रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में हृषीकेश सुलभ याद कर रहे हैं अपने गाँव की होली… जिसमें एक किरदार है– बिलबिल मिसिर, जो कुँवारे हैं और हर साल गाँव में होलिका दहन के नायक रहते हैं। बिलबिल मिसिर सरीखे किरदार हमें भी अपने आसपास देखने को मिल जाते हैं। पूरे गाँव के लिए हँसी-ठठ्ठा का केन्द्र बने बिलबिल एक बार होली पर नायक बनने से इनकार कर देते हैं और जाकर छिप जाते हैं। ऐसे में गाँव वाले कैसे उनको मनाकर नायक बनने के लिए तैयार करते हैं इसका सुलभ जी ने अपने शब्दों की जादूगरी से शानदार वर्णन किया है। पढ़ें उनकी यह रंगयाद।
‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, हृषीकेश सुलभ की रंगयाद : “गोरी सींकिया कजरवा जनि कर हो”
...
फागुन पूर्णिमा की रात थी।
जादू भरी रात।
चन्द्रमा से दूध-सी सफ़ेद चाँदनी बरस रही थी और धरती का एक-एक तृण सराबोर हो रहा था...फगुनी बयार से डोल रहा था। पकने को तैयार गेहूं-जौ की बालियाँ एक-दूसरे के गले मिल रही थीं।
होलिका दहन की रात थी।
इसे हमारे ज़िला-जवार में सम्वत् की रात कहा जाता है! मध्य रात्रि के आसपास होलिका दहन होना था! पिछले कई सालों से चिर कुँवारे बिलबिल मिसिर इस आयोजन के नायक थे। यह नायकत्व आसान नहीं था। एक तो कुँवारे होने की पीड़ा और ऊपर से सगरे गाँव की हँसी-ठठ्ठा का केंद्र बन कर जीना कठिन साधना थी , जिसे अनचाहे मन से बिलबिल मिसिर कई सालों से कर रहे थे। हर साल लुकते छिपते, पर ढूँढ़ ही लिये जाते। बिलबिल ग़ायब न हो जाएँ इसकी ज़िम्मेवारी मेरी उम्र के लड़कों पर होती!
मैं सत्रह-अठारह का था और पटना से इंटरमीडियेट की परीक्षा देकर गाँव आया था। सुबह से ही हम लोग बिलबिल मिसिर की खोज में थे और वे थे कि मुँह-अन्धेरे ही अन्तर्ध्यान हो गये। उनकी गुमशुदगी की ख़बर पर पूरा गाँव सक्रिय हो गया था और अन्ततः दोपहर होते-न-होते वे गाँव से बाहर लहेजी-हरपुर के सिवान पर सरकारी ट्यूबवेल के सूखे सायफन में छिपे हुए पाए गए। दोपहर से रात हो गई थी बिलबिल मिसिर की आवभगत और निगरानी करते। वे इस बरस नायक बनने को तैयार नहीं थे और हम सब उनकी चिरौरी करने में लगे थे हालाँकि बीच-बीच में उनके साथ बल-प्रयोग भी होता और निर्विकार भाव से उनके मुँह से गालियाँ बरसतीं! अन्ततः उनके सामने यह प्रस्ताव रखा गया कि कल यानी होली के दिन ही उनके भैया से उनका बँटवारा करा दिया जाएगा।
***
बिलबिल मिसिर के परिवार में चार लोग थे। बिलबिल के बड़े भाई और भौजी और एक चितकबरी गैया! खेती-बाड़ी नाममात्र की थी। जजमनिका ही सहारा था। पुरोहिताई के भरोसे ही जिनगी की गाड़ी चलती। गैया का भी आसरा रहता! बिलबिल मिसिर दिन-रात गैया की सेवा करते। उनकी भौजी आधा दूध घर से उठौना पर बेच देतीं और आधा में पति-पत्नी अघा उठते। बचता तो आधा लोटा बिलबिल को भी मिलता!
ब्याह बिलबिल मिसिर की चिर लालसा थी! गाँव भर की भौजाइयाँ इस लालसा का रस लेतीं। जब भी दिख जाते वे चुहल करतीं।ब्याह शब्द सुनते ही वे अह्लाद से भर जाते! लोग इसका लाभ लेकर मौज करते।
बिलबिल को यह समझाया गया कि बड़े भाई बेइमानी कर रहे हैं! अपना ब्याह कर लिये और तुमको बंडा छोड़ दिये हैं। हमलोग बँटवारा करवा देंगे। तुम कल धुरखेल के बाद भइया से कहना कि मेरा हिस्सा बाँट दो। तुम अपने हिस्सा में भौजी को माँगना और गैया भैया के हिस्से दे देना। कोई कुछ भी कहे बात से डिगना मत!
बिलबिल मिसिर की सोयी हुई कामनाएँ जाग गईं। भैया-भाभी के प्रणय दृश्यों को सबने अपने-अपने हिसाब से रच कर बिलबिल को सुनाया और वे मत्त गज की तरह हुंकारी भरते रहे!
मध्य रात्रि के आसपास निर्धारित महूर्त पर होलिका दहन हुआ! बिलबिल मिसिर ने बँटवारे के लालच में सबकुछ सहा और दूसरे दिन धुरखेल के लिए उम्मीद से परे सबसे पहले हाज़िर हो गये!
***
होली की सुबह थी!
हल्की ठंडी हवा! जाते हुए फागुन की विदाई में मतवाले लोगों की भीड़ जमा हो रही थी।
हुड़दंग की सुबह!
बिलबिल मिसिर के लिए सबसे कष्टकारी, पर इस साल उम्मीदों से भरा हुआ दिन था। धुरखेल में हुड़दंगियों के जुलूस के नायक थे बिलबिल मिसिर।
ढेर सारे अपदार्थों से उनका शृंगार हुआ! अर्द्धनग्न! बेंगा धोबी के गधे पर सवार हुए!
शोभायात्रा निकली। गाँव की सड़कों-गलियों से गुज़रती और जिस घर में भौजाइयाँ होतीं, उस दरवाज़े रुकती हुड़दंगियों की इस शोभायात्रा में जोगिरा और फगुआ के बोलों की ध्वनियाँ गूंज रही थीं!
जिनके पति होली मनाने परदेस से आये थे वहाँ होली के बोल होते—
आज पलंग पर धूम मची
परदेसिया अइलन हो रामा!
या
गोरी सींकिया कजरवा जनि करऽ हो
पिया परदेसिया से नज़र लड़ी!
जिनके पति नहीं आ पाये उनके दरवाज़े पर बिलबिल मिसिर का नाम जोड़कर जोगिरा गाया जाता कि इस बरस इसी देवर के साथ होली खेल लो भौजी।
ऐसा नहीं की धुरखेल के हुड़दंगियों में युवा ही थे! उम्र की सीमा को उलाँघते हुए कुछ भद्र दिखने और समझे जाने वाले लोग भी इसमें शामिल थे।
धुरखेल के हुड़दंगी धीरे-धीरे मिसिर टोला पहुँचे। गधे पर सवार बिलबिल मिसिर अपने दरवाज़े के सामने पहुँचे! दरवाज़ा बंद था।उनके भैया-भौजी घर में थे। होली शुरू हुई...
“भौजी खोलऽ ना केवाड़, भौजी खोलऽ ना
दुअरा पर अइले देवरवा...!”
भैया-भौजी ने किवाड़ नहीं खोला।
अचानक गधे पर से कूदे बिलबिल मिसिर और जाकर ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा पीटने लगे। कुछ देर तक यह क्रम चला!
दरवाज़ा खोलकर बिलबिल मिसिर के भैया बाहर निकले। गरजे—“का रे बिलबिलवा?...सरवा इज्जत के नाश करके छोड़ दिहले!
बिलबिल बोले—“हमरा आपन हिस्सा चाहीं! बँटवारा कऽ दऽ आजुए! घर-दुआर खेत-बाड़ी सब अधिया करऽ। गैया तू ले लऽ औरि भौजी के हमरा हिस्सा में दे दऽ।”
बिलबिल के भैया सारा खेल समझ गये। भीतर गये। लाठी के साथ वापस लौटे और बिलबिल मिसिर का बँटवारा शुरू हुआ।
हर लाठी पर बिलबिल उछल रहे थे और भौजी को अपने हिस्से में माँगने की रट लगाये हुए थे!
सारे हुड़दंगी साथ छोड़ कुछ दूरी पर जाकर खड़े हो गये!
जो भौजी आज तक चौखट से बाहर पाँव नहीं निकाली थीं, वो किवाड़ ठेलकर बाहर निकलीं। उन्होंने सामने खड़े गाँव के लोगों की परवाह नहीं की। बिलबिल मिसिर के पास आईं और पति की लाठियों की परवाह किये बग़ैर कवच बनकर उनके ऊपर छा गईं।
सारी भीड़ सन्न!
बिलबिल को लगभग घसीटते हुए भौजी घर के भीतर ले गईं और दरवाज़ा बंद कर दिया!
***
थोड़ी देर बाद भेद खुल गया कि बिलबिल की लालसाओं को हवा देने वाले कौन लोग थे! होली के चलते तत्काल सज़ा टल गई।
दोपहर बाद नये कपड़े पहन अबीर खेलने और हर घर के सामने होली गाने की परम्परा आज भी लहेजी में है! अन्त चैती से होता है!
उस होली बिलबिल मिसिर के दरवाज़े पर ‘होली-गायन’ का अन्त हुआ! बिलबिल मिसिर नया कुर्ता और पियरी धोती पहने बीच में बैठे थे। शुरू में तो हम सब अपराधियों की तरह खड़े रहे, पर अन्त में हम सब ने ही चैती गाया—
अबकी चइत चित बौरइले हो रामा भौजी के अँगनवा...
दूसरे दिन भौजी ने बुलाहट भेज कर बसीअउरा खिलाया था। हम सब नज़रें झुकाए खाते रहे और वे चुहल करती रहीं! बिलबिल मिसिर गाय चराने गए।
[हृषीकेश सुलभ की पुस्तकें यहाँ से प्राप्त करें।]
‘रंग याद है’ शृंखला की अगली कड़ी में पढ़ें, प्रवीण कुमार की रंगयाद : “होरी का संग खेलूँ, बालम हमरो बिदेस”