रंग याद है : जमात-ए-होली—में घर नहीं गए

जो हॉस्टलर्स होली में घर नहीं जा पाते, उन्हें सबसे ज़्यादा सिक्यूरिटी गार्ड के सवालों से टकराना होता—होली में आप घर नहीं गए सर? अरे सर, सालभर का परव (पर्व) है, आपको जाना चाहिए न, माँ-बाप सब दिन थोड़े ही रहता है। होली में तो नहीं लेकिन वैसे तो घर जाना होता है न सर? ये पीएडी का सुपरवाइजर सब भी न, बड़ा कठजीव होता है सर, अपने तो होली मना रहा होगा और आपको लगा दिया है प्रोजेक्ट। छोड़ दीजिए सर, आज तो होली मना लीजिए...

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, विनीत कुमार की रंगयाद : “जमात-ए-होली—में घर नहीं गए” 

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सालभर तक अलग-अलग कारणों से डीयू के हॉस्टलर्स जो अपने-अपने हिसाब से गुटों में बँटे होते, होली आने के थोड़े दिन पहले और बीत जाने के कुछ दिनों तक स्वाभाविक ढंग से एक अलग समूह के तौर पर पहचाने जा—“जमात-ए-होली में घर नहीं गए।” इस दौरान कुछ हॉस्टलर्स जो कभी किसी गुट में नहीं होते, उनका मिज़ाज या तो ऐसा होता या फिर उनकी दिनचर्चा कि वो एकदम से अलग-थलग होते और कई बार तो पता भी न चलता कि वो भी इसी चकल्लस की जगह के जीव हैं, होली के दौरान यदि घर न जा पाते तो स्वाभाविक ढंग से “जमात-ए-होली में घर नहीं गए” में शामिल मान लिए जाते।

होली वैसे तो एक दिन की होती। हॉस्टल की मेस में लंच या फिर डिनर यानी एक या दो वक़्त का खाना नहीं बनता और हॉस्टलर्स को इस दौरान ख़ुद से इंतज़ाम करना होता लेकिन जमात-ए-होली में घर नहीं गए के भीतर गुरुदत्त की आत्मा ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’ इसके कई दिन पहले से सक्रिय हो उठती। मसलन जिसका रूम पार्टनर होली से तीन-चार दिन पहले ही घर चला गया, वो उसी दिन से इस समूह का हिस्सा हो गया। कुछ हॉस्टलर्स होली के एक दिन पहले अपने लोकल गार्जियन के पास चले जाते तो उसकी आत्मा तब विकल हो उठती। कुछ की गर्लफ्रेंड ने “मेला बाबू होली में उदाछ नहीं होएगा, अच्छे से बट सेफ होली खेलेगा। गांव में ठीक से टावर नहीं आता है तो फोन कट जाने पर बार-बार कॉल करके इरिटेट नहीं करेगा” कहकर सप्ताह भर पहले ही शहर से विदा ले लिया है। कुछ ने होलिका दहन के ठीक पहले की शाम हड़काकर एलजी (लोकल गार्जियन) का रूख़ किया है अब तुम बार-बार फोन मत करने लग जाना और मैं उनके बच्चे-कच्चे के बीच बिजी रहूँगी तो हो सकता है तुम्हारे टेक्स्ट मैसेज का जवाब जीरो टाइम ऑवर में न दे पाऊं तो लोड मत ले लियो। ऐसे हॉस्टलर्स के भीतर की सामाजिकता सक्रिय हो उठती और वो ये दुनिया अगर मिल भी जाए से ठीक उलट ‘हम सब भारतीय हैं’ वाली मुद्रा में आ जाते। अब उनके लिए पूरा विश्व बंधु हो जाता। इस दौरान वो ऐसे-ऐसे लोगों को हैलो, हाय, गुड मॉर्निंग करने लग जाते जिन्हें समान्य दिनों में देखकर भी अनदेखा करते कि कहीं कुछ टोक-टाक न कर दे। कुछ हॉस्टलर्स ऐसे भी होते जो रह तो रहे होते ‘विंग ए’ में लेकिन उनकी महफ़िल ‘विंग सी’ में जमती जो कि एक ही हॉस्टल का हिस्सा होते हुए भी अलग ही दुनिया होती, उनके सारे दोस्त उसी विंग के होते। होली से कुछ दिन पहले जब वो विंग विरान हो जाता तो उन्हें अपने विंग की सुध आती और पता करते कि किस कमरे ​का कौन होली में घर नहीं गया, जमात का हिस्सा है।

डीयू का अपना एकेडमिक कैलेंडर हुआ करता है जिसके हिसाब से यहां के कर्मचारी से लेकर प्रोफेसर और वीसी तक अपनी योजना बनाकर जीवन यापन करते हैं। उनकी पेशवर से लेकर निजी ज़िन्दगी के कई फैसले इसी कैलेंडर के हिसाब से तय होते हैं लेकिन हॉस्टलर्स का इस एकेडमिक कैलेंडर के बरक्स एक अपना कैलेंडर हुआ करता। ग़ौर करने पर कईयों के लिए यह दूसरा कैलैंडर एकेडमिक कैलेंडर से कहीं ज़्यादा मायने रखता और वो उसी अनुसार अपने कार्यक्रम तय करते। मसलन जो सिविल सर्विसेज की तैयारी में लगे होते, उनके कैलेंडर का नॉक प्वाइंट पीटी, मेन्स, इंटरव्यू होता। जो कई बार यूजीसी-नेट की परीक्षा देकर हार चुके हैं, वो भीष्म प्रतिज्ञा दोहराते हुए कि जब तक क्लियर कर नहीं लेते, मेरी ज़िन्दगी में कोई होली-दीवाली नहीं है। कुछ जो गर्लफ्रेंडशुदा होते उनका कैलेंडर “बाबू ने थाना थाया” का होता मतलब भारतीय रेलवे की तरह लगातार अपडेट होता रहता। वो अचानक से चार दिन के लिए होशियारपुर की मासी के यहां चली गयीं तो बाबू इस दौरान पूरी तरह फ्री है, वो विजयनगर से हडसनलाइन शिफ्ट कर रही है तो बाबू इस दौरान सुपर बिजी है। ऐसे हॉस्टलर्स के लिए सम्भावित दाम्पत्य जीवन का कैलेंडर हुआ करता और वो इसका पालन पूरी प्रतिबद्धता के साथ किया करते। हॉस्टल का जीवन छूटने के पन्द्रह साल बाद अब जब मैं याद करता हूँ और इनमें से कुछ के जीवन को क़रीब से देखता हूँ तो लगता है कि इस कैलेंडर ने उन्हें कहीं ज़्यादा जिम्मेदार इनसान बनाया। ख़ैर, इनमें से हॉस्टलर्स का एक ऐसा भी समूह हुआ करता जिनका कैलेंडर एम.फिल्, पी-एच.डी. के शोध-निर्देशक के हिसाब से तय होता। एक शोधार्थी का जीवन और भविष्य शोध-निर्देशक के अनुसार ही घूमता तो होली में हॉस्टलर घर जाएंगे या नहीं, कई बार उनकी कृपा, अनुकम्पा और सौहार्द पर निर्भर करता।

यदि निर्देशक की बिटिया का कुछ काम निकल आया है तो हॉस्टलर्स के लिए होली हो या दीवाली, घर न जाकर हॉस्टल में रहना सबसे ज़रूरी कार्य है। यदि निर्देशक के राजा बेटा का बी.टेक. में कहीं रैकिंग नहीं आयी तो अब प्राइवेट में कुछ-कहीं हो जाए, इसके लिए ऐसे हॉस्टलर को तैनात रहना होगा। देखिए तो उपरी और काग़जी तौर पर ऐसे हॉस्टलर सिंगल और परिवार से दूर रहकर भी जिम्मेदारियों के स्तर पर पूरी तरह मुक्त नहीं होते और शोध-निर्देशक के सिरे से उनके जीवन में एक गृहस्थी घुसी ही रहती। यह अलग बात है कि ऐसे हॉस्टलर होली के दिन,तीन-चार घंटे के लिए ज़रूर ग़ायब होते क्योंकि मैम (शोध-निर्देशक की बैस्ट हाफ) न जाने पर बुरा मान जाती हैं और उनके हाथ के गुलगुले और दहीबड़े, अहा!...पैर पर अबीर डालने पर सर हौले से यूं उठाते हैं कि पापा का वो हाथ झटकना याद हो आता है—रहने दो, रहने दो...जो भाव भीतर है ही नहीं, उसमें फोरमलिटी (फॉर्मलिटी) की कोई ज़रूरत नहीं है। कुल मिलाकर ये सर और मैम होली के दिन उनके जीवन में उस मधुमालती की तरह घुल जाते हैं जिसकी गंध वो होली के अगले कई दिनों तक हॉस्टलर्स के बीच फैलाना चाहते हैं और हॉस्टलर्स ऐसे अहमक़ कि इसे गंध मचाना कहकर पूरी तरह इग्नोर किया करते।

अलग-अलग कारणों से जो हॉस्टलर्स होली में घर नहीं जा पाते, उन्हें सबसे ज़्यादा सिक्यूरिटी गार्ड के सवालों से टकराना होता—होली में आप घर नहीं गए सर? अरे सर, सालभर का परव (पर्व) है, आपको जाना चाहिए न, माँ-बाप सब दिन थोड़े ही रहता है। होली में तो नहीं लेकिन वैसे तो घर जाना होता है न सर? ये पीएडी का सुपरवाइजर सब भी न, बड़ा कठजीव होता है सर, अपने तो होली मना रहा होगा और आपको लगा दिया है प्रोजेक्ट। छोड़ दीजिए सर, आज तो होली मना लीजिए...

होली की सुबह मेस में शानदार नाश्ता मिलता और “जितनी मर्जी, उतनी पीयो” की तर्ज़ पर ठंडई। उसके पहले जमात-ए-होली घर नहीं गए हॉस्टलर्स की इगो ध्वस्त होने का एक विधान। जिस हॉस्टलर की किसी बात पर कभी तनातनी हुई होती और महीनों से बातचीत बंद, वो एकदम से कमरे पर दस्तक देता और दरवाजा खोलने पर एकटक देखता रहता और एकदम से हग करते हुए कहता—अरे, उस दिन की बात का तुम एतना लोड ले लिए कि भूल ही गए कि हम भी यहीं हैं, घर नहीं गए हैं। चलो न, ब्रेकफास्ट करते हैं। इगो थोड़ा सा दरकता कि अगला वाक्य—और ऊ बिनयिआ (विनय), ऊ भी नहीं गया है, स्साला हम बस इतना पूछे कि मैडम का सीएसआईआर क्लियर हुआ जी? कि उसके बाद से बातेचीत बंद कर दिया, चलो...उसको भी नॉक करते हैं। खोज-खोजकर उन सबको बारी-बारी से नॉक दिया जाता जिनके दिलों पर इगो का ताला पड़ा होता और महीनों से बातचीत बंद होती। कुछ तब भी तने होते तो उनका इगो दूसरी राउण्ड में ध्वस्त होता।

जमकर ब्रेकफास्ट कराए जाने के दौरान मेस हेड घोषणा करते—सर! लंच पैक लेना मत भूल जाइएगा, दोपहर और रात में मैस बंद रहेगा। सिल्वर फ्वॉयल में छह पूरी और आलू-प्याज टमाटर की सूखी सब्जी होती जिन्हें कि हॉस्टलर लेकर कमरे पर लौटते और मिरांडा हाऊस के पीछे की पीजीडब्ल्यू (पीजी हॉस्टल फॉर वीमेन) पर लगनेवाली बारात में शामिल होने के लिए तैयार होते। डीयू के जितने पोस्ट ग्रेजुएट मेन्ज़ हॉस्टल होते, सबके हॉस्टलर पीजीडब्ल्यू के आगे जुटते। वहां की हॉस्टलर छज्जे-बालकनी में आतीं और जमकर मौखिक-विनोद हुआ करता। हॉस्टलर अपने-अपने प्रेसिडेंट का नाम लेते और वहां की प्रेसिडेंट का नाम लेकर पूछते—मिस्टर बँटी आपका निकाह मिस बबली के साथ तय किया गया है, क्या ये निकाह आपको कुबूल है? इस वाक्य के बाद अगला वाक्य लिखते हुए छज्जे पर खड़ी उनक हॉस्टलर्स का चेहरा याद आ जा रहा है जो एक स्वर में कहतीं—‘हाँ, कुबूल है, कुबूल है।’ उसके बाद वो पुराने झाडू, रद्दी, पेपर हवा में उछालती। कुछ मसखरे इस विधान के बाद उन हॉस्टलर्स का नाम लेने लग जाते जिनका दोस्त उनके हॉस्टल में रहा करता। भाभी, निकलिए न...भाभी के बिना होली कैसी, जैसे वाक्य उछाले जाते और ढोल-नगाड़े बजाते हुए आख़िर में वो बारात अपने-अपने हॉस्टल लौट आती।

डिनर के लिए पूरी-सूखी सब्जी के पैकेट तो होते लेकिन खाने का इरादा होता नहीं। डिनर तो दरअसल बहाना होता, दरअसल दिन में जिन हॉस्टलर का इगो बना रहा गया कि बात नहीं करेंगे, उन्हें जमात-ए-होली में घर नहीं गए की मुख्यधारा में शामिल करना होता। इसके लिए दो विधान शुरु होते। वार्डन की छापेमारी के डर से स्प्रिंग का जो हीटर छुपाकर रखा गया होता, निकाला जाता और मैगी बनाने की तैयारी शुरु होती। इसके लिए दिन में ही मेस के स्टोर में जाकर एक-दो प्याज, टमाटर, हरी मिर्च जुटा लिया जाता। मैगी तैयार होती और सीधे कटे-कटे से, खिंचे-खिंचे से के दरवाजे पर दस्तक और दरवाजा खोलते ही—“अरे भाई, तुम्हें मुझसे इश्यू है न, मैगी से नहीं न, चलो टेस्ट करके बताओ तो तुम्हाली बाबू जैसा बनाए हैं कि नहीं?” वो जाे अब तक मुँह फुलाए खड़ा होता, एकदम से भड़क उठता—“तुम्हारे इसी हरामीपने की वज़ह से हम साइड हो लिए, अब फिर से?” अच्छा चलो, अब आगे से नहीं बोलेंगे। मिस्स कर रहे थे तुमको यार तो चले आए। काहे, तुम मिस्स नहीं कर रहे? वो कुछ नहीं कहता, थोड़ी देर की चुप्पी फिर एकदम अचानक से—“लेमन टी पीना है तुमलोग को?” लेमन टी क्या, जहर भी पी लेंगे लेकिन हमलोग का प्लान है कि एक चक्कर कमलानगर का मार आएँ। कुछ न कुछ तो खुला होगा ही, इतना सा मैगी से क्या होगा, ये तो गला से नीचे उतरते-उतरते ग़ायब। “चलो, पहनो तुम दिल्ली हाट का गिफ्टेड कुर्ता!” ऐसे अलग-थलग पड़े, देर शाम होते-होते साथ हो लेते। कमलानगर से लौटने पर चाय के बहाने देर रात तक का जमावड़ा। अब तक की जमी शिकवा-शिकायतें बहकर बाहर निकलने लगतीं। कुछ गाना-बजाना होता और फिर अरे बेटा—“ये तो सुबह हो गयी!” सबकी अपने-अपने कमरे में विदाई।

होली बीत जाती। एलजी के पास गए लोग दोपहर तक लौट आते। कुछ की दोस्त भी लौट आतीं और धीरे-धीरे अपने-अपने गुट में वापसी शुरु होने लग जाती लेकिन वॉशरूम में, लॉन में दो-तीन वाक्य अगले कुछ दिनों तक सुनाई देते—“क्या बात है बेटा, हम घर गए तो आनन्द से बड़ा सट्टा-सट्टी (नज़दीकी) हो गयी तुम्हारी?” “सॉरी यार, ग़लती मेरी ही थी, आनन्द की नहीं, मैंने ख़ुद रिअलाइज किया। प्रभात दिल का बुरा नहीं है यार, कुछ मिसअन्डर्स्टैंडिंग हो गयी थी तो इस बार होली में दूर हो गयी।” “जानते हो परवेज़, किसी इनसान को बस इसलिए नहीं ख़ारिज कर देना चाहिए कि वो हमसे घुला-मिला नहीं है, क्या पता उसकी भी कोई मजबूरी रही होगी।” “इस बार होली में अतुल घर नहीं गया था, कटा रहता है ये तो सब जानते हैं लेकिन हम एनिसिएटिव लिए तो एकदम अलग इनसान निकला। क्या विट है, क्या ह्यूमर है यार। आज शाम चलना न, मिलवाते हैं तुमको”, देखना...एक-दो कोशिश करके कि होली की वो शाम-रात ख़त्म, बात ख़त्म लेकिन सुपर सीनियर इसका हवाला देकर वापस घुलने-मिलने की कोशिश करते—“क्या जी राजीव, तुम फिर से एंगिल लेने लगा, भूल गया नुसरत साहब का—ज़िन्दगी के सफर में, बहुत दूर तक, जब कोई दोस्त न आया नज़र। हमने घबराकर तन्हाई से सबा...”, “एक दुश्मन को ख़ुद हमसफ़र कर लिया?” “नहीं, नहीं सर। कैसे भूलेगें? बस वो एक बजे तक लैब पहुंचना है तो थोड़ा जल्दी में थे।” “अच्छा-अच्छा, जाओ फिर..मिलते हैं शाम को।”

“जमात-ए-होली में घर नहीं गए” के वो दिन बहुत अलग होते। उसकी तासीर इतनी गहरी होती कि उसका लिहाज लोग हॉस्टल छोड़ने तक करते। उसकी सुबह, शाम और रात को याद करते गेट तक छोड़ने आते, सामान पैक करने-रखवाने में मदद करते। इस शाम और रात के बहाने हॉस्टलर्स के इगो जलते, ध्वस्त होते और लिहाज लौटता। ग़ैरज़रूरी ढंग की गुटबाजी की जकड़न ढीली पड़ती और संवेदना की उस जमीन पर खड़े होकर सोचते—यहां किसको घर बसाना है, सबको साल-दो साल में निकल लेना है, उसके बाद कौन कहां? होली के तमाम रंगों के बीच ये वो रंग होता जो सालभर फीका पड़ गया होता तो गहरा जाता। वो रंग जो बड़ी तेजी से हॉस्टल क्या, उसके बाहर की दुनिया में भी कम होते जा रहे हैं। चौतरफा रंग है लेकिन बंदरंग होती दुनिया कहीं गहरी है। उदास मौसम में और ख़ुश होने के मौक़े पर, हॉस्टल का रंग अक्सर याद आता है। रंग, जो अब भी याद है, रंग जो किसी न किसी रूप में भीतर मौज़ूद है।

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