‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में पढ़ें, सविता पाठक की होली से जुड़ी यादें… उन्होंने पूर्वांचल के गाँव से लेकर शहरों में मनाई गई होली की खट्टी-मीठी यादों को लिखा है। बुकुआ लगाने और होरका के प्रसाद से लेकर ठंडई के तरंग से सराबोर किस्से जो हर किसी को अपने ही घर की कहानी से लगें। प्रस्तुत हैं यह रंगयाद।
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माँ की भयंकर डाँट का डर भुला कर आज होली की यादें लिख रही हूँ। मेरी यादें वैसे भी सिर्फ मेरी कैसे हो सकती हैं उसमें तो बहुत कुछ घुला-मिला है। पहली तो मेरे बचपन की होली है। मेरे गाँव की होली जिसमें मुझे होली से ज्यादा याद बुकुआ लगवाने की है। होली के ठीक एक दिन पहले हमारे यहाँ सरसों पीस कर उसका बुकुआ/उबटन लगता था। सरसों का तेल लगाकर उसको धीरे-धीरे छुड़ाया जाता था फिर वही मैल होलिका जलते समय डाल दी जाती थी। इसके अलावा होलिका में होरका यानी कच्चे चने और गेहूँ के पौधे भूने जाते थे और सुबह प्रसाद में वही मिलता था। हमारे यहाँ होलिका बाग में होती थी और वहाँ औरतें नहीं जाती थीं। उसके बाद की स्मृतियाँ बहुत फीकी है। हमारे गाँव और पास के ठकुराने से कुछ होलियारे घर आए थे। माँ बताती हैं कि पापा पोस्टिंग पर थे। मम्मी को होली से बहुत डर लगता था। कानपुर की नौ दिन वाली होली में बड़ी हुई माँ, होली को लेकर थोड़ा आशंकित ही रहती हैं। मम्मी बताती हैं कि उन लोगों ने ठान लिया था कि उनके ऊपर रंग डालेंगे। घर का दरवाजा बन्द था अचानक दरवाजे पर भड़भड़ाहट होने लगी। दरवाजा खुल गया। मम्मी भाग कर भीतर वाले कमरे में चली गयीं। होली वाले लोग गाना गा रहे थे। उन्हें बाहर निकलने के लिए कह रहे थे। माँ नहीं निकलीं तो कुछ लोगों ने दरवाजे पर धक्का देना शुरू किया। पुराना घर था एक पल्ला टूट गया। माँ बाहर निकलीं और उन सबके ऊपर खूब चिल्लाईं। होली खेलने वालों ने ये भी ख्याल नहीं रखा कि हम बहुत छोटे हैं और पिता घर पर नहीं है। उन्होंने सारे रजाई-गद्दे और कपड़ों पर रंग डाल दिया। मेरी बहन तब मुश्किल से साल भर की भी नहीं थी। उसके बाद क्या हुआ होगा ये समझा जा सकता है। पापा ने आने के बाद होलियारों की खूब मजम्मत की।
मेरे गाँव में होली के दिन औरतें बहुत कम बाहर निकलतीं थीं। कुछ बहुएँ ही अपने देवरों के साथ होली खेलती थीं। गुझिया वगैरह तो बहुत ही सम्पन्न घरों में बनती थी। ज्यादातर घरों में गुलगुला बनता था। रंग बहुत कम खरीदे जाते। बच्चे मोबिल, तारकोल, कीचड़ और गोबर से होली खेलते थे। बहुत ही कम बच्चों के पास रंग और पिचकारी होती थी। बाद के दिनों में शाम को लड़कियाँ एक-दूसरे को टीका लगाने और मिलने आने लगी थीं।
इस दुनिया के ठीक विपरीत दूसरी दुनिया—इफको फूलपुर की होली। इफको की होली बहुत ही साफ-सुथरी और अनुशासित थी। होली के तीन दिन पहले एक सर्कुलर आता था। कब, कहाँ, कितने बजे क्या-क्या कार्यक्रम है, इसका पूरा विवरण छपा हुआ मिलता था। कॉलोनी में सुबह नौ बजे तक कोई रंग नहीं खेलता था। साढे नौ-दस बजे से डेढ़ बजे तक ग्राउंड में होली होती थी। ठंडई के कई बड़े-बड़े ड्रम रखे होते थे। जगह-जगह ढ़ोल-ताशे, गाने। ये सन् 92 की बात है। एक आंटी जो हमेशा सिर पर पल्ला लिये रहती थीं और दूसरो से बहुत कम बात करती थीं। वो ग्राउंड में गयीं और नाचने लगीं। बीच में उन्होंने ठंडई पी। उन दिनों कैम्पस में हर कार्यक्रम का लाइव प्रसारण टीवी पर आता था। आंटी झूम रही थीं। अल्ला-पल्ला तो कब का उतर गया था। हर घर में लाइव प्रसारण हो रहा था। कॉलोनी की दुनिया में हलचल मच गयी। बिचारे अंकल भाग कर डिश टीवी ऑफिस में पहुँचे और प्रसारण रूकवाया। हम लोग बड़े ग्राउंड में कम ही जाते थे। हम लोग कॉलोनी में ही मिलते-जुलते थे, लेकिन इस घटना के बाद तो वहाँ जाने का सवाल ही नहीं था। हमारी कॉलोनी में लड़के-लड़कियाँ घर-घर जाते थे। दरवाजे पर ही उन्हें चिप्स-पापड़ गुझिया वगैरह खिलाया जाता। बाकी का खाना-पीना शाम के लिए रिजर्व रहता था। शाम में हम नये कपड़े पहनकर एक-दूसरे के घर जाते और खाने के बाद उनका तुलनात्मक अध्ययन होता था। किस घर की गुझिया अच्छी है तो किसने चाट खिलाया और किसने दही-बड़े। अजीब बात थी कि खाने के अलावा घर की सफाई और साज-सज्जा का भी तुलनात्मक अध्ययन किया जाता था। विन्नी परमार, दलजीत कौर, अनीता, विजय, पूजा और कॉलोनी के कितने सारे लड़के-लड़कियाँ हमारे घर आए। मैं भी उनके साथ घूमती। पहली बार दिव्या भारती पर फिल्माये गाना— ऐसी दिवानगी...जाने जाना दीवाना तेरा नाम लिख दिया पर पब्लिक परफार्मेंस भी वहीं दिया।
वापस घर आए तो कुहराम मचा था। पापा माँ पर चिल्ला रहे थे।
‘साला...उसने कैसे तुम्हें रंग लगाया।’
मम्मी कह रही थीं, ‘होली थी तो जरा-सा लगा दिया।’
‘भाभी जी, मैं आपके साथ होली खेलूँगा और ये औरत होली खेलने लगी।’ पापा गुस्से में बहुत एनीमेट करके डायलॉग बोलते थे।
मम्मी को भी गुस्सा आ रहा था और रोना भी आ गया। माँ की सहेली के पति ने उन्हें रंग लगा दिया था। पापा को मम्मी से इतना प्रेम था कि ‘तुम्हें कोई और देखे तो जलता है दिल’ वाली हालत में रहते थे। इस बीमारी का कोई इलाज नहीं था। मुझे भी बहुत कष्ट हुआ कि मेरी माँ तो वैसे भी किसी के साथ होली नहीं खेलती। कितने दिनों बाद उन्हें किसी ने इस तरह रंग लगाया है। लेकिन मेरा ज्यादा बोलना होली की शाम को भंड कर सकता था। मेरी दोस्त खालिदा और ज़ेबा को भी शाम में आना था। मैंने अपने लिए पहली बार सूट सिला था, उसे पहनना था। बहरहाल मुझे कुछ नहीं सूझा। आँगन के पिछले गेट से निकलकर एक आंटी के यहाँ चली गयी। आंटी को बताया कि क्या हो रहा है।
नहा-धोकर शाम की तैयारी हो रही थी। वैसे तैयारी क्या होती! नई चादर, धुले पर्दे, नारियल का बूरा, तरह-तरह का मिश्री-मेवा और एक छीतनी पापड़ और छोले-चाट के बाद भी पूरे घर में एक मनहूसित तारी थी। यही डर लग रहा था कि कोई आ न जाए। पापा का गुस्सा शांत नहीं हुआ था। तभी हमारे गेट पर ठक-ठक हुई। जो भी था उसने गेट खोलकर बाउंड्री में आकर घर की बेल नहीं दबाई थी। पापा बाहर निकले हमारी सांस थमी थी। तभी हमारी आंटी की बुलंद आवाज सुनाई दी। जैसे अभिताभ बच्चन बुलाते हैं—‘अरे जानेमन बाहर निकल आज जुम्मा है...’
‘‘अरे पाठक, बाहर निकलो...हमारे साथ होली नहीं खेलेंगे।’’
पापा झेंप रहे थे। आंटी ने पापा के चेहरे पर गुलाल मल दिया और कस के गले लगा लिया। पाठक, होली मुबारक हो।
सब कुछ एकदम सबके सामने हो रहा था। आंटी-अंकल अन्दर आए। पापड़, गुझिया, छोले-चाट के साथ मेरे पापा-मम्मी उनका स्वागत कर रहे थे। मुझे भी नया सूट पहनकर कॉलोनी में अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का मौका मिल गया।
आप सबको होली मुबारक हो। होली के बाकी रंग अब अगली होली...
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