रंग याद है : एक होली जेएनयू की भी

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू में इन दिनों छात्रसंघ चुनाव होने के चलते यह काफ़ी चर्चा में हैं। लेकिन जेएनयू के बारे में एक और बात है जो इसे और भी खास बनाती है, और वह हैं यहाँ की होली। राजकमल ब्लॉग के इस अंक में, जेएनयू के पूर्व-छात्र रहे राहुल सिंह वहाँ की होली से जुड़ी यादों को ताजा कर रहे हैं। पढ़ें उनकी यह रंगयाद।  

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, राहुल सिंह की रंगयाद : “एक होली जेएनयू की भी

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होली की प्रसिद्धि की बात आती है तो फूलों की होली और लट्ठमार होली का ही खयाल पहले-पहल आता है। पर एक ऐसी भी होली रही है, जिसकी हाईप इतनी ना रही हो, लेकिन जो कभी भी उसका हिस्सा रहा हो, उनके जीवन की वह यादगार होली रही है।

मैं बात जेएनयू की होली की कर रहा हूँ। होली की पूर्वसन्ध्या पर होनेवाले झेलम लॉन के ऐतिहासिक चाट सम्मेलन से इसका माहौल बनना शुरू होता था। जेएनयू के एक से बढ़कर एक चाट वहाँ जुटते ही थे, जनता को लिटरली चाटने के लिए।और मजे की बात यह कि छात्रों का रेला भी अटम ठेल जुटता था, चटने के लिए। मंच पर चढ़ कर पब्लिक द्वारा हूट किये जाने की हद तक चाटने के लिए कलेजा और जिगर दोनों चाहिए होता था। जेएनयू में पाँव धरने तक ‘मामू’ बहुत बड़े चाट हुआ करते थे, उसके बाद नये कट के लौडों ने मामू की बादशाहत छीन ली। पर यह बादशाहत ‘हूपा’ में ही रही। हूपा बोले तो हिन्दी, उर्दू, पर्सियन और अरबी के पहले अक्षरों को मिलाकर कंगलों की एक अलग पंगत जेएनयू के तथाकथित इलीट डिसिप्लीन वालों ने बना रखी थी। पर बावजूद इस टैग के मजाल कि इसका रंज भी किसी को हो। चाट सम्मेलन की रौनक ‘हूपा’ से थी। आपस में भले सियापा करते हों, पर पब्लिक प्लेस में छप्पन इंच से कतई कम लिये नहीं घूमते थे। तो चाट सम्मेलन से होली का मूड-मिजाज सेट होता था, कैम्पस में। अगली सुबह शुरुआत होती थी, मेस में बाँटी जानेवाली भांग से। घोल कर बड़े कनात में मेस में रख दिया जाता था, जिसकी जितनी मर्जी भर-भर ले जाए। मैं चंद्रभागा हॉंस्टल में मेस सेक्रेटरी था। हरियाणा के एक ताऊ रिटायर्ड फौजी, हमारे मेस मैनेजर थे। हॉस्टल हमारा नया-नया था और को-हॉस्टल था। लड़के-लड़कियों में कोई भेद नहीं। पर पहली होली का अनुमान हमें नहीं था कि लड़कियाँ इतनी क्रांतिकारी निकलेंगी। लड़के जहाँ एकाध लीटर भर कर लिये जा रहे थे। गर्ल्स विंग तो मानो दो लीटर से कम लेना तौहीन मान चुकी थी। लूट हो गई थी, बस इतना जानिए।

परम्परा यह थी कि होली के दिन सुबह नाश्ते के साथ पैक्ड लंच मिलेगा और डिनर सब अपना-अपना देखेंगे। पैक्ड लंच में पूड़ी-सब्जी और दिल्ली की एक-एक बरफी हुआ करती थी।पूड़ी दोपहर तक इतनी मजबूत और टिकाऊ हो चुकी होती थी कि बस मजबूरी में ही उसका रुख किया जा सकता था। और जनता करती थी। साढ़े नौ बजे मेस का कारोबार खत्म हो जाता था। उसके बाद हर हॉस्टल से टोलियाँ झेलम लॉन के लिए निकलती थीं। वर्ल्ड कप के फाईनल में लॉर्ड्स में उतनी रौनक नहीं होती, जितनी झेलम लॉन में हुआ करती थी। अच्छी बात यह थी कि जेएनयू में रंग के बजाय अबीर खेलने का चलन था। हमारी तरफ होली मतलब दोपहर के इस ओर खतरनाक रंगों वाली होली जिसमें खुद को पहचानना ही मुश्किल हो जाए, रंगों के इतनी परतें चढ़ाई जाती थीं कि चेहरे और हथेलियों से रंग जाते-जाते दस दिन लग जाते थे। लेकिन कुछ दिलजले जेएनयू में भी थे, जो अबीर के बजाय रंगों पर अपनी अडिग आस्था रखे हुए थे और विधर्मी होना नहीं चाहते थे।

खैर, झेलम लॉन तक का रास्ता कोई लोकधर्मी गायक लीड करता था, जिसके पास श्लील और अश्लील जोगीरा का पूरा स र र र रा हुआ करता था। हमारे वक्त में पड़ोस के हॉस्टल लोहित में एक ऐसी ही जबर्दस्त प्रतिभा हुआ करती थी।अब वे दरभंगा में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। कहीं से एक रिक्शा जुगाड़ लिया गया था, भांग की तरंग में माहौल फूल्टू चकल्लस वाला हो गया था। लोहित से निकलकर माही-मांडवी-ताप्ती-साबरमती होते जब वह रिक्शा निकला तो टीन के कनस्तर और अजीब से भोंपू के साथ शिव की बारात वाला मामला हो गया था। मानो भूत, नाग, गंधर्व, नंदी, किन्नर सब शामिल हों। विरुद्धों का अभूतपूर्व सामंजस्य। काफिला बढ़ता, हॉस्टल के पास रुकता और वांछित लोगों को लेकर चल पड़ता। ऐसे मौकों पर छिपी हुई प्रतिभायें सामने आती हैं। होली में सारे खोल उतर जाते हैं। सब सेंसर और सेंसरशिप ताक पर रख दिये जाते हैं।

अकादमिक-बौद्धिक किस्म के जो लोग इस दिन खोल से बाहर आने से मना कर देते थे उस दिन के लिए उन्हें झांटू और चूतिया मान लिया जाता। इससे ज्यादा उन पर वक्त जाया नहीं किया जाता था। तो टोलियाँ पहुँचती तो इसी तरीके से थीं।उत्तर भारत वाले पुराने कपड़ों में पहुँचते थे कि फाड़ भी डाले जाएँ तो गम नहीं। पर असल होली तो मनाते थे विदेशी छात्र। प्रॉपर झक्क नया सफेद कुर्ता पहनकर पहुँचते थे ज्यादातर। एकदम ‘सिलसिला’ फिल्म के अमिताभ की माफिक प्रॉपर पिचकारी और बालसुलभ उत्साह से लबरेज। उनके मुँह से हैप्पी होली बड़ी क्यूट लगा करती थी। 

झेलम लॉन नाम भले हो, पर वह था दरअसल गंगा हॉस्टल का आंगन। होना तो उसे गंगा लॉन था, पर झेलम के चाटों ने उस पर कब्जा कर लिया था। गंगा लड़कियों का सुविख्यात हॉस्टल। जेएनयू में गंगा की अपनी ‘लिगेसी’ रही है। जिन लड़कों की कोई दोस्त गंगा में रहती हो, झेलम लॉन पहुँचने के बाद हुजूम से कट लेते थे। झेलम लॉन में डीजे की टाइट व्यवस्था रहती थी। न्यूज चैनल के ओवी वैन लाइव कवरेज के लिए लगे रहते थे। पर कायदन कहानियाँ इसके बाद शुरु होती थीं। मसलन आपको प्यास लग गई। अब पानी गंगा का पीएँगे या झेलम का? झेलम दूर पड़ता था। कोई आपकी क्लासमेट हो, आप सीरियसली कह रहें हो फोन करके—‘यार! प्यास लगी है, एक बोतल पानी लेकर आ जाओ।’ उधर से जवाब आए—‘जानती हूँ, आऊँगी तो रंग लगा दोगे। पीना है पानी और खा रहे हैं कसम कि नहीं लगाएँगे, आ जाओ।’

हर हॉस्टल में भांग के इतने किस्से होते थे कि इकट्ठा किये जाएँ तो महाकाव्य तैयार हो जाए। मेरे वक्त के दो-तीन ऐतिहासिक किस्से साझा कर रहा हूँ। वे दोनों ग्रेजुएशन (फ्रेंच) के छात्र थे। उनमें से एक झेलम लॉन के पास पेड़ पर भांग के नशे में चढ़ गया था, दूसरा उससे उतरने की मिन्नत में रोये जा रहा था। जब काफी मशक्कत के बाद उसे पेड़ से उतारा गया तो दोनों का कैरेक्टर ना जाने किस अज्ञात प्रेरणा से एकदम बदल गया। उनमें से एक भरत की भूमिका में आ गया था और दूसरा राम की भूमिका में। संवाद मात्र इतना थी—‘भरत! मेरे भाई मत रो।’ और दूसरा कहता—‘भईया, मुझे माफ कर दीजिए।’ लेकिन कमाल की बात यह थी कि रुदन दोनों का नहीं थम रहा था। वे एक-दूसरे के आँसू पोंछकर बार-बार गले लग रहे थे। यह टंटा कितनी देर तक चला मालूम नहीं, पर घंटा भर तो मेरे रहते चल चुका था। ज्यादातर कहानियाँ हॉस्टल लौटने के बाद मालूम होती थीं। जाना भले जत्थे में होता हो, लौटना अपने हिसाब और कूव्वत से होता था। मिड कैम्पस वालों के लिए तो कोई दिक्कत नहीं थी, पर पश्चिमाबाद या पूर्वांचल होली के दिन कुछ ज्यादा ही दूर पड़ता था।

होली की थकान के बाद पैदल लौटने की हिम्मत नहीं होती थी। कई मर्तबा लौट कर जाओ तो बाथरुम में पानी खत्म हो गया रहता था। हॉस्टल का कॉरीडोर इस बात की गवाही देता था कि होली केवल झेलम लॉन में नहीं खेली गई है। दोपहर तक भांग अपना असर दिखाना शुरू करती थी, जो अनुभवी थे, वे चिल्ल करते थे। जो ‘इस्टैंट इफेक्ट’ के चक्कर में ज्यादा ढकेल बैठे थे, डेढ़ दो बजते-बजते उनके लिए एम्बुलेंस बुलानी होती। होली के दिन जेएनयू के एम्बुलेंस का सायरन रह-रहकर गूँजता रहता। एक दक्षिण भारतीय छात्र ने ज्यादा ढकेल लिया था, उल्टियाँ होनी शुरु हुईं तो उसके रूममेट की हालात खराब हो गई। उस पर तुर्रा यह कि उल्टियों के बाद उसने अंग्रेजी और टूटी-फूटी हिन्दी का मोह त्याग दिया।उसे सबसे ज्यादा भरोसेमंद मातृभाषा लग रही थी। उसके हरियाणवी रूममेट को कोई दुभाषिया नहीं मिल रहा था। ग्राउंड फ्लोर पर एबीवीपी के एक थिंक टैंक रहते थे। बाबा बनने के फेर में वह भी कुछ ज्यादा पी बैठे थे। एम्बुलेंस आयी तो वे भी सवार हो गये। एम्बुलेंस ले जाकर एम्स या सफदरजंग अस्पताल में उतार दिया करती थी। उद दक्षिण भारतीय लड़के की हालत देखकर जब वहाँ के जूनियर डाक्टरों ने उसकी नाक या मुँह में पाईप डाला तो अचानक से बाबा तन्द्रा से जागे। और अपना बयान बदला कि मैं अपने ईलाज के लिए नहीं, इसके साथ आया हूँ। वैसे एम्बुलेंस केवल पहुँचाने का काम करती थी, लाने का नहीं। बाबा ऑटो रिजर्व करके लौटे थे।

गर्ल्स विंग का आलम यह था कि कोई लड़की वाटर कूलर के पास पड़ी हुई थी तो कोई पूरा दिन सीढ़ियों पर बैठी हँसती रही। किसी पर असर अगले दिन तक रहा था, शायद। वह चुप थी पर किसी को भी देखकर अपनी भौंहें उचका दे रही थी।मानो पूछ रही हो कि क्या हाल है? अगले दिन ब्रेकफास्ट में हमारे एक मित्र उसके सामने मेस में बैठे थे, गलती से एक बार नजर मिली तो उसने भौंहें उचका दी। एक पल को वह भौचक रह गये। लेकिन फिर हिम्मत करके देखा तो वही क्रिया उसने दुहरा दी। लड़कियों के मामले में थोड़े शर्मीले किस्म के थे। तो जीवन में पहली बार इस किस्म के साक्षात संकेतों को वे किस तरह पढ़ें, इसी पशोपेश में थे। ब्रेड बटर और दूध-ऑमलेट के साथ कितनी देर रहते। लेकिन जितनी देर रहे, उतनी देर उसके इशारों से मन में लड्डुओं के फूटने का जो सिलसिला शुरु हुआ तो वह थमा ही नहीं। किसी तरह अपने जज्बातों को काबू में रखते हुए, इन संकेतों का अर्थ समझने के लिए अपने फ्लोर के एक विश्वस्त साथी के पास उन्होंने दौड़ लगाई। संयोग से साथी ब्रेकफास्ट के लिए मेस की तरफ ही आ रहे थे। उन्हें रोककर अपनी बात बताई। उनके विश्वस्त ठीक है मैं देखता हूँ, कह कर उसी लड़की के सामने जाकर बैठ गये। उठ के आए तो वह भी कन्फ्यूज थे कि ‘मित्र, इशारे तो वह मुझे भी कर रही थी। अब इसका क्या अर्थ निकाला जाए?’ विश्वस्त पर विश्वासघात का आरोप लगा। बाद में ब्रेकफास्ट का टाइम खत्म होने के बाद वह ताऊ को भी भौंहें उचकाते पाई गई। तब उसकी रूममेट को बुलाकर उसे कमरे में भिजवाया गया।

दोपहर बारह-एक बजे के पहले तक जेएनयू में होली की धूम हुआ करती थी। एक बजे के बाद सड़कें सूनी हो जाया करती थीं। फिर चार बजे के बाद रिसर्च स्कॉलरों का जत्था या एम॰ए॰ के छात्रों का समूह एक-एक करके अपने अध्यापकों के घर जाया करता।उसकी एक बड़ी वजह यह भी होती कि मेस में दोपहर का खाना नहीं मिलता था और ज्यादातर ढाबे बंद रहा करते थे। होली का सबसे बड़ा संकट दोपहर और रात का खाना हुआ करता था। आप कैम्पस के बाहर कहीं भी जाएँ हुजूम मिलता, भोजन का इंतजार करते। ऐसे में अपने शिक्षकों के यहाँ जाकर मिठाइयाँ और नमकीन चुगना शगल और मजबूरी दोनों थी। ऐसी ही बेचारगी में तीन लोग प्रो. मैनेजर पाण्डेय के घर की राह लिए हुए थे, रास्ते में ‘गंडासा गुरु’ मिल गये। पूछा ‘कहाँ?’ बताया गया तो जवाब आया—‘वहाँ जाकर क्या करोगे? कंचे के साईज का रसगुल्ला रखा हुआ होगा। साला, खाये कि खेलें समझे में नहीं आता है।’ कुछ शिक्षक जरूर बड़प्पन दिखाते हुए अपने शोधार्थियों को शाम में खाने के लिए न्यौत देते थे। पर हमारे हिस्से यह सुख कभी नहीं आया। होली का दिन जितना सुखद होता था, डिनर उतना ही चुनौतीपूर्ण। पर जो भी हो जेएनयू की होली यादगार होली हुआ करती थी। अब भी होली के दिन जिंदगी में थोड़ा जेएनयू हरा हो जाया करता है।

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