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ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘ठाकुर का कुआँ’ एक बार फिर राजनीतिक कारणों से चर्चा में है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनकी ‘सम्पूर्ण कविताएँ’ संग्रह से कुछ कविताएँ जो इसी तरह समाज की क्रूर जातिवादी सच्चाई को उजागर करने के साथ ही सामाजिक असमानता पर कड़े प्रहार करती है।Read more
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Posted: November 17, 2023
ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा 'जूठन'
अगले दिन सुबह से लेकर दोपहर तक कोई चूल्हा नहीं जला था। बरसात ने फाकों की नौबत पैदा कर दी थी। जीवन जैसे पंगु हो गया था। लोग गाँव भर में घूम रहे थे, कहीं से कुछ चावल-गेहूँ मिल जाए तो चूल्हा जले। ऐसे दिनों में उधार भी नहीं मिलता। दर-दर भटककर कई लोग खाली हाथ आ गए थे। पिताजी भी खाली हाथ ही आ गए थे। उनके चेहरे पर बेबसी थी। सगवा प्रधान ने अनाज देने की शर्त भी रख दी थी। अपने किसी लड़के को सालाना नौकर रख दो, बदले में जितना अनाज चाहो ले जाओ।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनकी आत्मकथा जूठन का एक अंश। इसमें बरसात के दिनों में दलित बस्तियों की दुर्दशा का वर्णन है।
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1962 के साल में खूब बारिश हुई थी। बस्ती में सभी के घर कच्ची मिट्टी से बने थे। कई दिन की लगातार बारिश ने मिट्टी के घरों पर कहर बरपा दिया था। हमारा घर जगह-जगह