1975 में लगाए गए राष्ट्रीय आपातकाल को आज 50 साल हो गए हैं। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, सुदीप ठाकुर की किताब ‘दस साल : जिनसे देश की सियासत बदल गई’ के कुछ अंश जिसमें उन कारणों की चर्चा की गई है जो तात्कालिक रूप से आपातकाल लगाने की वजह बने।
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1971 के लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से सत्ता में आने वाली इन्दिरा गांधी उस रास्ते पर चल पड़ी थीं, जहाँ से लौटना उनके लिए आसान नहीं था। दो-तीन सालों में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से बदले थे कि उन पर उनका नियंत्रण नहीं रहा था। आपातकाल लगाने की तात्कालिक वजह बना था, 12 जून, 1975 को आया इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा का वह चर्चित फैसला, जिसमें उन्होंने 1971 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के रायबरेली से इन्दिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध क़रार दिया था।
12 जून, 1975 को दो और घटनाएँ हुई थीं, जिनका सम्बन्ध इन्दिरा गांधी से था। इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला आने से पहले उसी दिन सुबह डी.पी. धर का निधन हो गया। कैबिनेट मंत्री रह चुके धर सोवियत संघ में भारत के राजदूत थे और इन्दिरा के क़रीबी सलाहकारों में से थे। 1971 के बांग्ला मुक्ति युद्ध में भारत के दखल में उनकी अहम भूमिका रही थी। मगर ऐसे समय, जब इन्दिरा को अपने राजनीतिक जीवन से जुड़े एक अहम अदालती फ़ैसले का इन्तजार था, उनके निधन की खबर एक बड़ा आघात था। इन्दिरा के पूर्व मुख्य सचिव और तब तक योजना आयोग से जुड़ चुके पी. एन. हक्सर और उनके वर्तमान मुख्य सचिव पी.एन. धर के साथ ही डी.पी. धर कश्मीरी नौकरशाहों, राजनेताओं, राजनयिकों, सलाहकारों और रणनीतिकारों के उस समूह का हिस्सा थे, जिनका प्रभाव हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री सचिवालय पर बढ़ गया था। सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध में यह समूह सत्ता के गलियारों में ‘कश्मीरी माफ़िया’ के नाम से भी बदनाम हो चुका था।
पी.एन. धर के कॉलेज के दिनों के साथी डी.पी. धर कुछ आधिकारिक मशविरे के सिलसिले में मॉस्को से दिल्ली आए थे और अचानक तबीयत खराब हो जाने के कारण उन्हें राजधानी के गोविन्द वल्लभ पन्त अस्पताल में भरती करवाया गया था। पी.एन. धर ने बीती शाम ही उनसे अस्पताल में मुलाक़ात की थी और अगले दिन यानी 12 जून को उन्हें पेस मेकर लगाया जाने वाला था, मगर 12 जून की सुबह पी.एन. धर की नींद ‘मनहूस टेलीफ़ोन कॉल’ से टूटी, जिससे पता चला कि डी.पी. धर नहीं रहे।
उस सुबह इन्दिरा गांधी अपने कमरे में नाश्ता कर रही थीं कि तभी आर.के. धवन ने उनका दरवाजा खटखटाया और उन्हें डी.पी. धर के निधन की सूचना दी थी।
पी.एन. धर जब तक अस्पताल पहुँचते, इन्दिरा वहाँ पहुँच चुकी थीं और डी.पी. धर की अन्त्येष्टि वगैरह के सम्बन्ध में निर्देश दे रही थीं। तब डी.पी. धर की पत्नी मॉस्को में थीं। अस्पताल से निकलकर पी.एन. धर अपने कार्यालय पहुँचे और डी.पी. धर की पत्नी से फ़ोन पर सम्पर्क की कोशिश करने लगे। इस बीच, इन्दिरा गांधी के प्रेस सलाहकार एच.वाई. शारदा प्रसाद करीबन दौड़ते हुए पी.एन. धर के कमरे में आए और उत्तेजित स्वर में उन्होंने सूचना दी, “इलाहाबाद कोर्ट का फैसला आ गया है और प्रधानमंत्री का निर्वाचन रद्द कर दिया गया है।”
इस फ़ैसले को लेकर पिछले कई दिनों से गहमा-गहमी थी। 12 जून की सुबह से प्रधानमंत्री सचिवालय (पीएमएस) में इसका इन्तजार किया जा रहा था। कालान्तर में यही यानी पीएमएस प्रधानमंत्री कार्यालय यानी पीएमओ कहलाने लगा। पीएमएस में संयुक्त सचिव के रूप में काम कर रहे बी.एन. टंडन जैसे ही दस्तर पहुँचे थे, थोड़ी देर बाद ही उनके कमरे में पीएमएस में पदस्थ एक अन्य संयुक्त सचिव वी.आर. यानी वी. रामचन्द्रन दाखिल हुए। तब सुबह के 10 भी नहीं बजे थे। थोड़ी देर में ही वी.आर. उनके कमरे से चले गए। उस समय तक प्रधानमंत्री दफ़्तर नहीं पहुँची थीं। पीएमएस में व्याप्त बेचैनी साफ़ दिखाई दे रही थी।
उस दिन यानी 12 जून, 1975 की सुबह के इस असमंजस भरे समय को बी.एन. टंडन ने अपनी डायरी में कुछ यूँ दर्ज किया :
“...हम उम्मीद कर रहे थे कि 10:15 बजे तक फ़ैसला आएगा। दस बजे से थोड़ा पहले वी.आर. मेरे कमरे से चले गए। उन्होंने मुझे 10:30 बजे फोन किया और बताया कि कोर्ट ने पीएम के ख़िलाफ़ फ़ैसला दिया है, लेकिन हम खबर की पुष्टि कर रहे हैं। मैं तुरन्त ही पीटीआई और यूएनआई के प्रिंटरों की ओर लपका, जो कि मेरे और वी.आर. के कमरों के बीच में रखे हुए थे। मैंने पढ़ा कि जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने पीएम के निर्वाचन को निरस्त कर दिया है और उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को सही माना है। उन्होंने उन्हें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के खंड 123(7) के तहत छह सालों तक चुनाव लड़ने से प्रतिबन्धित कर दिया ।…”
हालाँकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले पर 20 दिनों की रोक लगा दी थी और इन्दिरा गांधी के पास सुप्रीम कोर्ट जाने का अवसर था। इसके बावजूद स्वतंत्र भारत में किसी प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ आए इस तरह के पहले फ़ैसले से मानो भूचाल आ गया। डी. पी. धर के निधन के बाद यह दूसरा झटका इन्दिरा के लिए मानो काफ़ी नहीं था। 12 जून, 1975 की शाम तक एक और बुरी खबर उनका इन्तजार कर रही थी। उस दिन दोपहर बाद से गुजरात विधानसभा के मध्यावधि चुनाव के नतीजे भी आने शुरू हो गए थे, जिनमें विपक्षी दलों के गठबन्धन जनता मोर्चा ने कांग्रेस को पराजित कर दिया था।
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जस्टिस सिन्हा ने यह फ़ैसला समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर दिया था, जिन्हें 1971 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली से इन्दिरा गांधी ने एक लाख से अधिक मतों से परास्त किया था। चुनाव नतीजे 10 मार्च, 1971 को आए थे और राजनारायण ने 24 अप्रैल, 1971 को हाईकोर्ट में इन्दिरा के निर्वाचन को चुनौती दे दी थी। राजनारायण ने अपनी याचिका में इन्दिरा पर भ्रष्टाचार और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग सहित कई गम्भीर आरोप लगाए थे। इनमें भारतीय वायुसेना के विमान और सरकारी हेलीकॉप्टर के दुरुपयोग के भी आरोप शामिल थे।
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इस फ़ैसले ने जवाहरलाल नेहरू जैसे क़द्दावर नेता की बेटी इन्दिरा को क़ानूनी, नैतिक और राजनीतिक उलझन में डाल दिया था। क़ानूनी रूप से देखें, तो उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 20 दिन की मोहलत दे दी थी और वह सुप्रीम कोर्ट जा रही थीं। नैतिकता का तक़ाज़ा था कि उन्हें इस फ़ैसले का अन्तिम रूप से निपटारा होने तक प्रधानमंत्री पद छोड़ देना चाहिए और उनकी राजनीतिक उलझन यह थी कि उसी दिन आए गुजरात विधानसभा के उपचुनाव के नतीजे दिखा रहे थे कि उनके ख़िलाफ़ विपक्षी दल कैसे एकजुट और मजबूत हो रहे हैं।
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24 जून, 1975 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी. आर. कृष्ण अय्यर ने कुछ शर्तों के साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले पर स्थगन दे दिया। कोर्ट ने कहा कि वह लोकसभा की सदस्य बनी रहेंगी, लेकिन वह अपील पर अन्तिम निपटारे तक संसद में वोट नहीं डाल सकेंगी। इस तरह इन्दिरा को पद पर बने रहने का एक क़ानूनी आधार मिल गया।
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