रंग याद है : जे बचिहें से खेलिहें फाग!

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, विनय सौरभ की रंगयाद : “जे बचिहें से खेलिहें फाग!

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जे बचिहें से खेलिहें फाग!

(#नोनीहाट की होली)

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उस साल नदिया के पार फ़िल्म रिलीज़ हुई थी। फ़िल्म की धूम तो शहर से गाँव तक थी ही, उसका एक गीत भी "जोगी जी धीरे-धीरे" जो होली पर फ़िल्माया गया था, ख़ासा मकबूल हुआ था।

आज से 20-25 साल पहले के अपने गाँव के होली के उस माहौल को याद करता हूँ तो कुछ महत्वपूर्ण छूटने के अफ़सोस से भर जाता हूँ। आज यूट्यूब पर जब नदिया के पार का यह गीत सुन रहा था तो साल 1983 में  होली पर हुआ वह सुंदर आयोजन याद आता है जब एक बैलगाड़ी को पूरी तरह से सजाया गया था और गाँव के ही दो युवक गुंजा और चंदन बने थे।

सैंकड़ों लोग नाचते गाते पूरी मस्ती में उस बैलगाड़ी के पीछे चल रहे थे। गुंजा आंचल का कोर मुँह में दबाए पीछे बैठी थी और गाड़ीवान बना चंदन गाड़ी हांक रहा था।

      कौन दिशा में ले के चला रे‌ बटोहिया.....

ओह!  वह दृश्य मैं भुलाए नहीं भूलता !

गाँव के सारे बड़े -बुजुर्ग उस उत्साह और मस्ती में शामिल थे। लोग भी अलग-अलग स्वांग धरकर घर से निकले थे। बिरना के झाड़ू का मुकुट बड़े बुजुर्गों को पहनाया गया था। उनकी शक्ल सूरत बदल दी गयी थी और इसे लेकर कोई बुरा नहीं मानता था। नोनीहाट के मुख्य रास्तों से गुजरती हुई गुंजा और चंदन वाली यह बैलगाड़ी लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनी थी। पुआ पकवान बनाती  महिलाएँ रसोई छोड़ छतों और बरामदों से इस दृश्य का आनंद ले रही थीं। उस आयोजन को लोग आज भी याद करते हैं और पुलक से भरकर मुस्कुराते हैं।

जमाना चाहे जहाँ जा पहुँचा हो ! होली पर हमारे यहाँ गाए जाने वाले भोजपुरी फ़िल्मी गीतों की बात ही कुछ और है! और वे आज भी अपनी जगह बनाए हुए हैं। जैसे- लागी नहीं छूटे राम का वह गीत- लागे वाली बतिया बोलs ना मोरे राजा हो करेजा चुवेला!  इसे गाने वाले हमारे यहाँ कुछ ख़ास लोग हैं। उनकी भाव भंगिमाओं के साथ इस गीत को सुनना दिलकश अनुभव है।

राधे चचा, डोमा चचा, गणपत चचा की डिमांड उस रोज बढ़ जाती है, जबकि उनकी उम्र सत्तर के पार चली गयी है।

केदार चचा इन दिनों अस्वस्थ चल रहे हैं। तबला ढ़ोलक में उनकी जान बसती है। तब के कितने ही लोग ढोलक बजाने में निष्णात थे ! अब रामसुभग चचा नहीं रहे। बैजू चचा गाते भी अच्छा हैं बजाते भी अच्छा हैं। बच्चे मंदिर में उनसे मनुहार करते हैं- चचा सुरू करs ना !

राधे चचा को अक्सर बच्चों को झिड़कते, डांटते सुना है- "तुम लोग भी फगुआ गाना बजाना सीखो ! हम लोग हमेशा जिंदा रहेंगे क्या? लड़के कहते हैं -हम लोग भी सीख लेंगे, अब शुरू तो करिए!

क्या समय था ! बसंत पंचमी के बाद ही फगुवा गाने की परंपरा थी। लोग अपना कामकाज निबटाकर देर शाम मंदिर में जुटते थे और फगुआ गाने  का सामूहिक स्वर देर रात दूर तक सुनाई पड़ता था। ढोल हारमोनियम झाल करताल जैसे वाद्य यंत्र कई कई हाथों में होते थे। जब होली गायन अपने उरूज  होता तो यहाँ का जोश देखते ही बनता था। उस सामूहिक दृश्य और अपनापे का अपना ही सुख था।

 1857 के  सिपाही‌ विद्रोह में योद्धाओं और शहीदों की कुर्बानी का सुंदर चित्रण होली के गीतों में मिलता है-

       बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर

       बंगला में उड़ेला अबीर

आज भी इस गीत को सुनकर जोश में आए बिना आप नहीं रह सकते। होली के इन पारंपरिक गीतों  में प्रेम और शृंगार की गंगा- जमुना की धारा का स्पर्श मिलता है ।

अब ये बातें धीरे धीरे सुंदर यादों में तब्दील हो रही हैं। लेकिन मैं अपने गाँव की संस्कृति पर आज भी फ़ख़्र करता हूँ । ढेर सारे बदलावों के बाद भी हमारे यहाँ  सब कुछ समाप्त नहीं हो गया है। नयी पीढी में गप्पू ( प्रमोद) जैसे उत्साही युवक मौजूद हैं, जिसे न सिर्फ़ फगुआ चैती के ढ़ेर सारे गीत याद हैं, बल्कि गाने का पूरा अनुशासन वे जानते हैं। ख़ुशी है कि इस तरह के कई और लड़के हैं जो अच्छा गाते हैं। चीज़ें बहुत आसानी से नहीं खो जाएँगी, ये बच्चे हमें आश्वस्त करते नज़र आते हैं।

दूर शहरों में रह रहे लोग होली पर यथासंभव अपने घरों को लौटते हैं। अब दिन में होली पर वैसा तगड़ा हुजूम तो नहीं निकलता पर शाम को गाँव के लगभग सारे पुरूष मठिया (मंदिर) में जमा होते हैं। हम बुजुर्गों के पैर छूते हैं। अबीर गुलाल लगा आशीर्वाद लेते हैं और होली गाने मंदिर के प्रांगण में सौ से ज्यादा लोगों की भीड़ जमीन पर बैठ जाती है। शुरू होता है फगुआ का गायन। गायकों का सामूहिक स्वर पूरे वातावरण को रोमांचित कर डालता है।

मंदिर में गाने के बाद लोग गाते बजाते हनुमान जी के मंदिर और बाज़ार वाली काली माई के पास आते हैं। वहाँ उनके सम्मान और आदर में बैठकर होली गायी जाती है। बाज़ार में मिलने वाले और आ - जा रहे लोगों से अबीर गुलाल लगा कर गले मिलने का सिलसिला इस बीच जारी रहता है। सांझ घिर रही होती है। फ़िर सब लौटते हैं मंदिर की ओर।

कुछ देर लोग मंदिर में बैठ कर सुस्ताते हैं।

अब शुरू होना है चैता। मंदिर के मुख्य पुजारी नरेश पंडित जी गाते - बजाते  घमजोर हो गए हैं। बरसों से उनका जोश कभी कम होते हमने नहीं देखा। वे नयी उम्र के लड़कों को ललकारते हैं। जोश जगाते हैं।  लोग चैती गाना शुरू करते हैं। आठ - दस  चैती गाते हैं। बीच बीच में हंसी मजाक चलता रहता है।

अब लोग सब थक गये लगते हैं। भांग वाली सोनपापड़ी और शरबत ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। लोगों के चेहरे भकुआए हुए लगने लगे हैं।

सभा विसर्जित हो गयी है। धीरे-धीरे लोग घरों को लौट रहे हैं। किसी ने भांग का नशा ज्यादा कर लिया है तो कुछ चैतन्य लड़के उसे सकुशल घर पहुँचा देने का वादा कर रहे हैं। पाता हूँ कि चैती गाने के बाद मेरा मन उदास हो गया है। अपने -अपने घरों की ओर लौटते लोगों को देखकर मेरे मन में संसार के लिए वैराग्य का भाव आता है !

चैती गाकर मंदिर से उठते हुए सत्तो मास्टर साब कहते थे:         

              जे बचिहें

              से खेलिहें फाग !

खैर अभी छोड़िए, इन बातों को !

आज होली है हमारे यहाँ। सबके लिए मंगलकामनायें । जोश जगाने वाला  यह फगुआ सुनिए...गप्पू, नरेश पंडित जी और साथियों के स्वर में.....

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