रंग याद है : वो चौबीस कैरेट वाली होली थी

“बचपन का रंग कभी नहीं जाता। हमेशा चढ़ा रहता और गहरा होता जाता है। तब पक्के रंग थे। पक्के रिश्ते। वो चौबीस कैरेट वाली होली थी।” अपने बचपन की होली को याद करते हुए शैलजा हमें उस नॉस्टेल्जिया में ले जाती हैं जब होली आज की तरह नहीं होती थी। वह लिखती हैं- “पिचकारी अब बंदूकों की शक्ल में हैं, रंग आहत करने लगे हैं। अबीर से शाम की वो मादक खुमारी गायब है। गायब है भाई बहन बरसों से।” 

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में पढ़ें, शैलजा पाठक की रंगयाद : “वो चौबीस कैरेट वाली होली थी” 

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जब अम्मा के धराऊ बक्से से निकलती थी पीतल वाली पिचकारी तब होली होती थी।

अम्मा भी बड़े जतन से निकालती जैसे कृष्ण की बांसुरी हो। झाड़ती, पोंछती और कहती सम्भाल कर पकड़ो।

हम बहनें उस पिचकारी के रक्षक होते। काठ की इकलौती कुर्सी पर राजा बेटा बना भैया पीतल की पिचकारी पकड़ता।

कुछ दिन हम उसको छूकर खुश रहते। अम्मा ताकीद देती कोई पानी भरकर बदमाशी ना करे।

खटिया में सेवई की मशीन कसी जाती तब आती होली। चमकते सफेद बाल हमारे हाथ पर उतार अम्मा धूप में डलवाती। हम चीजों को संभालना सीख रहे थे सेवई के बहाने।

फिर सरसों का बुकवा पीसा जाता तब आती होली। पिता घर आते। अम्मा सूखे व्यंजन बना ली होती। हम पीतल की पिचकारी से झूठ-मूठ का भींग रहे होते और अम्मा होलिका में डालने को बुकवा पिसती।

कोई गुलाबी मुस्कराती शाम होती। पिता धोती घुटने तक उठाकर खटिया पर बैठते अम्मा बुकवा लगाती बड़े मनोयोग से फिर सारी झिल्ली इकठ्ठा करती। जब तक अम्मा बिजी रहती हम भाई बहन आपस में लीपा-पोत सरसों के तेल से झिल्ली निकालते।

प्लास्टिक की पुचपुच पिचकारी हमारे लिए आती। ढक्कन खोलो पानी भरो और एक धार वाली होली खेलो। कई बार जोर से दबाने से प्लास्टिक का ढक्कन निकल कर बाहर गिर जाता।

होली का दिन पकवान की सुगंध से भरा होता। भैया बड़ी पिचकारी में पानी भर देर तक हमारे ऊपर डालता हम खुश होते और बार-बार उसकी पिचकारी खाली होने पर गुलाबी पानी भरते।

हमारी सस्ती पिचकारी मर जाती फिर हम बस लोगों को रंग खेलते देखते। बड़े लोग गाढ़ा रंग खेलते। हम गुझिया खाते-खाते देखते अम्मा कैसे मुस्कराते हुए पिताजी पर रंग डालती। कोई भाग दौड़ नहीं जैसे ये रंग पिताजी पर ही तो पड़ना था। गोरे-गोरे पिताजी एकदम लाल हरे हो जाते। मग में बचे जरा से रंग को वो बस अम्मा पर छिड़क देते अम्मा रंग जाती।

तब पक्के रंग थे। पक्के रिश्ते। अबीर से हुलसती शाम होती, गुझिया आलू पापड़ होता और नये कपड़ों पर चमकते अबीर।

लोग मिलने आते, अबीर लगाते, पकवान खाते आशीर्वाद लेते देते और चले जाते।

यही समय था सर्दी चली जा रही होती, खटिया आंगन में लगने लगा होता और आसमान साफ नीला दिखाई देता।

आंगन पक्के रंगों से महीनों लाल गुलाबी दिखाई देता। अम्मा कहती रंग जाते-जाते जाता है।

बचपन का रंग कभी नहीं जाता। हमेशा चढ़ा रहता और गहरा होता जाता है।

पिचकारी अब बंदूकों की शक्ल में हैं, रंग आहत करने लगे हैं।

अबीर से शाम की वो मादक खुमारी गायब है। गायब है भाई बहन बरसों से।

अम्मा भी किधर हैं कि बक्से से पीतल की पिचकारी निकालती खटिया पर सेवई मशीन लगाती और मालपुआ के लसलसासे आटे से औचक पिताजी को चकमा दे गाल पर प्यार की वो थाप रख आती।

वो चौबीस कैरेट वाली होली थी। रंग पक्के। सब साथ और आंगन सात रंग से रंगा हुआ।

होली का गीत और ढोलक की थाप पर कृष्ण ब्रज में गोपियों साथ थिरक-थिरक रंग में भींग रहे। भींग रही धरती ब्रज की हो या बनारस की।

फाग गाती टोलियों पर रंग बरस रहा, राग लहक रहा। मन मौज ले रहा सब पर खुमार।

बाजार ने सारे रस ले लिए। बच्चों के हाथ में बड़ी-बड़ी बंदूकें हैं, उससे रंग बरसता वो छुप कर अटैक करते रंग ऐसे तो नहीं होना था।

रंग और होली को भैया की पीतल की पिचकारी होना था, जब भी बक्से से निकल सूरज चमक जाए जैसे इतनी रौनक भर जाए माहौल में।

प्यार में लगाए कुछ जरा से रंग आज भी गाल पर पलाश से दहकते हैं।

धड़कन पर सवार यादों का रंग बैजनी होगा यही होना चाहिए।

होली के रंग को प्यार और मुहब्बत से बरता जाना चाहिए होली आई है...

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‘रंग याद है’ शृंखला की अगली कड़ी में पढ़ें, देवेश की रंगयाद : “गोबर का घोल और खेत में बैठी आकृति”