रंग याद है : चेहरे पर लगा पेंट और भईया का थप्पड़

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में पढ़ें, रूपम मिश्र की होली से जुड़ी यादें… इसमें वह ठेठ देहाती गांव की होली से जुड़े कई किस्सों के साथ बड़ी संजीदगी से यह सवाल भी करती हैं कि होली जैसे त्योहार जो हमारे सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद स्त्रियों के लिए यह कभी उत्सव क्यों नहीं बन पाते? त्योहार के समय उनका रसोई का काम और ज्यादा बढ़ जाता है। वह इसे उत्सव की तरह क्यों नहीं मना पातीं? आखिर में वह सामाजिक जीवन में आ रहे बदलावों पर चिन्ता जाहिर करते हुए लिखती हैं- “गाँव में जो सबसे ज्यादा खत्म हुई चीज है वो है—सामुहिकता का जीवन। पर्व त्योहार सामुहिकता के जीवन के लिए होते हैं, जब सामुहिकता ही खत्म हो गई तो त्योहार बस बाजार की चीज बनकर रह गए हैं।”

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होली कब आती है जब सरसों के पीले फूल झरने लगते हैं, छुटपन में होली के त्योहार को अगोरते हुए हम होली के महीने की यही चीन्ह रखते। गाँव में हम सारे बच्चे कौन-सा त्योहार कब आता है, खेत खलिहान के रंगों से पहचान करते थे। मैं अस्सी के दशक में पैदा हुई और अस्सी के दशक के ही होली के कुछ रंग मुझे याद रह गये हैं। गाँव में हमारा परिवार संयुक्त परिवार था, मेरे घर में कई सारे बच्चे थे। हम सब दिन-भर घर से लेकर पाहीघर और दुवारे की बाग तक खेलते रहते थे। घर में माँ, चाची थीं और बूढ़ी बुआ। बुआ का व्यवहार बहुत अनुशासन से भरा था हम सारे बच्चे बुआ से डरते थे। हम दिन-भर बुआ की नजरों से बचने की कोशिश करते क्योंकि वो देखते ही डाँटने लगतीं। हम छोटी लड़कियों को कोई काम करने को सहेजने लगतीं। हमारा परिवार हमेशा से बहुत सामजिक था स्थानीय राजनीति में हमेशा दखल रखने वाला। मेरे पिता गाँव-जवार के हर गाढ़-अवसान में शामिल रहते थे। अपनी सेकुलर विचार व पंचायत में न्याय के पक्ष में खड़े रहने के कारण जवार के हर वर्ग में वे लोकप्रिय थे। उनसे मिलने के लिए घर से लेकर पाहीघर तक दिन-भर लोगों का आना-जाना लगा रहता। अपनी उदार छवि के कारण वे हर धर्म व हर वर्ग के लोगों से घिरे रहते। 

होली का दिन घर में बड़ों के लिए जहाँ खूब व्यस्तता भरा दिन होता वहीं हम बच्चों के लिए मौज का दिन। दिन-भर घर में होली मिलने के लिए लोग आते हम बच्चों से दुवारे आये लोगों के लिए गुझिया पानी भेजा जाता। अक्सर ये होता कि आगंतुक एक दो गुझिया खाते थे। हम बच्चों से कहा जाता कि प्लेट में बची गुझिया और लोटा गिलास उठाकर घर के भीतर ले जाओ। हम ओसारे में बैठे आगंतुक के सामने बहुत जहीन बच्चे की तरह गुझिया का बर्तन उठाते और घर के गलियारे में मिलकर खा जाते। घर में खाना बनातीं माँ-चाची को पता भी नहीं चलता। वे अपने काम में लगीं रहतीं। घर में हमेशा दो जगह चूल्हा जलता। रसोई में खाना बनता और आँगन वाले चूल्हे पर घर पर आने वाले लोगों के लिए चाय और मजूरों के लिए खरमेटाउ (नाश्ता) पूरा दिन यही क्रम चलता था। होली के दिन जहाँ गाँव के सारे बच्चे सुबह से रंग खेलते वहीं हमारे घर के बच्चे घर के अनुशासन में बाहर होली खेलने बहुत कम निकल पाते। 

गाँव में जिस साँझ होलिका दहन होता, उस रात माँ, चाची और बुआ दीदी मिलकर सारी रात गुझिया बनाती थीं। घर में कई दिनों के लिए ढेर सारी गुझिया बनती थी। माँ चूल्हे पर होती थीं वे एक दाऊरी (बाँस से बना एक टोकरा) में गुझिया छान कर रखती जातीं फिर ठंडा होने पर दीदी उसे एक स्टील के ड्रम में पलटतीं। रात भर गाँव के युवा लड़के होलिका दहन के लिए लकड़ियाँ इकट्ठा करते। अक्सर वे लकड़ियाँ चुराते थे किसी के दुवारे खटिया-मचिया होती तो उसे उठाकर ले जाते होलिका में डाल देते। लकड़ी और ईंधन तो उठाकर ले ही जाते बहुत बार किसी के खेत बाग से नये पेड़ काट लेते थे जिससे गाँव में सुबह गाली गलौज और झगड़ा शुरू हो जाता था। हम छोटे बच्चे बिस्तर पर पड़े-पड़े रात भर होलिका दहन के लिए चहलकदमी सुनते और रहस्य की तरह महसूस करते क्योंकि दूसरे दिन लकड़ी चोरी की कोई विष्मयकारी घटना सुनाई पड़ती। जिस दिन होली जलती थी, उस दोपहर में घर में सबको बुकवा (उबटन) लगाया जाता। बुआ घर के लड़कों की देह से छूटे बुकवा को एक कपड़े बाँधकर रखतीं। दूसरे दिन सुबह होलिका की पूजा में उसे ले जातीं और आग में डाल देतीं। होलिका गाँव के बाग में जलती थी। एकदम सुबह उठकर होलिका को धार चढ़ाने जाना होता, अक्सर बुआ जातीं कभी दीदी साथ जातीं उपले लेकर। कभी सुबह आँख खुल जाती तो मैं भी दीदी के साथ लग जाती। रास्ते भर हम होलिका में डालने का सामना इकट्ठा करते जाते जैसे गेहूँ-ज्वार की बालियाँ, अलसी का पौधा-फूल आदि। पूजा बुआ करती थीं। धार को लेकर जलती होलिका के चारो घूमतीं फिर एक जगह पानी गिरा देतीं। ये एक सामूहिक पूजा होती थी।

हमारे गाँव से थोड़ी ही दूरी पर स्थानीय बाजार का कस्बा था। बाजार के अलग-अलग मुहल्ले में होली लगती। बाजार में व्यापारी वर्ग के लोग रहते थे, उनके पास पैसे थे तो होलिका दहन में वे खूब लकड़ियाँ खरीदकर जलाते थे। गाँव में सभी किसान थे, पैसों की तंगी थी लेकिन गाँव के लड़के दबंग थे। वे कई बार रात को अवसर देखकर बाजार के किसी मुहल्ले की लगी हुई पूरी होलिका को ही ठेले पर लादकर उठा लाते जिसके लिए सुबह विवाद हो जाता। 

होली के दिन दोपहर तक गाँव के सारे पुरुष गाँव के मन्दिर चले जाते, जहाँ चौताल (एक तरह का होली गीत) गाया जाता और रसभंगा (भांग-दूध-इलाइची और मेवे से बना शरबत) बनता, जिसे गाँव के सारे पुरुष पीते। उनके जाने के बाद स्त्रियाँ और लड़कियाँ रंग खेलती थी। किसी-किसी घर में स्त्रियाँ मिलकर फगुआ गातीं।

एकबार होली के दिन तिजहारिया में दीदी अपनी सहेलियों के साथ गाँव में रंग खेलने गईं। मैं बच्ची थी, मुझे ले जाना नहीं चाहती थीं लेकिन मैं साथ जाने के लिए मचल गई और दीदी जैसे ही घर निकलीं उन्हें पिछिया लिया। दीदी मुझे पीछे आते देख डाँटतीं कि घर लौट जाओ कोई रंग डाल देगा तो रोओगी, लेकिन मैं मानती ही नहीं, जैसे ही वो आगे बढ़तीं मैं उनके पीछे लग जाती अन्ततः दीदी अपनी सहेलियों के साथ व्यस्त हो गईं और मेरा पीछे आना भूल गईं। दीदी अपनी सहेलियों के साथ गाँव के कई घरों में जातीं। घरों की बहुएँ उनको रंग लगातीं, वे सब बहुओं को रंग लगातीं, कुछ नयी दुल्हनें गाँव की लड़कियों के सामने भी घूँघट नहीं खोलतीं थीं। तो दीदी हथेली में रंग लेकर उनके घूँघट के भीतर हथेली ले जाती और उनके गालों पर रंग लगातीं। खूब हँसी ठिठोली होती, खूब मस्ती का माहौल। मुझे सारे दृश्य बहुत मोहक लगते लेकिन तकलीफ़ की बात ​कि कोई मुझे उसमें शामिल नहीं कर रहा था रंग खेलना तो दूर कोई मुझपर ध्यान ही नहीं दे रहा था। जबकि मुझे उस मस्ती में शामिल होना था, रंग खेलना था। मैं लड़कियों की टोली के साथ हर घर में गई लेकिन किसी भी घर की दुल्हन ने मुझे रंग नहीं लगाया। लड़कियाँ तो मुझपर नाराज ही थीं कि मैं इतनी जिद्दी बच्ची हूँ कि बड़ी लड़कियों के साथ आ गई हूँ।

फिर वो पल आया जब मेरा धैर्य जबाब दे गया। गाँव के सारे घरों में खेलने के बाद जब दीदी आखिर घर से होली खेलकर निकलीं तो मैं निराशा से रुआँसी हो गई कि आखिर मुझपर कोई रंग क्यों नहीं डालता मुझे कोई रंग क्यों नहीं लगाता क्या छोटे बच्चे का मन नहीं होता क्या छोटे बच्चे मनई (मनुष्य) नहीं होते। लेकिन मेरे मन को कौन समझे। दीदी अपनी टोली के साथ जिस आखिर घर में रंग खेलने गईं थीं वहाँ एक बड़ी उम्र की भाभी थीं, जिनकी बेटी मेरे साथ पढ़ती थी। भाभी हर साल खूब होली खेलतीं। लड़कियों को मीठी गाली देते हुए दुवारे तक लपककर आ जातीं। उस दिन भी वही हुआ। भाभी ने दीदी और उनके साथ की लड़कियों को खूब रंग लगाया। सब लड़कियों ने मिलकर उन्हें बहुत रंग लगा दिया तो सबको मीठी गाली देते हुए घर के बाहर उनके साथ आईं और हँसते हुए उन्हें विदा दी।

मैं भाभी के पास-पास ही खड़ी रही कि पास देखकर भाभी मुझे रंग लगा देगीं लेकिन फिर भी उनका ध्यान मुझ पर नहीं गया। अन्ततः मैंने भाभी के आँचल के पीछे के छोर को खींचते हुए कहा, “भाभी, मुझे भी रंग लगा दो।” भाभी खूब मस्ती में थी मेरा हठ देखकर हँस पड़ीं और अपने हाथ में लगे गाढ़े आसमानी रंग को मेरे चेहरे पर अच्छे से पोत दिया। मुझे मजा आ गया कि मैं बड़ी लड़कियों की बिरादरी में शामिल हो गई थी हालाँकि वहाँ लड़कियाँ नहीं थीं। दीदी वहाँ से चली गईं थी। मैं अपनी उम्र की लड़कियों के बीच रंग लगाने जाना चाहती थी, उन्हें अपनी शान दिखाना चाहती थी। भाभी तो घर के भीतर चली गईं थीं, मैं अपने टोले की तरफ बढ़ी ही थी कि मेरा चेहरा जलने लगा और आँखों में दर्द भी शुरू होने गया। मैंने सोचा घर चलकर दुवारे के नल पर चेहरा धो लूँगी लेकिन जैसे ही दुवारे पहुँची जाने कैसे बड़े भईया चौताल छोड़कर घर आ गये थे। उनको देखते ही डर गई कि वो गुस्सा करेगें क्योंकि घर की लड़कियों का गाँव में जाकर होली खेलना उन्हें पसन्द नहीं था। ये बात हम सब को पता थी लेकिन बुआ की अनुमति से दीदी उन दिनों होली खेलने गाँव में चली जाती थीं। ओसारे की सीढ़ियों से उतरते हुए भईया ने जैसे ही मेरी तरफ देखा मैं घबराहट में तेजी से रो पड़ी। भईया ने मेरे चेहरे पर पेंट लगा देख गुस्से से कौन लगाया! कौन लगाया! की रट-सी लगा दी। डर के कारण मैंने झट से भाभी का नाम ले लिया।

उन दिनों गाँव में बाजार जाकर ख़रीदारी करती स्त्री की गिनती आवारा स्त्रियों में होती थी। उन भाभी की गिनती गाँव में उन्हीं स्त्रियों में की जाती थी। भईया और गाँव के कई सारे लोग भाभी के खिलंदड़पन व स्वच्छंद चेतना से चिढ़ते थे। उन्होंने भाभी को एक स्त्रीजनित गाली देते हुए खींचकर मेरे गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया। वे भाभी को अनाप-शनाप कहते हुए मुझे दुवारे की नल पर ले गये, साबुन से कई बार चेहरा धोने के बाद सबको बताने लगे कि फलाने बहु कितनी दुष्ट औरत है कि छोटी-सी बच्ची के चेहरे पर पेंट लगा दिया। मैं भईया के डर के कारण कह नहीं पाई कि उन्होंने खुद नही लगाया मैंने जिद करके लगवाया। भाभी को ये सारी बातें पता नहीं चली होंगी क्योंकि उनका घर मेरे घर से काफी दूरी पर था। मुझे झूठ बोलने का अपराधबोध लगातार होता रहा लेकिन सच कहने का साहस मुझमें नहीं था। 

बरसों पहले की ये बात मुझे हर होली पर याद आ जाती है कि कैसे एक स्त्रीद्वेषी समाज में स्त्री का जीवन बीतता नहीं कटता है और अगर स्त्री थोड़ी-सी स्वतंत्रचेता है तो समाज के लिए बदचलन स्त्री हो जाती है। इस बपंशी धारे ढाँचे में पर्व और त्योहार सब पितृसत्ता के आमोद-प्रमोद के लिए होते हैं। आज तो नव संस्कृतिकरण के इस समय में गाँव का ये हाल है कि होली जैसा सामूहिकता का त्योहार महज मर्दों का त्योहार है हाशिये के जनों में तो स्त्रियाँ इसमें शामिल भी हो जाती हैं लेकिन वहाँ भी भोजपुरी के अश्लील गानों पर बजते डीजे का रौरव भर रह गया है। वहीं गाँव के सवर्णों या अन्य वर्गो की स्त्रियों की मजाल नहीं है कि वो घर से बाहर निकलकर होली खेलें। उनके लिए तो होली के त्योहार का अर्थ दिन-भर रसोई में पकवान बनता है। इक्का दुक्का कोई घर घराने का आकर अबीर लेकर पैर छू लेता है कोई रार तकरार है तो वो भी नहीं। मिलने-मिलाने का तो जैसे गाँव से रिवाज ही उठ गया है। पहले जो लड़कियाँ गाँव में आसपास के घरों में आती जाती थीं वो अब एकदम से बंद हो गया है। अब लड़कियों को पास-पड़ोस के किसी भी घर में आने-जाने की इजाज़त नहीं।

गाँव में जो सबसे ज्यादा खत्म हुई चीज है वो है—सामुहिकता का जीवन। पर्व त्योहार सामुहिकता के जीवन के लिए होते हैं, जब सामुहिकता ही खत्म हो गई तो त्योहार बस बाजार की चीज बनकर रह गए हैं। होली ऐसा त्योहार था जहाँ एकदिन थोड़ी सी मौजमस्ती करने की इजाज़त स्त्रियों को भी मिल जाती थी लेकिन अब तेजी से बदले इन गाँवों में स्त्रियों के लिए होली का त्योहार नहीं आता।

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