पुस्तक अंश : रांगेय राघव का उपन्यास 'मुर्दों का टीला'

“अपने को सभ्य कहते हुए तुमने मनुष्य को दास बनाया है और तुम समझते हो यह दास तुम्हारी खोखली सभ्यता की रक्षा कर सकेंगे? जिस दिन इन दासों में मनुष्यता जाग उठेगी उस दिन ये तुम पर एक होकर वज्र की भाँति टूट पड़ेंगे और तुम? तुम विलास के पैशाचिक बंदी, अपनी श्रृंखलाओं में फँसकर अपने-आप ध्वस्त हो जाओगे।”

रांगेय राघव की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनके उपन्यास मुर्दों का टीला का एक अंश। इस उपन्यास में लेखक ने एक रचनाकार की दृष्टि से मोअन–जो-दड़ो का उत्खनन करने का प्रयास किया है। प्राचीन भारत की सिन्धु घाटी सभ्यता के स्वरूप, उस समाज के लोगों की जीवन-शैली, शासन व्यवस्था आदि का अद्वितीय विवरण इस उपन्यास में मिलता है।  

द्रविड़ों की इस भीड़ के नगर में आने से काफी तहलका-सा मच गया। भूखे दिन-भर इधर-उधर घूमते, जैसे उन पर कोई रोक-टोक नहीं। वे चाहे जहाँ घूम-फिर सकते हैं। उनके मैले-कुचले, फटे हुए वस्त्र, उनके भूख से विकृत मुख, और दुर्बल शरीर बहुत ही डरावने मालूम देते। मोअन-जो-दड़ो में भिखारियों की भीड़-सी लगने लगी। अब नित्य ही कुछ-न-कुछ भूखे महानगर में आ घुसते। स्वयं पहले के ही भिखारी थे, अब यह नए भिखारी तो ऐसे हो गए जैसे वैभव को अब उस कठोर दरिद्रता ने ढंक दिया था। और वे जो कल सुखी थे उनकी यह दशा देख-देख लोग मन-ही-मन काँप जाते।

बाज़ारों-हाटों में लोग आपस में इसी विषय पर बातें करते।

हठात् ही व्यापारियों को हानि हुई। उनके बने-बनाए बाज़ार उनके हाथ से चले गए। अब कहाँ जाएँगे उनके सार्थ? किससे व्यवहार होगा उनका? आर्य्य तो नितांत बर्बर कहे जाते हैं। यदि उनसे संबंध भी किया जाए तो किस आधार पर? जब श्रेष्ठिगण कभी-कभी यह सोचते, साधारण जन सदैव बर्बर आर्यों को ध्वंस कर देने की बात करते। वे कभी सोच भी नहीं सकते थे कि सभ्य जन ऐसे बर्बरों के साथ अपना संबंध स्थापित रख सकेंगे। मर्यादा का मर्यादा से मेल व्यवहार होता है। जो अपने ऊपर इतना दर्प करते हों वे क्या किसी के विश्वसनीय हो सकते हैं।

आर्य जाति के प्रति लोगों में एक ओर तो भय उत्पन्न हुआ, दूसरी ओर कुछ थे जो सदैव हँसी उड़ाते थे। यदि आर्य्य यहाँ भी आ गए तो? कभी-कभी जब वे घरों का, अपने देश का जलता हुआ चित्र कल्पित करते तब उनके रोंगटे खड़े हो जाते और आशंका विराट् बन जाती, किंतु फिर प्राचीनता की शक्ति उन्हें निश्चय दिलाती कि वे कभी भी नहीं मर सकेंगे, क्योंकि वे अत्यंत सभ्य और बहुत प्राचीन हैं। किंतु केवल प्राचीनता ही तो किसी की शक्ति बनकर उसके हृदय में दृढ़ विश्वास नहीं जमा सकती। महानगर वास्तव में विलास का एकमात्र केंद्र हो रहा था, वहाँ के वासी इस युद्ध की बातों को बर्बरता कहकर कभी के भूल चुके थे।

श्रेष्ठि विश्वजित् बाज़ार के बीचोबीच खड़ा होकर चिल्लाने लगा। बहुत दिन बाद आज उसका यह रूप देखकर सत्वर भीड़ एकत्रित हो गई। उस दिन जो उसने खुले आम मुँह पर आमेन-रा को गाली दी थी उससे जनसमाज में उसके प्रति कहीं अधिक आदर बढ़ गया था जैसे विश्वजित् वास्तव में एक बहुत बड़ी शक्ति है जिसके रहते कोई कुछ नहीं कर सकता। स्वयं मणिबंध ने उस दिन गण से कहा किंतु किसी में भी साहस न था जो विश्वजित् से उठकर एक शब्द भी कहे, वरन् स्वयं महाश्रेष्ठि मणिबन्ध को ही अपनी ओर से क्षमा माँगने को विवश होना पड़ा था क्योंकि और कोई उपाय ही नहीं था।

विश्वजित् कह रहा था "महानगर के निवासियो! ध्वंस की बेला अब सिर पर आ गई है किंतु तुम अपनी मोहनिंद्रा में अभी तक मत्त पड़े हो। तुम्हारा यह झूठा भ्रम कि तुम समान हो, तुम एक गण के संचालक हो जो अब खंड-खंड हो जाएगा। तुम्हें कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता क्योंकि अपने व्यापार के लिए कायरो, तुममें झूठ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचा है! तुम्हारा गणाधिनायक एक नपुंसक सम्राट् की भाँति घनियों के लेखों पर मुद्रांकन मात्र किया करता है।"

लोग हँसने लगे।

विश्वजित् ने एक नागरिका की गोदी से बच्चा छीनकर ऊपर उठाकर दिखाते हुए कहावह दिन दूर नहीं है जब उत्तर के बर्बरों के भालों पर तुम्हारे यह नन्हे दुधमुँहे बच्चे मुर्दों की भाँति टँग जाएँगे।"

नागरिका ने झपटकर बच्चा छीन लिया और पीछे भाग चली। किंतु विश्वजित् कहता रहा"तुम नरक के कीड़े हो, पामरो! तुमसे अधिक नीच कहीं भी नहीं मिलेंगे। अपने को सभ्य कहते हुए तुमने मनुष्य को दास बनाया है और तुम समझते हो यह दास तुम्हारी खोखली सभ्यता की रक्षा कर सकेंगे? जिस दिन इन दासों में मनुष्यता जाग उठेगी उस दिन ये तुम पर एक होकर वज्र की भाँति टूट पड़ेंगे और तुम? तुम विलास के पैशाचिक बंदी, अपनी श्रृंखलाओं में फँसकर अपने-आप ध्वस्त हो जाओगे।"

लोग कुछ देर को सन्नाटे में पड़ गए। ठीक ही तो कहता है विश्वजित्। क्या यह वास्तव में पागल नहीं है? भीड़ और पास आ गई। और बड़ी हो गई।

विश्वजित् ने फिर कहा"तुम समझते हो कि सागर पार तक तुम्हारा नाम सुनकर शत्रु थर्रा उठते हैं किंतु अब तुम्हारे घर, तुम्हारे प्रासाद अग्नि की भीषण लपटों में हरहराकर जल उठेंगे और तुम्हारी सड़कें किसी के प्रचंड घोड़ों के खुरों से टूट जाएँगी, तुम्हारी स्त्रियाँ दासियाँ बनकर अपने ऊपर सहर्ष बलात्कार करवाएँगी, तुम अपने बालकों की लोच पर खड़े किए जाओगे और तब तुम आकर पूछोगे'विश्वजित्। हम क्या करें?' लो, यह भस्म। इसे देखकर अपनी आँखें खोलो और उत्तर से आती उस आँधी को रोकने के लिए सन्नद्ध हो नाओ।"

नागरिक विक्षुब्ध हो उठे।

विश्वजित ने फिर कहारात होने के पहले जो अपने पथ को ढूंढ लेता है वही बुद्धिमान है क्योंकि उसके बाद उसे कोई कठिनाई नहीं होती। किसान अपनी डगर पर गाड़ी छोड़कर सो जाता है, किंतु बैल अपने-आप पथ पर चलते जाते हैं। मूर्खों, तुम क्या किसी भी प्रकार अच्छे हो? तुम नहीं जानते कि तुम्हारे स्वामी को सोया जानकर कोई गाड़ी को दूसरी दिशा की ओर मोड़े दे रहा है और फिर गाड़ी कहाँ जाकर खाई में गिर जाएगी तुम कभी नहीं पहचान सकोगे क्योंकि तुम्हें केवल चलना आता है, दूसरों का बोझ ढोना आता है। आओ! मेरे पीछे आओ! मैं तुम्हें आज तुम्हारा खोखलापन दिखाऊँ! देखूँ किसमें साहस है जो आज मेरे सामने आकर खड़ा हो सके।"

उसकी बात ने प्रभाव डाला। वह एकदम चल पड़ा। सबने देखा और विश्वजित के पीछे एक भीड़-सी चलने लगी। उसमें महानगर के साधारण नागरिक, पथिक और बच्चों की संख्या बढ़ने लगी। बच्चे खूब कोलाहल करने लगे। वे घुटनों से ऊँची छोटी-छोटी धोतियों पहने थे। गले और हाथों पर चाँदी और ताँबे के छोटे-छोटे मंत्र-सिद्ध गुटका कवच बंधे थे जो माला के समान लटक रहे थे। माताओं के अपार स्नेह के यह परिणाम-छोटे-छोटे तावीज-प्रायः प्रत्येक बच्चा पहनता। स्त्रियों ने घरों में से यह कोलाहल सुनकर देखा और वे स्तब्ध-सी देखती रहीं। उनकी कुछ समझ में नहीं आया। वृद्धाओं ने माथे पर हाथ लगाकर देखा । श्रेष्ठि विश्वजित् पागलपन करे तो वह तो स्वाभाविक है किंतु नागरिक उसके साथ मिल जाएँ यह एक आश्चर्य की वस्तु थी। युवतियों ने कुछ देर तो उसे देखा किंतु जब उन्हें अपने-अपने घरों के पुरुष और बच्चे भी दिखाई दिए तब कौतूहल अधिक हो गया और वे भी भीड़ में मिल गई।

शांतिरक्षकों ने एक बार सोचा कि भीड़ को तितर-बितर कर दिया जाए किंतु उनको किसी की आज्ञा नहीं मिली थी और फिर श्रेष्ठि विश्वजित् कोई मामूली व्यक्ति नहीं था, यह सब जान चुके थे। तथापि भीड़ ने कोलाहल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं किया था। यदि उन पर दण्ड प्रहार होता भी तो क्यों ? वैसे ऐसे अवसर आते ही उन्हें एकदम बिना सोच-विचार के हमला कर देने में आनंद आता, किंतु उस दिन जो विश्वजित् उस रूप में दिखाई दिया जैसे अहिराज स्वयं फन से फूत्कार कर उठा था।

अतः वे चुपचाप भीड़ को घेरकर चलने लगे और विश्वजित् चिल्लाता जा रहा था। "आओ। अपने-अपने घरों के बाहर आओ पागलो! बाहर हवा चल रही है, तुम अंदर की गर्मी में व्यर्थ ही घुट रहे हो। आओ, आओ…"

भीड़ बढ़ती जा रही थी। बच्चों का कोलाहल भी बढ़ता जा रहा था और उस कोलाहल से चारों तरफ सनसनी फैल गई। बहुत से छोटे दूकानदारों ने डर के मारे अपनी दूकानें बंद कर दी और आश्चर्य से मुँह फाड़ दिए। विदेशियों की आत्मा क्या कुछ करने लगी। जब से वे इस भुवनविख्यात महानगर की प्रशंसा सुन-सुनकर यहाँ आए हैं, प्रायः नित्य ही कुछ-न-कुछ अजीब बात दिखाई देती है, जिसमें से कारण किसी का भी समझ में नहीं आता। वे किंकर्तव्यविमूढ़-से देखते रहे। और भीड़ धीरे-धीरे उच्छृंखल होने लगी क्योंकि पथ अब घिर गया था। परस्पर, भीड़ के कारण अब कुछ धक्कमधक्का भी होने लगी थी और सब ही अव्यवस्था से चिल्लाने लगे थे। उनमें से किसी को भी नहीं मालूम था कि वे कहाँ जा रहे हैं, क्यों चिल्ला रहे हैं। 

 

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