पुस्तक अंश : अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो

“बजिया ने कितने खत लिखे! हर पते पर… कराची… तेहरान… लंदन… सत्रह बरस डाकिये की राह देखते गुज़ार दिए। सुबह-शाम दरवाजे पर जाकर डाक का इंतज़ार करतीं। हमसे बार-बार पूछतीं, कोई डाक आई… कोई तार आया। सत्रह बरस… इतना बड़ा इंतज़ार!”

क़ुर्रतुल ऐन हैदर की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनके उपन्यास ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ का एक अंश। इस उपन्यास में नाचने-गानेवाली दो बहनों की कहानी है, जो बार-बार मर्दों के छलावों की शिकार होती हैं।

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ओ रे विधाता बिनती करूँ तोरी पैयाँ पड़ूँ बारम-बार, 

अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो चाहे नरक दीजो डार।

ढोलक की थाप पर सदफ-आरा और कुमारी जलबाला लहरी की सुरीली आवाज़ें और एक दिलदोज़ पूरबी गीत― ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो… अगले जनम…’

स्विंग बर्ड्स म्यूज़िक स्कूल के कमरे में एक लड़की टेपरिकार्ड चला रही थी। सदफ-आरा और जमीलुन बरामदे में चटाई पर बैठी थीं। जमीलुन की बैसाखी सामने धरी थी। सदफ थाली में तरकारी काट रही थी। वर्मासाहब बाहर गए हुए थे।

“आज पंद्रह तारीख है। कमरून अब कराची पहुँच गई होंगी,” सदफ ने आलू छीलते हुए कहा।

“क्या पता!” जमीलुन आहिस्ता से बोली। “कब तक पहुँचेंगी। धक्का पासपोर्ट से गई हैं। खोखरापार का रास्ता सुना है बड़ा जान जोखों का सफर है। जवान बेटी का साथ।”

“आज की बात है जब माहपारा पैदा हुई थी! सोलह बरस हो गए,” सदफ ने कहा।

“अब क्या वह बजिया को पहचानेगा! रूपा हो गए केस सदफ, हम जानते हैं बाज़ गीत ही मनहूस होते हैं। बजिया हर प्रोग्राम में वही एक राजस्थानी माँड सुनाया करती थीं। सावन बीतो जाय… आलीजाह बेगी आवदरे… आलीजाह बेगी आवदरे… रूपा मिला न साजन मिले, रूपा हो गए केस… आलीजाह बेगी हरामजादे उल्लू के पट्ठे को न वापस आना था न आया… अरे, एक खत तक न लिखा…”

“शुरू-शुरू में दो-चार चिट्ठियाँ तो आई थीं,” सदफ ने कहा। "

“उसके बाद गोल… बजिया ने कितने खत लिखे! हर पते पर… कराची… तेहरान… लंदन… सत्रह बरस डाकिये की राह देखते गुज़ार दिए। सुबह-शाम दरवाजे पर जाकर डाक का इंतज़ार करतीं। हमसे बार-बार पूछतीं, कोई डाक आई… कोई तार आया। सत्रह बरस… इतना बड़ा इंतज़ार!” 

“बहुत बड़ा इंतज़ार!” सदफ ने दुहराया।

“जब माहपारा पैदा हुई थी, याद है वर्मासाहब ने फट से उसका नाम तजवीजा था… माहदुख्त… कि ईरानी की बेटी है, उसका नाम माहदुख़्त और एक नाम अमरापाली रखा था। एक ईरानी नाम रखो, एक हिंदुस्तानी। और जब बाप के पास जाकर रहेगी इंग्लैंड, एक इंगलिश नाम वहाँ रख लेगी।” जमीलुन बेपायाँ तलखी से हँसी। “माहपारा अपने स्कूल में लड़कियों से कहा करती थी, हमारे डैडी लंदन और कराची के बड़े भारी बिज़नेसमैन हैं।”

“वर्मासाहब कोई तोहफा उसके लिए फारेन से लेकर आते, उसे समझा देते। बिटिया अमरापाली, स्कूल में अपनी दोस्तों को बताना तुम्हारे डैडी ने लंदन से भेजा है,” सदफ ने कहा और दुपट्टे से अपने आँसू पोंछे।

“सदफ़, बजिया को ढोंगी पीरों-फकीरों के चक्कर में तुमने ही डाला।”

“हम क्या करते जमीलुन! कमरून माहपारा की वजह से बिलकुल परेशानहाल हुई जाती थीं। हमसे रोज़ कहतीं, माहपारा बड़ी होती जा रही है। कहीं उसे भी मेरी तरह ज़िंदगी न गुज़ारनी पड़े। मैं चाहती हूँ, उसे किसी न किसी तरह उसके बाप के सुपुर्द कर दूँ। जमीलुन तो खुदा ही को नहीं मानतीं, उनसे क्या कहूँ। तुम किसी पहुँचे हुए बुजुर्ग के पास ले चलो। यह तो अबकी बात है जब माहपारा तीन साल की थी। तब कमरून एक शाहसाहब के पास गई थीं। हमें भी साथ ले गई थीं… उनकी बहुत धूम सुनी थी। उन्होंने कमरून से कहा, तुम्हारे ऊपर किसी दुश्मन ने जादू कर दिया है। रास्ते बंद कर दिए हैं। तुम्हारे बाल कहीं पर दफ़्न किए गए हैं। तीन सौ रुपया दो। कब्रिस्तान में तीन दिन अमल करेंगे। हम तो यह सुनकर डर गए। हमने कमरून से कहा, वापस चलो… हम तो आ गए मगर वह फिर पहुँचीं उसके पास। उससे मायूस हुईं तो दूसरे आमिलों के पते ढूँढ-ढूँढकर खुद जाने लगीं… कितना रुपया बरबाद किया। तुमसे डरती थीं। तुम्हें क्या बताएँ। हमने बहुत समझाया मगर वह मानी ही नहीं। बस यही लगन लगी थी कि शबदेग का ख़त आ जाए। वह बुला ले। बुलाकर ब्याह कर ले या माहपारा की जिम्मेदारी सँभाल ले। सारे पीर-फकीर, नजूमी, रम्याल उन्हें यही आस दिया किए। आज से इक्कीसवें दिन खत आवेगा। आज से सातवीं रात वह ख़्वाब में आएँगे। आज से चालीसवें दिन खत आवेगा। सनीचर की साढ़-सत्ती है। वह खत्म होगी तो मुराद पूरी होगी… अरे कितना सैकड़ों-हज़ारों रुपया खिला दिया उन ठगों को… मगर आस न टूटी…”

“इस पीरगर्दी में बजिया ने अपने ज़ेवर भी बेच डाले। पूरा एक सेट बनवा लिया था जड़ाऊ… एक जोड़ा कड़े ठोस। तुम्हारे ही साथ जाकर तो बनवाए थे। हमने यह देखा कि कहीं जाती हैं तो गहने नहीं पहनतीं। हमने पूछा तो कहने लगीं, माहपारा के लिए बैंक के लाकर में रख दिए हैं। अब उनके पाकिस्तान जाने के बाद खबरें मिल रही हैं कि सारे गहने बेचकर एक ठग पीर फुलफुलशाह बिल्लियोंवाले को खिला दिए। वह बरसों से उनके लिए बहुत लंबे-लंबे अमल कर रहा था।

“एक बात है जमीलुन। उन्हीं फुलफुलशाह ने उनको कराची जाने की राय दी।”

“कहाँ रहता है? मेरा बस चले तो जेल भेजवा दूँ…”

“बख़्शी के तालाब पर रहता था। अब गायब है। हमसे एक रोज़ कमरून ने आकर बहुत खुशी-खुशी बताया कि फुलफुलशाह कहते हैं, ‘लड़की को लेकर पाकिस्तान चली जाओ। हमने जायचा बनाया है। उसके सितारे तगड़े हैं। कराची पहुँचते ही गौहरे-मुराद हासिल होगा। महबूब का सर तुम्हारे कदमों पर होगा!’ अब हम तो यह कहते हैं जमीलुन, हो सकता है कराची में शबदेग से मुलाकात हो जाए। अपनी लड़की को देखकर ही उन्हें दया आ जाए। और कुछ नहीं तो माहपारा के नसीब ही अच्छे निकलें। उनका वहाँ ब्याह हो जाए। हम तो दोनों जब से गई हैं, रोज दुआएँ माँग रहे हैं। कभी-कभी भगवान सुन भी लेते हैं।”

“अच्छा? तुम अपने लिए इतनी मुद्दतों से दुआएँ माँग रही हो। वह तुम्हारे भगवान ने सुनी?” जमीलुन ने पूछा।

सदफ सर झुकाए तरकारी काटती रही।

“वर्मासाहब नहीं आए अब तलक। हम चलें,” जमीलुन ने अपनी बैसाखी उठाते हुए कहा।

“अपनी परेशानियों में घूम रहे हैं। जबसे उनके बाप मरे हैं, वह बाप की बिजनेस सँभालें कि स्विंग बर्ड्स को देखें। कल कह रहे थे, इसको बंद ही कर देगे।”

“फिर तुम कहाँ जाओगी? उनकी माताजी तो तुम्हें कुबूलने के लिए अब तक राजी नहीं हुई।”

“जहाँ हमारे मुकद्दर में होगा जमीलुन, हम वहाँ जाएँगे।”

“हमें रिक्शे तक पहुँचा दो सदफ बजिया अगर कराची पहुँच गई हैं तो वहाँ धक्के खाती फिर रही होंगी। अब हम घर जाकर उनके ख़त का इंतज़ार शुरू करेंगे।”

 

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