लेखक होने का मतलब!

कृष्णा सोबती के संस्मरणों की शृंखला—हम हशमत (भाग-4) से एक अंश

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लेखक होना जितना सहज दीखता है, वह उतना आसान है नहीं। लेखक एक बड़ी दुनिया को अपने में समेटे रहता है। अपनी एक सीमित इकाई में एक छोटी अन्तरंग दुनिया को बड़ी के पक्ष में खड़ा करता है। अपने होने के बावजूद अपने से एक ऐसी तालीम जगाता है जो उसे एक बड़ा परिप्रेक्ष्य देती है। उसे अपने से बाहर फैले संसार के यथार्थ से भी जोड़ती है। उसके निज के आत्मिक एकान्त और बाहर के शोर को एक कर देती है। उसे समय और काल से जोड़ देती है। किसी के दबाव में नहीं—स्वेच्छा से। 

लेखक जो भी है, अपने चाहने से है। अपने करने से है। अपनी समस्याओं, सिद्धान्तों और विश्वासों से है। जिस भी चौखट से लेखक जागृत होता है—उसका रचाव-रसाव दोनों उसके लेखन में जज्ब होते चले जाते हैं। हवाएँ हल्की-तीखी, सर्द-गर्म जो लेखक ने अपने बचपन में जानी होंगी, महसूस की होंगी, वह अन्दर सोख भी ली होंगी। हर इनसान का बच्चा इन मौसमों के बीच से गुजरता है। वह सुबहें जो शहर-कस्बे-गाँव-नगर-महानगर, कहीं भी धूप-छाँह में लहराई होंगी, वह यक़ीनन उसके वजूद में घुली होंगी। हर दिन घुलनशील रहा है। 

बचपन का नटखटपन, बालिग होने के पहले की शरारतें अमिट अंकन से सजीव हो स्मृति के तलघर में पड़ी होंगी। वही कतरा-कतरा, बूँद-बूँद लेखक के पाठ में घुल-मिल जाती हैं। एक हो जाती हैं। इनसे जुड़ी वह डोरें, वह ताना-बाना बहुत दूर तक अपने को खींचे लिये चलता है। फिर न जाने कहाँ से मुखड़ा दिखाती हैं लेखक की सम्भावनाएँ अपनी पूरी क्षमता और सीमाओं के साथ। साहित्य के चिरन्तन द्वार पर खड़ा नौसिखिया लेखक प्रतिभा के सर्जन को कैसे निहारता है, अपने पिछले प्राचीनों को कैसे स्वीकार करता है, समकालीनों को सराहता है, नकारता है, नई-पुरानी सोच को कैसे अपनी अन्तर्दृष्टियों में उतारता, ढालता है—यह सभी कुछ लेखक से लेखक के सम्बन्धों को मर्यादित करता है। संयमित करता है। यह सब कुछ हर लेखक के साथ घटित होता है। कभी-कभार नहीं, बार-बार, हर बार, जब लेखक नई कृति के रूप में ‘पुराना’ होता है। वह पुराना पड़ता नहीं।

एक अच्छी कृति की गूँथ और उसकी सघनता लेखक को एक नया-सा रुआब देती है। पर यह होता है—कृतिकार की संज्ञा में नहीं, प्रकाशित कृति के हलके में। प्रकाशित हो जाने के बाद कृति का अपना अस्तित्व होता है। अपना ही व्यक्तित्व भी।

लेखक ने उसे आकार दिया है। विचार दिया है। अर्थ और मर्म भी। उसका वजूद लेखक से अलग है, किन्तु लेखक की आत्मा से जुड़ा है। दिलचस्प है लेखक और उसके लेखन के ऐन बीचोबीच फैली दूरियाँ और नजदीकियाँ। एक अपने बाहर को भरपूर जीता है, दूसरा अपने अन्दर के एकान्त को गहनता से खींचता है। बाहर की गरमाहट को अन्दर खींचता है और अन्दर की नमी को अपने संवेदन में सोख लेता है।

इस प्रक्रिया की साख एकतरफा नहीं। रचना और रचनाकार दोनों अपने-अपने सीमान्तों से, विपरीत दिशाओं से केन्द्र बिन्दु की ओर बढ़ते हैं जहाँ रचना की पहली आहट, पहला स्वर धड़कता है और लेखक आधा रह जाता है। यह लेखक के एकाधिकार को कम करता है पर उसके विश्वास को गहराता है। रचना को आश्वस्त करता है, और उस दूरी से जो रचना और रचनाकार के दरमियान रहना जरूरी है। गलतफहमी न हो। लेखक हाशिए से लिखी जानेवाली रचना को नहीं झाँकता, वह अपने अधिकारों को बाँटता है रचना के साथ, जिसे वह लिख रहा होता है और वह जो उसके द्वारा लिखी जा रही होती है। स्थितियों और पात्रों पर अपना अनुशासन लागू नहीं करता, मगर रचना के स्वभाव, संस्कार और ‘विचार’ पर अपनी पकड़ बनाए रखता है। रचना और रचनाकार में यह अन्तर्रात्मीय सन्धि है जो पेचीदा ढंग से पाठ के हस्तक्षेप से दोनों की सुरक्षा करती है। दोनों के दावों को नियमित करती है। बहुत कुछ है जो लेखक के साथ चलता है। उसे आप लेखक के पाठ में देख सकते हैं। शब्दों और पंक्तियों को पाठ के जमावड़े में से इधर-उधर नहीं कर सकते। उस पर लेखक का रोमांस और रोमांच यह कि लिखता कोई और है, पढ़ता कोई और है, उसे जीता कोई और है। यह रिश्ते बहुत दूर-दूर तक फैलते हैं। अपनी व्यापकता में सीमाओं को लाँघते चले जाते हैं। पंक्तियाँ, संवाद, वृत्तान्त जो अकेले कमरे में बैठकर लेखक अपने होने से लिखता है, वह सब उसका न रहकर पाठकों का हो जाता है। लेखक कृति की उपलब्धि से बिचारा बना हुआ कभी आलोचक से आँखें चुराता है, कभी अपने को अपने से बचाता है। कभी भीड़ में अपने को खोजता है, और कभी भीड़ में खो जाता है, अपने को खोजने चला जाता है। फिर जिद में आकर अपने से गुम हो जाता है। रौ है जितना बारीक काते, जितना लम्बा बुने, खुरदुरा या मुलायम, उसे कौन रोक सकता है! रचनाकार स्वयं रचना नहीं है, मगर सच यह भी है कि रचना का गर्भ-गृह लेखक में स्थित है। रचना की प्रतीति रचनाकार को उस एकान्त में होती है जहाँ कभी एक शृंखला के तारतम्य में और कभी टुकड़ों के मुखड़े आसपास फैले यथार्थ को, कल्पना और फन्तासी को रहस्यमय ढंग से उद्घाटित करते हैं। तब होती है वह पुनर्रचना जिसकी अभिव्यक्ति की बेचैनी लेखक की मैत्रीपूर्ण लचक को पहचानती है। उसके निकट के प्रकाश, प्रयास और प्रभाव को बिना किसी अतिरिक्त के उस अभ्यर्थना को सुखद सुकार्यता में बदल देती है। आप खोलते चले जाते हैं इस लोक के व्यक्त को, अव्यक्त को। सूक्ष्म से सूक्ष्म को, अर्थ को, मर्म को। जीने की स्वरलिपियों को शब्दों में बाँधकर तरंगित करते हैं उनके लिए जो इस मर्म की महिमा से परिचित हैं। पाठक। वही है उस पाठ का पारखी जिसे लेखक जोखिम उठाकर प्रस्तुत करता है, लेखकीय दबाव और तनाव के दोहरे आतंक तले, स्वयं अपने चुनाव की, लिखने के निर्णय की कीमत अदा करता है और अपनी रचनाओं को उनके समक्ष खड़ा करता है।

यह कोई पैंतरेबाजी नहीं, आमने-सामने का साक्षात्कार है। लौकिक और अलौकिक का संवाद है जो लिख लिए जाने पर लेखक से अलग हो नया व्यक्तित्व धारण कर लेता है। वह स्वयं में स्थित हो जाता है, दुबारा प्रवाहित हो जाने को। अपनी प्रकाशित कृति को लेखक एक दर्शक की तरह कभी पाठक की निगाह से देखता है, कभी आलोचक की और कभी स्वयं रचना की जिसने लेखकीय सामथ्र्य से छिटककर, अलग व्यक्तित्व और अधिकार अर्जित कर लिये हैं।

लेखक की स्वतंत्रता, अनुशासन और रचनात्मक उन्मुक्तता, उस दूरी से जुड़ी रहती है जिसे संयम कहा जाता है। रचनात्मक संयम। अगर लेखक अपने ऊपर आँख रखकर अपने को, पात्रों को, स्थितियों को जीता नहीं तो निश्चय ही उस रसायन को प्रवाहित और तरंगित नहीं कर सकता जिसे उसको अपने पाठ द्वारा अनजान, अनाम पाठकों तक पहुँचाना होता है। कौशल से अलग अपने और रचना को पन्ने पर उतारते हुए न मैत्री, न बैर, न सगापन, न परायापन, न आसक्ति, न विरोध, इन सब में से छनती हुई अनुभव की प्रतीति और गति ही लेखक का लेखकीय संकल्प है। उसे वह दो स्तरों पर उद्भासित करता है। रचना की वैचारिक भाषा और उसे अंकित और गतिमान करनेवाली अक्षर-शब्द, पंक्ति-व्याकरण और वर्तनी के नियमों की गूँथ, स्वर-ताल में बँधी भाषा।

दोस्तो, भाषा इस ‘लोक’ की जीवन्तता का रोमांस है। विचार की उत्तेजना, प्रखरता, गहराई, एकान्त की बेआहट को, प्यार और न प्यार के द्वन्द्व को, घर-परिवार को, शेर और जंगल के मौन को, मन की खिड़की से टकराते तनावों के पंखों से, फडफ़ड़ाहट की छुअन से, हास और उल्लास से, भला क्या है जो भाषा अंकित नहीं कर सकती। भाषा में निहित है प्रकृति और समस्त संसार का संवेदन। ऐसा कुछ भी नहीं जिसे शब्द व्यक्त न कर सकें। वे अपने होने के अधिकार से चाल को विराम देते हैं, तेज रफ्तार को थाम लेते हैं। प्रवाह को बींध देते हैं, चीर देते हैं। जीवन और मरण को शब्दों की सत्ता से माप लेते हैं।

एक कार्यशील लेखक की ओर से इतना तो कहा ही जा सकता है कि भाषा के ही मुखड़े से मौसमों-ऋतुओं के पंखों पर उड़ते समय को हम थाम लेना चाहते हैं, शब्दों और अर्थों की सोहबत में उसे दुबारा जिन्दा करना चाहते हैं। एक क्षण, एक लम्हे में एक तस्वीर, छवि, भाव को बाँध लेना चाहते हैं एक पंक्ति में। विस्मयकारी है विचार को इसका विस्तार और इसकी गहराई देने वाली और एक शब्द से एक बूँद को पकड़नेवाली सामर्थ्य भाषा की।

 

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