनाती चली गई और फिर बड़े ध्यान से उसमें रंग भरने लगी।

“मुझे उर्वा की तरह उड़ना चाहिए।” उसने सोचा। 

“हम मिलकर इस दुनिया को गीतों से भर देंगे।” इतना कह उसने चॉक से भरे हाथों को झाड़ा, फिर दूसरी चॉक के लिए उसने जेब में हाथ डाला ताकि वह दूसरा पंख बनाना शुरू करे। एकाएक उसके कानों में नारों और साथ ही बूटोंवाले पैरों के दौड़ने की आवाज आई। शोर बढ़ गया। उसने उधर ताका जिधर से हंगामे की आवाज़ आ रही थी। कैम्प से बच्चे बाहर निकल इधर-उधर दौड़ने लगे। क़ाबिज़ फ़ौजी फ़ोर्स ने हवाई फ़ायर करना शुरू कर दिया था। पत्थर चारों तरफ़ से आ-जा रहे थे। गोलियाँ अब बच्चों पर बरसनी शुरू हो गई थीं। पत्थर, गोली, पत्थर, उसके मन में इच्छा जागी कि इस पंख को पूरा कर वह भी अपने पत्थरों के साथ सिपाहियों पर टूट पड़े। उसने कल्पना में देखा कि वह कैसे अपनी चोंच में पत्थर उठाए उड़ रही है। उसे यह दृश्य बहुत भाया। उसके हाथ तेजी से पंख में रंग भरने लगे। उधर लड़के भाग रहे थे, इधर पंख बढ़ रहे थे और उन्होंने एक बड़ा आकार ले लिया था।

गोलियाँ बारिश की तरह बरस रही थीं। उर्वा उसके सर पर गोल चक्कर लगाने लगा, उसके पंख जोर-जोर फड़फड़ा रहे थे। फ़ौजी क़रीब आए। बच्चे भी नजदीक पहुँचे। पंख की आकृति लम्बी हो गई। यह देख नजवा मुस्कराई और उसने अपने दोनों हाथ पंख की तरह फैलाए।

गोलियों की आवाज का शोर बढ़ गया। एक बच्चा जमीन पर गिर पड़ा। चिड़िया के पंख खून से नहा गए। वह चीख पड़ी और चाकू से खून में डूबी दीवार पर लिखने लगी, ‘जिन्दाबाद फ़िलिस्तीन’।

इससे पहले कि वह अपनी कल्पना में और उड़ान भरती एक गोली ने पेवस्त हो उसे एक ठंडी लाश की तरह ज़मीन पर गिरा दिया।

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