रंग याद है : होरी का संग खेलूँ, बालम हमरो बिदेस

‘अमर देसवा’ उपन्यास के लेखक प्रवीण कुमार होली से जुड़ी यादों में अपनी टोली के साथ बचपन में की गई उन कारस्तानियों को याद कर रहे हैं, जिन्हें अंजाम देते समय वे गाँव के ओझा से लेकर मास्टर जी तक किसी को नहीं छोड़ते थे। आज उनकी टोली के सभी साथी बड़े शहरों में जाकर बस गए हैं लेकिन होली आने पर उनका मन बचपन के उन्हीं दिनों की याद में खोया रहता है। राजकमल ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, उनकी रंगयाद।

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होली पर लिखने के लिए कुछ भी मानवीय नहीं सिवाय इसके कि हम मोहल्ले के वह दैत्य थे जिनकी एकता को कोई नहीं तोड़ पाया था। पुलिस भी नही। देवता भी नहीं। हम छूटते गाली देते थे पर उससे पहले हाथ चलाते थे।

हमने कॉलेज के नाइट गार्ड को बन्धक बनाया और कॉलेज के एक सूखे पेड़ को होलिका के लिए काट लाए। मैदान में फालतू चरते गधों से उसे ढुलवाया। फिर भी होलिका कम पड़ रही थी और अगली सुबह हमने देखा कि पान की पाँच छोटी गुमटिया भी उन्हीं टहनियों के झुरमुट में साफ छुपते भी नहीं और सामने आते भी नहीं थे, जिन्हें सिनियर एक रात पहले कॉलेज के कुछ पेड़ों से काट कर लाए थे।

सुबह गधे की रेंक सुनकर उठने की आदत थी। मगर उस दिन मुझे ओझा का अखंड स्रोत सुनकर आँख खुली। करियट्ठा ओझा के कमर से लूँगी लेकर भाग गया था। दोनों पिये हुए थे। ओझा टेलीफोन के खम्भे से लिपटे अपनी इज्जत छुपा रहे थे और माँ की गालियाँ बरसा रहे थे।

महेन्द्र मिश्र ने टिटकारी मारी। दोनो पिए हुए थे। ओझा माँ की गालियाँ बरसा रहा है और झूनूं ओझा टेलीफोन के खंभे से लिपटे अपनी इज्जत छुपा रहे थे और गालियां भी बक रहे थे।

महेंद्र मिश्र ने टिटकारी मारी “अरे ओझा...चालीस पार कर गए और अंडरवियर नहीं पहनते।”

ओझा “तहरी...साले महेंद्र।” म...आँ...आँ...के...ओहो...ओ...साले...महेन्द्र...

सड़क के किनारे के महल्ले की अपनी धाक होती है। पता नहीं किधर से करियट्ठा एक तांगा लेकर आ घुसा मोहल्ले में...तांगा वाला पीछे पीछे भागा आ रहा था “हे हाकिम! तांगा दे दीं...माल लादे जाए के बा।”

तांगा वाला मुसलमान। करियट्ठा पर कोई असर नहीं, “बच्चा लोग...आ जाओ टमटम पर...पूरा जिला घुमाएगा यह करियट्ठा।”

हम सब उस्ताद के आदेश पर चढ़ बैठते हैं। तांगा वाला भी हम में एडजस्ट होता है। तांगा अपने ही मुहल्ले की एक गली से दूसरे गली घूम रहा है। ...परदेसिया अलबड़ हे...मउजी...परदेसिया...

पता नहीं करियट्ठा को क्या सूझा। यकायक वह चलते तांगे पर खड़ा हो गया और उधर से साइकिल पर आ रहे दुलारे मास्टर को बोला, “मास्टर साहेब! हैप्पी होली” और उन पर सीधे ही कूद गया। मास्टर जिस तरफ से आ रहे थे उसके ठीक बगल में कमर भर की नाली खुदी पड़ी थी। करियट्ठा उनको लिये-दिये सीधे नाली में...कूद पड़े जमुना में कन्हाई...कूद पड़े...

रंग को हम लेडीज होली मानते थे। असली होली थी पोटीन की। चेहरा स्टील जैसा चमकता था, दाँत तक। माँ-बाप भी अपने पोटीन लगे बच्चे को देर से पहचान पाते थे। कनिया आजी हम सब को “शिव जी का बाराती” कहती थी। नालियों में राहगीरों के फेंकते और राहगीर न मिलने पर एक-दूसरे को। यह नालियाँ सीवर वाली नहीं थी इसलिए घिनाने की कोई ठोस वजह न थी। नालियों में लोट-मार होने के बाद हम सब दैत्य जैसे लगते और राहगीर हमसे डरते थे।

अब यह होली नहीं होती। सब दिल्ली मुंबई और बैंगलोर से फेसबुक पर डिजिटल होली खेलते हैं और रोते हैं।

मोहल्ला भी अजनबी हो गया। अस्सी प्रतिशत आबादी किरायेदार है जो आज पास के गाँव से आकर बस गई गई। हम सबके भीतर वह होली आज भी कसकती रहती है। ...वह कोई सभ्य होली नहीं होती थी...लेकिन हमारी तो वही होली थी...वह छूट गई...होली में हमर झोरी हेरा गइल बटुआ ले गइल चोर!

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‘रंग याद है’ शृंखला की अगली कड़ी में पढ़ें, सविता पाठक की रंगयाद : “किस घर की गुझिया अच्छी किसने चाट खिलाई”