जब उस मनहूस दिन की शाम आई और धरती काली हो गई तो उन क्रूर और मैले दिल वाले हत्यारों ने समूचे शहर में अपने कैम्प डालने शुरू कर दिए। लालक़िले में उन्होंने अपने घोड़े बाँध दिए और शाही महल को अपने सोने का ठिकाना बना लिया। धीरे-धीरे दूर-दराज़ के शहरों से यह खबर आने लगी कि बागी सिपाहियों ने अपने अफ़सरों की हत्या कर दी है और खुलेआम अपने अफसरों की हत्या करने के लिए बैरक से निकल पड़े हैं।
मिर्ज़ा ग़ालिब की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, 1857 के जनविद्रोह के समय लिखी गई उनकी डायरी 'दस्तंबू' का एक अंश। अब्दुल बिस्मिल्लाह के सम्पादन में प्रकाशित इस पुस्तक का फ़ारसी से अनुवाद सैयद ऐनुल हसन ने किया है।
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मिर्जा असद-उल्लाह खाँ ग़ालिब का नाम भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के महान कवियों में शामिल है। मिर्जा ग़ालिब ने 1857 के आन्दोलन के सम्बन्ध में अपनी जो रूदाद लिखी है, उससे उनकी राजनीतिक विचारधारा और भारत में अंग्रेजी राज के सम्बन्ध में उनके दृष्टिकोण को समझने में काफ़ी मदद मिल सकती है। अपनी यह रूदाद उन्होंने लगभग डायरी की शक्ल में प्रस्तुत की है। और फ़ारसी भाषा में लिखी गई इस छोटी-सी पुस्तिका का नाम है― 'दस्तंबू'। फ़ारसी भाषा में 'दस्तंबू' शब्द का अर्थ है पुष्पगुच्छ अर्थात् बुके (Bouquet)।
'दस्तंबू' में ग़ालिब ने 11 मई, 1857 से 31 जुलाई, 1857 तक की हलचलों का कवित्वमय वर्णन किया है। 'दस्तंबू' में ऐसे अनेक चित्र हैं जो अनायास ही पाठक के मर्म को छू लेते हैं। किताब के बीच-बीच में उन्होंने जो कविताई की है, उसके अतिरिक्त गद्य में भी कविता का पूरा स्वाद महसूस होता है। जगह-जगह बेबसी और अन्तर्द्धन्द्ध की अनोखी अभिव्यक्तियाँ भरी हुई हैं।
इस तरह 'दस्तंबू' में न केवल 1857 की हलचलों का वर्णन है, बल्कि ग़ालिब के निजी जीवन की वेदना भी भरी हुई है। भारत की पहली जनक्रान्ति, उससे उत्पन्न परिस्थितियाँ और ग़ालिब की मनोवेदना को समझने के लिए 'दस्तंबू' एक जरूरी किताब है। इसे पढ़ने का मतलब है सन् 1857 को अपनी आँखों से देखना और अपने लोकप्रिय शाइर की संवेदनाओं से साक्षात्कार करना।
पढ़ें यह अंश―
वास्तव में सोमवार का वह दिन बड़ा ही भयानक था, जब 11 रमज़ान, 1273 हिजरी को, जो कि अंग्रेज़ी कैलेंडर के हिसाब से भी 11 मई, सन् 1857 का दिन था, सहसा दिल्ली के दरो-दीवार इस प्रकार हिलने लगे कि समूचे शहर में उनकी धमक सुनाई देने लगी। यह कोई भूचाल न था, बल्कि मेरठ के बाग़ी और नमकहराम सिपाही थे, जो उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन को अंग्रेज़ों के खून से अपनी प्यास बुझाने के लिए दिल्ली शहर में घुस आए थे। यह आश्चर्य की बात न होगी, अगर कहा जाए, कि दिल्ली दरवाजों के सन्तरी, जो कि पेशे से उन खूनी लुटेरों के साथी थे, वे भी इस षड्यन्त्र में बराबर के भागीदार थे।
शहर की रखवाली की ज़िम्मेदारी को भूलकर, खाए हुए नमक को नकारकर, सन्तरियों ने द्वार खोल दिए और बागियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से आमन्त्रित किया। फुर्तीले घुड़सवारों और पैदल शस्त्रधारियों की बाग़ी सेना ने ज्योंही दरबानों को मित्र और दरवाजों को खुला पाया, समूचे शहर को उन्होंने पागलों की भाँति अपने पैरों से रौंद डाला। उन्होंने उस समय तक अंग्रेज़ों तथा उनके अफ़सरों का पीछा नहीं छोड़ा जब तक कि उन्हें मौत के घाट उतार नहीं दिया और उनके डेरों को उजाड़ नहीं दिया गया। कुछ दीन-हीन व्यक्ति, जो अंग्रेजों के नमक-रोटी पर पल रहे थे, शहर के कोने-कतरे में बिखर कर रह गए। वे गली-कूचों में एक-दूसरे से बिछुड़कर भटकते फिर रहे थे।
सज्जन तथा शान्त स्वभाव के व्यक्ति, जो न तीर चलाना जानते थे, न तलवार, उन्हें रात के सन्नाटे में लुटेरों की गरजदार आवाजें भयभीत कर रही थीं। वे ऐसे व्यक्ति न थे जो लड़ाई लड़ सकते हों। उनके लिए और कोई चारा नहीं रह गया था, सिवाय इसके कि वे बन्द घरों में निःसहाय तथा भयभीत बैठे रहें। पानी के तेज बहाव को घास से रोका नहीं जा सकता। अपने आपको मजबूर देखकर सभी अपनी जगह दुखी थे। मैं भी उनमें से एक हूँ, जो कि अपने बन्द निवास-स्थान पर इस बरबादी का मातम कर रहा हूँ। मैंने चीख़ों और शोर-शराबे के बीच यह सुना कि लालकिले का सरदार और ब्रिटेन का एजेन्ट मौत के घाट उतार दिए गए। चारों ओर घोड़ों की टापों तथा सिपाहियों के पैरों की धमक सुनाई दे रही थी। ज़मीन पर एक मुट्ठी धूल भी न बच पाई थी, जो फूल जैसे बदन रखने वालों के खून से सन न गई हो। और कोई बगीचा बाक़ी न था, जो क़ब्रिस्तान में बदल न गया हो। अफ़सोस होता है उन न्यायकारी, बुद्धिमान, सज्जन और विख्यात अंग्रेज़ अफ़सरों की हत्या पर! दुख होता है उन रूपवती, कोमल, चन्द्रमुखी और चाँदी जैसे बदन वाली अंग्रेज़ महिलाओं की मृत्यु पर! उदास हो जाता है मन उन अंग्रेज़ बालकों के असामयिक अन्त पर जो अभी संसार को भली भाँति देख भी नहीं पाए थे। स्वयं वे फूलों की भाँति थे और फूलों को देखकर हँस पड़ते थे। उनकी चाल को देखकर हिरन चलना सीखते थे...कि जिन्हें सहसा रक्त के भँवर में डाल दिया गया। अंगारे उगलने वाली मौत भी इन महान व्यक्तियों के शोक में काले कपड़े पहने तो ग़लत न होगा। अगर आसमान टूटकर धरती पर गिर पड़े और धरती पर बवंडर फैल जाए तो भी इनकी मृत्यु का हिसाब चुकता न होगा।
ऐ बहार! क़त्ल होने वालों के बदन की भाँति ही तू भी
खून में लतपत हो जा।
समय! तू चन्द्रमाविहीन रात की तरह काला हो जा।
सूर्य! तू अपने गालों पर
तब तक थप्पड़ मारता रह, जब तक
कि वे नीले न पड़ जाएँ।
चाँद! तू वक़्त के दिल में दाग़ बनकर बैठ जा।
जब उस मनहूस दिन की शाम आई और धरती काली हो गई तो उन क्रूर और मैले दिल वाले हत्यारों ने समूचे शहर में अपने कैम्प डालने शुरू कर दिए। लालक़िले में उन्होंने अपने घोड़े बाँध दिए और शाही महल को अपने सोने का ठिकाना बना लिया। धीरे-धीरे दूर-दराज़ के शहरों से यह खबर आने लगी कि बागी सिपाहियों ने अपने अफ़सरों की हत्या कर दी है और खुलेआम अपने अफसरों की हत्या करने के लिए बैरक से निकल पड़े हैं।
पूरे मुल्क में नमकहराम जमींदारों और सिपाहियों ने आपस में गठबन्धन कर लिया है, ताकि पूरी ताक़त के साथ सरकार के विरुद्ध मोर्चा ले सकें। केवल खून की नदी ही उन्हें सन्तुष्ट कर सकती है। दूर और पास के सभी लोगों ने हिंसा पर कमर कस ली है। इस असीमित सेना और अनगिनत लड़ाकुओं ने खुद को झाडू के बन्धन की भाँति इस तरह बन्दी बना लिया है कि हिन्दुस्तान में अब घास के एक तिनके-भर शान्ति की पुनर्स्थापना की कल्पना असम्भव है। कुछ सिपाही, जो अपना कोई कमांडर भी नहीं रखते, उन्होंने अंग्रेजों की बन्दूकें, बारूद और गोलों को अपने क़ब्ज़े में करके अपने आपको लड़ाई के लिए सशक्त बना लिया है।
जो कला उन्होंने अंग्रेज़ों से सीखी थी, उसका वे अब उन्हीं पर प्रयोग कर रहे हैं। हृदय कोई पत्थर या लोहा नहीं है, वह अवश्य ही तड़पेगा। आँख कोई दीवार की दरार नहीं है कि वह दृश्य देखकर न रोएगी। अवश्य ही उसे अंग्रेज़ अफ़सरों की हत्या पर आँसू बहाना चाहिए। अवश्य ही उसे हिन्दुस्तान की बरबादी पर रोना चाहिए।
बिना राजा के शहर, बिना मालिक के नौकर, बिना माली के बाग... जैसे पेड़ों के झुरमुट तो हों बाग़ में, पर उनमें फूल न हों। लुटेरे हर तरह से आजाद हैं। व्यापारियों ने टैक्स देना बन्द कर दिया है। बस्तियाँ वीराने में बदल चुकी हैं और घरों में बेनाम शरणार्थी घुसकर उन्हें लूटपाट की जगह समझ बैठे हैं। वे अपनी लीला में मस्त हैं। बाग़ी नंगी तलवार लिये एक गिरोह से दूसरे गिरोह में आ-जा रहे हैं। अगर शान्त और शरीफ़ लोग बाजार में ख़रीदारी करने के लिए आते हैं तो उन्हें ये बागी आँख दिखाते हैं। उन्हें मजबूर किया जाता है कि वे अपनी हार मान लें और अपनी प्रतिष्ठा को नीलाम कर दें। सारा दिन ये डाकू चाँदी-सोना लूटते हैं और शाम को रेशमी बिस्तर पर विराजमान होते हैं।
शरीफ़ लोगों के घरों में मिट्टी का तेल भी नहीं है कि वे अपने घरों में रौशनी कर सकें। अँधेरी रात में जब उन्हें प्यास सताती है तो वे आसमान की बिजली के सहारे अपनी सुराही और गिलास तक पहुँच पाते हैं। काल की इस वक्रता को क्या कहूँ? वे लोग, जो ज़मीन से मिट्टी खोदकर और उसे बेचकर अपना पेट पालते थे, आज उन्होंने उस मिट्टी में सोना पा लिया है और जो शराब की महफ़िल में फूल की पंखुड़ियों से चिराग़ जलाते थे, आज वे अँधेरे कमरों में अपनी हताशा का मातम कर रहे हैं। पुलिस अफ़सरों की बेटियों को छोड़कर दिल्ली की सारी युवा स्त्रियों के आभूषण पत्थर-दिल, हीन-स्वभाव और कायर डकैतों ने छीन लिये हैं। और जो सुन्दरियाँ बिना आभूषण के भी कला की मूर्ति दिखाई पड़ती थीं, आज उन्हें इन भिखमंगों की औलादों ने, जो लूटपाट के कारण ही फल-फूल रहे थे, अपने घर की शोभा बना लिया है।
वे प्रतिष्ठित जन, जो इन युवतियों को श्रद्धा और स्नेह की सेज पर बिठाते थे, उनका स्थान अब इन तुच्छ व्यक्तियों ने ग्रहण कर लिया है। ये नए-नवेले तुच्छ अमीर इस प्रकार अपना अभिमान प्रदर्शित करते हैं कि जैसे अथाह पानी पर घास तैर रही हो!
एक वह आदमी जो नामवर और सुविख्यात था, उसकी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल गई है। दूसरा वह, जिसके पास न इज्जत थी और न ही दौलत, उसने अपना पाँव चादर से बाहर फैला दिया है और उसने समुद्र की रेत की भाँति जवाहरात इकट्ठा कर लिये हैं। वह बाप जिसने जीवन भर गलियों की धूल साफ़ की, अब अपने आपको अधिकारी समझने लगा है। वह माँ, जो पड़ोसियों के घर से आग माँगकर लाती थी, अपने को 'अग्निदेवी' मान बैठी है। ये सारे लोग आग और हवा पर हुकूमत करने की लालसा रखते हैं, पर हम थके-हारे लोग कोई इच्छा नहीं रखते; सिवाय इसके कि हमारे साथ थोड़ा-सा इन्साफ़ हो और हमें थोड़ी-सी राहत मिल सके।
मेरे दिल का दर्द तेरे लिए एक कहानी मात्र है
पर मेरा दुख इतना असीमित है कि अगर
सितारों को इसकी आवाज सुनाई दे जाय
तो वे भी खून के आँसू रोने लगेंगे।
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