पैंगोंग झील का वह दुर्गम इलाका जहाँ चीन कर रहा है अनधिकृत निर्माण

लद्दाख में भारत और तिब्बत की सीमा पर स्थित पैंगोंग झील के आसपास चीन के अनधिकृत निर्माण कार्यों से यह अक्सर चर्चा में रहती है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, प्रबोधकुमार सान्याल के यात्रा-वृत्तान्त ‘उत्तर हिमालय चरित’ का एक अंश जिसमें इस इलाके की भौगोलिक स्थिति को समझाया गया है।  

***

दरअसल, जिसे अक्साई चिन कहा जा रहा है, वह कई इलाकों की समष्टि है। काराकोरम और कुएनलान के बीच की जगह का नाम अक्साई चिन है। मौजूदा लेह तहसील के अन्तर्गत होते हुए भी यह इलाका पाँच हिस्सों में बँटा है : देपसांग, सोडा प्लेन्स, अक्साई-चिन, लिंगजिटान और चेंगचेनमो। चेंगचेनमी और रूपस के ठीक बीचोबीच पैंगोंग झील है। इस लम्बी झील का अधिकांश भाग तिब्बत में पड़ता है। भारत और तिब्बत जहाँ एक सीमा पर मिले हैं, वहीं भारतीय इलाके में खुर्नाक दुर्ग है। यह झील कम-से-कम सौ मील लम्बी है, पर चौड़ाई तीन से चार मील है। भारतीय इलाके में इसका कोई 140 मील का हिस्सा है। यह झील समुद्र के धरातल से लगभग 14 हजार फीट की ऊँचाई पर है। लेकिन अक्साई चिन में जितनी भी झीलें हैं कुस्वादु पानी की, उनमें से सबसे नीची भूमि में पैंगोंग है। इस लम्बी और कम चौड़ी झील का कुस्वादु और देखने में निर्मल और सुन्दर पानी सूरज की किरणों के कौणिक और तिर्यक विकिरण के कारण दिन-भर में बहुत बार रंग बदलता है। लाल, पीला, हरा-बहुत तरह का। तीसरे पहर से घना नीला। और रात में इसका रंग हो जाता है गहरा काला। और उस कृष्णाम्बरी को चूमने के लिए आसमान के हीरे-से चमकते तारे मानो दल बाँधकर इस झील में रात को उतर आते हैं!

इस झील के ठीक दक्षिण में एक पहाड़ी नदी के किनारे चुसुल है। यहाँ एक बहुत ही प्रसिद्ध पुरानी बौद्ध गुम्फा है। फिलहाल चुसुल में लोगों का आना-जाना और सामग्रियों का पहुँचना बढ़ गया है। इस समय यह भारत की एक मजबूत सामरिक घाटी है।

पैंगोंग के भारतीय हिस्से में कुछ निहायत छोटी बस्तियाँ नजर आती हैं। उन बस्तियों के आसपास हरियाली का थोड़ा-बहुत आभास है। वहाँ जौ और मटर कुछ-कुछ होता है। झील के पश्चिम की तरफ एक जगह है—ताककुंग। वहाँ से आगे जाने पर दूसरी जो बस्तियाँ मिलती हैं, उनके नाम हैं : काके, मिराक, माने, पानमिक और लुकुंग। बुर्जग में गिने-चुने कुल छह घर हैं। माने में भी वही। पानमिक में सिर्फ एक। केवल मिराक कुछ बड़ी हैं—पन्द्रह-बीस घर हैं। इनसे बाहर चारों तरफ सुनसान। लेकिन वह आदि-अन्तहीन शून्य बर्फीली चोटियों, नंगे और राक्षस जैसे पहाड़ों से भरा है। 'स्वेद-मांसहीन पँजरे की हड्डियों' जैसी इन पर्वतमालाओं की फाँकों में एक-एक उपत्यका, जिनकी जमीन चट्टानों से भरी है। इसी का नाम है चेंगचेनमो! इसकी ऊँचाई 15 हजार फीट है और इसी के अन्दर से बर्फ-गली जलधाराएँ एक-एक करके पश्चिम को शियोक नदी में जा मिली हैं। यह सँकरा पथरीला भू-भाग लम्बाई में 60-70 मील है और इसके नीचे तक हिमवाह उतर आए हैं। इसके उत्तर के बर्फ ढके स्तरों में कभी-कभी एक-एक चम्पा यायावर के साथ लम्बे रोयेंवाली भेड़-बकरियों के झुंड गुजर जाते हैं। बहुत दूर पर जाने कहाँ 'पामजाल' है, जहाँ कुछ घास और हरियाली के उगने की खबर मिली है! और जाने किस पहाड़ की दरार से गरम पानी की धारा फूटी है, जहाँ 'कियाम' नाम की जगह में शायद घास उगी हो! इसके सिवाय और कुछ नहीं है। जो हैं, सो गिरि-शिखर हैं- जिनकी ऊँचाई 20 से 21 हजार फीट है। समतल भाग उन्हीं के साथ-साथ उत्तर और पूरब को उठ गया है पन्द्रह, सोलह और सत्रह हजार फीट तक। अब चेंगचेनमो से लिंगजिटांग उपत्यका आ गई-यह एक विराट चट्टानी समतल है, जिस पर प्रागैतिहासिक युग से पीले पत्थर फैले हुए हैं। इतिहास के किसी भी युग में यहाँ के आसमान पर घटाएँ घिरती नहीं देखी गईं और कभी बारिश भी नहीं हुई। सूर्योदय के साथ-साथ यहाँ की हवा तपती रहती है और दिन को पत्थरों की यह दुनिया, जिसका रकबा करीब एक हजार वर्गमील है, धू-धू जलती रहती है। वह उत्ताप लगभग 190 डिग्री तक पहुँच जाता है। लेकिन शाम के बाद यहाँ जो ठंड उतरती है, वह जीरो डिग्री से नीचे शायद माइनस 50 डिग्री तक पहुँच जाती है! यही लिंगजिटांग कुएनलान पर्वतमाला के पश्चिम जलावतरण (watershed) का भू-भाग (18,000 फीट) है।

लिंगजिटांग के उत्तर और पश्चिम में कुएनलान के और भी दो इलाके हैं: पहला है अक्साई-चिन, दूसरा सोडा प्लेन्स । इतिहास के किसी भी अध्याय में इन इलाकों में भी आदमी की आबादी का जिक्र नहीं मिलता। 'It is truly a part where mortal foot hath ne'er or rarely been.' (Dren)। यहाँ खारे और कुस्वादु पानी के कुछ जलाशय हैं। यहाँ की सैकड़ों मील तक फैली हुई उपत्यका में एक घास भी कभी नहीं उगी! मुजताग काराकोरम और कुएनलान के बीच के हजारों-हजार वर्गमीलव्यापी इस इलाके का पता मात्र 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही मिला है! सन् 1947 से पहले साधारण भारतीयों ने अक्साई चिन का नाम भी सुना था या नहीं, सन्देह है। अक्साई चिन बहुत हद तक मानो भारत-भूखंड का एक अतिरिक्त अंशमात्र (appendiy) है, जिसके साथ मूल धरती की शिरा-उपशिरा या रक्त प्रवाह का कोई सम्बन्ध ही नहीं। चतुर चीनी डॉक्टरों ने इस एपेंडसाइटिस को फिलहाल नश्तर लगाया है।

लेकिन 19वीं शताब्दी के अँगरेज अपने भारत-साम्राज्य की सीमा के बारे में अस्पष्टता और अनिश्चयता नहीं रखना चाहते थे। इस लिंगजिटांग और चेंगचेनमो में खड़े होकर चारों तरफ देखते हुए उन्हें सोचना पड़ा था, कभी कोई शत्रु अगर भारत पर हमला करे, तो वह किस प्रकार से सम्भव होगा! भारत पर हमला कर सकने के जिन तीन रास्तों का उन्होंने अन्दाज लगाया था, उनमें से पहला यही अक्साई चिन की रूखी और कर्कश भूमि है, दूसरा काराकोरम के दरें से लेह पर आक्रमण और तीसरा है गिलगित होकर कश्मीर (Northern Barrier of India-1875)!

अँगरेजों का यह अन्दाज 80 साल के बाद बहुत हद तक सत्य में बदला है! महाराजा रणवीरसिंह द्वारा नियुक्त लद्दाख के अँगरेज गवर्नर ने अपनी एक आलोचना में अक्साई चिन और तिब्बत के बीच सीमा-सम्बन्धी मामले में कहा था—"From the pass at the head of the Chang Chenmo Valley southwards the boundary line is again made stronger. Here represents actual occupation so far that it divides pasture lands frequented in summer by the Maharaja's subjects from those occupied by the subject of Lhasa. It is true that with respect to the neighbourhood of Pang Kong lake there have been boundary disputes which may now be said to be latent. There has never been any formal agreement on the subject. This applies also to all the rest of the boundary between the Maharaja's and the chinese territories." (Fredric Drew, Gov- ernor of Ladakh-1871)

प्राणरहित, प्राणीरहित और जीव-जन्मविहीन इस अक्साई चिन में कभी-कभार ही प्राण का एक-एक टुकड़ा छिटककर आ जाता है! या तो एक मटमैले रोयें वाला कियांग (गधा), याकि कोई काला खरगोश या फिर कोई कस्तूरी मृग। ये घास या कँटीली लता के बीज ढूँढ़ते हुए आ जाते हैं। बीज न पाकर सूर्योदय के पहले ही भाग जाते हैं।

मध्य एशिया के सभी अंचलों की तरह यहाँ भी सूर्योदय का मतलब है, दिग्दिगन्त में धू-धू करके आग जल उठना। लेकिन नितान्त लघु वायु-स्तर में आग का वह किरण-जाल जिस माया-चित्रों (illusion) की रचना करता है, उनके पीछे दौड़कर बहुत-से दुस्साहसी लोगों ने अपने प्राण गँवाए हैं, इतिहास में इसके सबूत की कमी नहीं। अक्साई चिन के इस पहाड़ी समतल में 'आवह प्रकृति' की विशेषता से वे मायाविनियाँ दोपहर की जलती धूप में निडर-निर्लज्ज होकर नाचती रहती हैं! पूरब की ओर मुँह फेरने से मानो अपार सागर की गहरी शीतल जलराशि की सुन्दरता दिखाई देती है, उस पर सुफला और शस्यश्यामला एक-एक द्वीप और उन द्वीपों की चोटी पर बर्फ का मुकुट। उस समतल पर वे सारे-के-सारे मानो प्रतिबिम्बित हो रहे हों! झुककर देखिए, वह समुद्र हाथ की पहुँच तक आ गया है। यदि कोई बैठ जाए तो वह जलाशय तुरत करीब आ जाता है। मगर उठ खड़े होते ही गायब हो जाता है! वह कहाँ गायब हो गया, इसे जानने के लिए जाने एक अटूट आकर्षण से थका-प्यासा होते हुए आगे जाना ही पड़ता है। और वैसे में सामने की वह समतल भूमि नाचते-नाचते खिसक जाती है तथा पहाड़ों से घिरा एक निर्मल मनोरम सरोवर में बदल जाती है, जिसका काक-चक्षु जैसा पानी स्निग्ध-मधुर मृत्यु की तरह मूढ़ पथिक को धीरे-धीरे बुला ले जाता है!

 

[प्रबोधकुमार सान्याल की किताब ‘उत्तर हिमालय चरित’ यहाँ से प्राप्त करें।]