‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ की सूत्रधार मेधा पाटेकर पिछले करीब एक हफ्ते से सरदार सरोवर परियोजना के डूब प्रभावित लोगों के पुनर्वास और उनकी मूलभूत सुविधाओं के लिए अनशन पर हैं। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, नन्दिनी ओझा की किताब ‘संघर्ष नर्मदा’ के कुछ अंश जिसमें इस आंदोलन के मुख्य कार्यकर्ता रहे केशवभाई वसावे के साथ लेखक की बातचीत है।
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1994 के बाद जब भोपाल का सत्याग्रह खत्म हुआ, तब सही क्या है और गलत क्या है, यह दुनिया के सामने लाने के लिए लोक निवाड़ा (लोक-अदालत) के तहत कई अलग-अलग समितियाँ बनाई गईं। यह बात दुनिया के सामने लाई गई कि सरकार कह रही है कि सबका पुनर्वास हो चुका है, लेकिन हजारों की संख्या में परिवार अब भी नर्मदा किनारे रह रहे हैं। लोग अपने हक के लिए लड़ाई लड़ रहे थे, पुनर्वास का विरोध कर रहे थे, इसी कारण लाठी चार्ज सहना पड़ा, जेल भी जाना पड़ा। हमने कई-कई बार अर्जी दी कि गाँव में हमें रोजगार गारंटी के तहत काम मिले, सड़क निर्माण का काम मिले, लेकिन हमें कभी काम नहीं मिला। लेकिन पुनर्वास के नाम पर बुलडोज़र की सहायता से एक महीने के अन्दर गाँवों को जोड़ने वाली सड़कें बन गईं।
समय-समय पर हम सरकार के सामने यह मुद्दा रखते थे कि आदिवासी भाइयों के एक गाँव का पुनर्वास एक ही जगह होना चाहिए। वैसा तो हो नहीं सका। इसलिए जो 5 पुनर्वास स्थल बसाए गए थे वहीं ज्यादा से ज्यादा लोगों को बसाया गया। बाकी लोगों के लिए ज़मीन नहीं है, सिर्फ काग़ज़ पर है। काग़ज़ पर जो जमीन है वह भी एक्स-पार्टें 108 दी गई है, किसी को गुजरात में दी गई और कहीं एक ही जमीन चार या पाँच व्यक्तियों को दे दी गई। लोक अदालत या टास्क फोर्स के सर्वे ने दुनिया के सामने यह साफ कर दिया कि कई हजार लोगों का पुनर्वास होना बाकी था। लोगों को बिना बताए ही गोपालपुर-जैसे गाँव में पुनर्वास स्थल खोल दिया गया। वहाँ की जमीन कानूनी प्रक्रिया के तहत खरीदे बगैर ही लोगों को दिखाई गई और उन्हें गुमराह किया गया। तब सरकार के सामने कई शिकायतें पेश करके आदिवासियों को ज़मीन दिलाने की प्रक्रिया आन्दोलन ने हाथ में ली।
जो पुनर्वास स्थल थे उनमें तो सारे बस नहीं पाएँगे, ऐसा सोचकर बिना किसी से पूछे तरावद-जैसे गाँव में पुनर्वास स्थल घोषित कर दिया गया। कलेक्टर कहता था, “यहाँ की ज़मीन अच्छी है। यह ले लो। 5 मिनट में बताओ कौन सी जमीन पसन्द आई, नहीं तो और कोई जमीन नहीं मिलेगी।”
उस कलेक्टर से हम बार-बार कहते रहे, “साहब, यह हमारी जिन्दगी का सवाल है, हम 5 मिनट में जवाब नहीं दे सकते। 5 दिन के बाद जवाब देंगे।” इस पर साहब को गुस्सा आ जाता था। गन्दी गालियाँ देते थे वे, लेकिन उनको भी मुख्यमंत्री को जवाब देना पड़ा। वाड़ी-जावदा गाँव के पुनर्वास स्थल के बारे में हमने जाहिर कर दिया था, “यहाँ गाँव नहीं बस सकता, यहाँ बहुत सारी समस्याएँ हैं, यहाँ की जमीन उपजाऊ नहीं है, इस वजह से इस स्थल को खारिज कर दें।” आखिर बहला-फुसला कर कई सारे आदिवासियों को यह जमीन देकर यहाँ लाया गया। आज पूरी दुनिया के सामने यह गाँव हर साल पानी में डूब जाता है। उस जमीन पर कोई फसल नहीं होती, खारी जमीन दी गई है ऐसे कह कर वही लोग आज उसे ऊँची आवाज में कोस रहे हैं।
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डोमखेड़ी में सत्याग्रह चला। नारा था— ‘डूबेंगे लेकिन हटेंगे नहीं।’ डोमखेड़ी के सत्याग्रह के दौरान जब डूब आई थी तब दो नाव भरकर पुलिस आई थी। हमने उनको बिलकुल नजदीक नहीं आने दिया। अड़तालीस घंटों तक लोग पानी में खड़े थे। ठोड़ी तक पानी आ गया। समझ में नहीं आ रहा था। बेशर्म सरकार नहीं सुन रही है, फिर भी मेधा दीदी को नहीं मरने देना हमारा कर्तव्य था। इसीलिए वहाँ हमने ऐसा निर्णय लिया किसी को पता नहीं चलने दिया।
वहाँ पुलिस कैम्प था— वहाँ की सब पुलिस नदी किनारे ही थी। डोमखेड़ी सत्याग्रह में बहुत लोग थे। इसलिए यह चिन्ता थी कि इन्हें सुरक्षित कैसे निकाला जाए। पुलिसवाले भी घबरा गए थे। कलेक्टर भी बिलकुल घबरा गए थे। फिर बाद में, मैंने ऐन वक्त पर ऐसा निर्णय लिया, उल्या पाटील को बीच में घुसवाया। सबसे नीचे पानी में मेरी पत्नी थी। बाकी सब थोड़ी ऊँचाई पर थे। मुझ पर भी बहुत चिन्ता का बोझ था! सब लोग तो पानी में घर के अन्दर एक-दूसरे को पकड़कर खड़े थे। थोड़ा और पानी बढ़ता—एक भी लहर आ जाती तो सब-के-सब मर जाते डूब कर। ऐसी स्थिति आ गई थी। इसलिए मैंने उल्या पाटील को कहा— उनकी खेती पुलिस कैम्प के पास थी— “तुम जाओगे तो जो पुलिस वाले अब गए हैं, वे दौड़कर आएँगे पूछने के लिए। वे पूछें तभी जवाब देना, दूसरी कुछ भी बात मत करना। तुरन्त चल पड़ो। अभी के अभी जाओ।” ऐसा कह कर उन्हें उनके खेत पर भेज दिया। “वहाँ जाकर हाँ-हाँ हाँ-हाँ करना—जैसे चिड़ियों को उड़ाते समय करते हो।” उनकी आवाज सुनकर पुलिस दौड़कर उनके पास पहुँची।
“क्यों रे पाटील, उधर कितना पानी चढ़ गया है?”
“अब तक तो मुँह तक आ गया होगा। मैं उधर ही था। अभी आया हूँ यहाँ।”
“पता नहीं क्या करना चाहिए,” ऐसा बोल रही थी पुलिस।
पाटील ने उनसे कहा, “मेधाबाई अगर मर गईं तो समझ लो आप में से एक भी यहाँ से ज़िन्दा वापस नहीं जा सकेगा। तुम्हें भी डुबो देंगे।”
उसके बाद बड़े जोरों से धुलिया, धड़गाँव, मुम्बई वायरलेस होती रही। पुलिस ने कुमक मँगवाई। दो नाव भर कर बहुत बड़ी संख्या में पुलिस आ पहुँची। फिर हम लोग वहाँ से गायब हो गए। मैं झाड़ी में घुस गया। हम मुख्य लोग लड़ने के लिए वहाँ मौजूद नहीं थे। उस कारण बाकी लोगों को थोड़ी कमज़ोरी महसूस हो रही थी। लेकिन महिलाएँ बहुत बहादुर थीं। पुलिस को उन औरतों को घर में घुसकर बाहर निकालना पड़ा। नाव में डालकर उन्हें धड़गाँव पहुँचाया गया। हम लोगों को 15 दिन की जेल हुई, जो हमने धुलिया जेल में काटी। बाहर उन 15 दिनों में हमें उसका बड़ा मुद्दा बनाना पड़ा। उन 15 दिनों में डोमखेड़ी में ‘डूबेंगे लेकिन हटेंगे नहीं’ का जो नारा लगाया था वह कामयाब हुआ।
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बाँध की ऊँचाई बढ़ने से नीचे की तरफ जो खेत थे वे डूब जाते थे। और ऊपर की तरफ जो खेत थे हमारे नाम पर नहीं थे। तो 95 से 98 तक सत्याग्रह चलते रहे। 1999 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया। मैं 15 दिन दिल्ली में रहा। वहाँ जो चल रहा था वह एक बहुत बड़ा मजाक था। मुझे शर्म आती थी।
वे सारे अधिकारी तो हमारे जान-पहचान वाले ही थे। नर्मदा विकास विभाग के एक पुनर्वास अधिकारी को मैंने कहा, “क्यों साहब, इतना झूठ बोल कर तुम्हें क्या मिलेगा? अरे भाई, हमारी जिन्दगी बर्बाद करने पर आप लोग क्यों तुले हो? जो सच है वही बताओ! ऐसा सफेद झूठ क्यों बोल रहे हो कि सबका पुनर्वास हो गया है, एक भी नहीं बचा है।”
वहाँ पर हम-जैसे आम इनसान को बोलने की अनुमति नहीं है। हमारी बात रखने वाले वकील शान्ति भूषण और प्रशान्त भूषण हमारी तरफ से जमकर लड़ रहे थे। उनका विरोध हो रहा था। मैंने दो हफ्ते दिल्ली में यह सब देखा। बहुत झूठ बोला जा रहा था। वह सब सुनकर आखिरकार निर्णय हुआ कि 5 मीटर के अन्दर में कितने लोग आते है इसका निर्णय करो, पहले उनका पुनर्वास करो। उसके बाद बाँध की ऊँचाई 5 मीटर बढ़ाओ।
लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। पहले डुबो दिया! तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी गुजरात सरकार ने पालन नहीं किया। निर्णय आन्दोलन के पक्ष में तो था ही नहीं, उनके पक्ष में था, फिर भी उन्होंने उसका पालन नहीं किया! 5 मीटर के अन्दर जो लोग आ रहे थे उनका पहले पुनर्वास करना था, फिर बाँध की ऊँचाई बढ़ानी थी। उसके बिल्कुल उलटा काम किया। सबको बर्बाद कर दिया। अब बाँध का निर्माण 122 मीटर पर फिर से रुक गया है। वह भी इसलिए रुक गया है क्योंकि विरोध में बहुत आवाजें उठ रही हैं। या शायद अब, इसके बाद बाँध के ऊपर गेट बिठाने होंगे, उसके लिए इनके पास पैसा नहीं है, इसलिए रुक गया है।
मेधा दीदी का कहना है कि जो बाकी बचे लोग हैं, उन्हें नर्मदा किनारे ही रहना चाहिए। लेकिन वहाँ भी कुछ मज़ा नहीं रहा है। वहाँ विकास का कोई भी काम होने वाला नहीं है। वहाँ जीना असम्भव है। हमारा कहना यह है कि जो भी थोड़े-से लोग बचे हैं उनका भी पुनर्वास होना चाहिए। क्योंकि कुछ दिनों के बाद वहाँ ऐसी स्थिति होगी कि आधी रात में बोट भरकर चोर आएँगे, और लूट कर चले जाएँगे। अभी तक ऐसा कुछ शुरू नहीं हुआ है। लेकिन आगे ऐसा होगा जरूर। एक-दो परिवार वहाँ नहीं जी सकेंगे। ज़्यादा परिवार होंगे तो ही जी सकेंगे। जंगल तो सब चला गया है? अभी क्या रह गया है वहाँ? झोंपड़ी भी चुरा कर ले जाएँगे वे लोग।
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2002 में बहुत बड़ी डूब आई थी। कलेक्टर भी आ गए। कलेक्टर की चेतावनी को हमने अनदेखा कर दिया। वह निकल गए, तो बाद में पानी तेजी से बढ़ने लगा। मुझे पक्का विश्वास हो गया था कि इस साल खतरा है। अधिकारी आते थे, बोट भी आती थी— बार्ज में पुलिस वाले भी आते थे। लेकिन उनका भी कोई खास उत्साह नहीं था।
दीदी ने मुझे भी पानी में खड़े रहने के लिए कहा था। लेकिन मुझसे खड़ा रहना सहा नहीं जाता। मैंने निर्णय लिया था कि मेरे बदले बाकी लोग रहेंगे, लेकिन मैं बाजू में रहूँगा। मैंने उल्या पाटील को यह चेतावनी भी दी थी कि पानी का खतरा दिख रहा है, क्योंकि पाँच मिनट में कितना पानी चढ़ रहा था वह मैं देख रहा था। यह पानी सब कुछ डुबो देगा। ये घर भी नहीं बचेंगे और वह टीला भी नहीं बचेगा। अब क्या कर सकते हैं? मैं यहाँ से फरार हो जाता हूँ। घर निकल जाता हूँ। इसके बाद जब पानी ठुड्डी तक चढ़ जाएगा तो दीदी को खींच कर बाहर निकालना पड़ेगा। यही आज की जिम्मेदारी होगी। नहीं तो उस साल दीदी बाहर नहीं निकल पातीं! सच कह रहा हूँ। उल्या पाटील ने जैसा कहा गया था वैसा किया। दीदी को खींच कर बाहर निकाला। दूसरा कोई इलाज भी नहीं था!
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