शाकाहार और माँसाहार : क्या किसी एक भोजन पद्धति को अपनाया जा सकता है?

शाकाहार और माँसाहार की बहस इन दिनों राजनीतिक चर्चाओं, भाषणों और विवादों के केंद्र में है। जाहिर है, ऐसे में हमारे मन में यह सवाल उठ सकता है कि क्या इन दोनों में से किसी एक भोजन पद्धति को अपनाया जा सकता है? राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, खानपान की भारतीय संस्कृति पर आधारित लेखों के संकलन ‘सतरंगी दस्तरख़्वान’ का एक लेख जिसमें लेखक-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने ऐतिहासिक और पौराणिक उदाहरणों से इसी सवाल का जबाव ढूँढ़ने की कोशिश की है।

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एक बार एक विद्यार्थी गुरुकुल में पढ़ने जाता है। गुरु अपनी पत्नी को निर्देश देते हैं कि उसे सिर्फ़ चावल और अरंडी का तेल दिया जाए। विद्यार्थी इसे गुरु का आदेश मान भक्त-भाव से ग्रहण करता है। कभी शिकायत नहीं करता, कड़वे स्वाद पर उसका ध्यान नहीं जाता। कई बरस बाद जब वह थोड़ी अनिच्छा जाहिर करता है, गुरु कहते हैं—तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई। तुम अब बाहरी दुनिया में क़दम रख सकते हो।

इस कथा का उल्लेख ए.के. रामानुजन ने हिन्दू समाज की खाद्य-रीतियों पर अपने निबन्ध में किया है। हिन्दू मान्यताओं का अभिन्न अंग प्रतीत होती यह कथा आग्रह करती है कि ब्रह्मचर्य के दौरान स्वाद-इन्द्रियों का शमन आवश्यक है। जरा-सी ढील तमाम इच्छाएँ जगा सकती है, आपको ज्ञान के मार्ग से दूर ले जा सकती है। यह प्रस्तावना कि सादा भोजन अस्तित्व की किसी ऊँची अवस्था पर पहुँचने के लिए अनिवार्य है, उन मिथकों में है जिन्हें तमाम भारतीय अपनी सभ्यता का गुण मानते हैं, जबकि सच्चाई थोड़ी भिन्न है। देश के एक हिस्से में वर्जित भोजन दूसरी जगह बड़े प्रेम से परोसा और खाया जाता है। ऐसे भी गुरुकुल हैं, जिनकी रसोई महकती रहती है।

मैं एक बार असम का विधानसभा चुनाव कवर करने गया था। कई रास्ते बदलते हुए ब्रह्मपुत्र पार कर मैं माजुली पहुँचा, नदी का महान द्वीप जहाँ वैष्णव सम्प्रदाय के कई मध्ययुगीन गुरुकुल और मठ स्थित थे। भिक्षु यहाँ निर्गुण की उपासना करते थे, पुराने ग्रन्थों की नई पांडुलिपियाँ लिखते थे। उन्हें मछली भी बहुत पसन्द थी, जो मथुरा और वृन्दावन जैसे देश के कई दूसरे भागों में वैष्णव उपासकों के लिए एकदम वर्जित थी। माजुली के इस गुरुकुल में मछली रसोई तक सीमित नहीं थी। मछली पूरे मठ में मचलती थी-बड़ी मूर्तियों से लेकर पट्टिकाओं तक। आउनति सत्र नामक एक वैष्णव विहार में मछली के आकार वाली पट्टिका पर असमिया भाषा में एक संस्कृत श्लोक लिखा हुआ था, जिसका अर्थ था: “मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह गलत हो सकता है क्योंकि महाबली भीम भी युद्ध में पराजित हो गए थे।” इसी द्वीप पर प्रोफ़ेसर डम्बरूधर नाथ रहते थे जिन्होंने अपना बचपन ऐसे ही गुरुकुल में बिताया था और जो अब ब्रह्मपुत्र के किनारे निर्मित होने वाले माजुली विश्वविद्यालय के संस्थापक उप-कुलपति थे। उन्होंने बताया कि यह श्लोक कई संस्कृत ग्रन्थों के अन्त में लिखा रहता है। पांडुलिपियों की नकल तैयार करने वाले अनाम लेखक अक्सर इस श्लोक को पांडुलिपि के अन्त में जोड़ दिया करते थे। यह उनकी सम्भावित चूक का विनम्र स्वीकार था कि शायद उन्होंने यह पांडुलिपि लिखते वक़्त कुछ ग़लतियाँ कर दी हों, और ‘मूल’ ग्रन्थ से थोड़ा विचलन हो गया हो।

यही वजह थी कि प्राचीन और मध्यकालीन कृतियों की कोई मान्य पांडुलिपि बहुत कम मिलती थी। अनेक हाथों से गुजरती ये पांडुलिपियाँ आगामी पीढ़ियों तक पहुँचती थीं। महानतम लेखक के लिए भी किसी ग्रन्थ की ‘हूबहू’ पांडुलिपि तैयार करना आसान नहीं था। बोर्खेस ने कहा भी था कि जब आप किसी कृति को ज्यों-का-त्यों लिखते हैं, वह एक नया टेक्स्ट बन जाती है। मुझे लेकिन यह भी लगा कि यह श्लोक उस ग्रन्थ में अनेकार्थता की सम्भावना पैदा करने और उसके पाठ को जटिल बनाने की आख्यायकीय युक्ति भी हो सकती थी। साथ ही यह श्लोक उस ग्रन्थ पर अपनी उँगलियों के निशान छोड़ जाने की उस अज्ञात पांडुलिपि-लेखक की अव्यक्त आकांक्षा का सूचक भी हो सकता था।

विनम्र स्वीकार हो या लेखकीय हस्ताक्षर, किसी ग्रन्थ के अर्थ-बाहुल्य की सम्भावना बतलाते इस श्लोक को वैष्णव भिक्षुओं ने उस इलाक़े की सबसे प्रिय रोहू मछली पर अंकित किया था, जो खुद अनेक विधियों से पकाई जाती थी। इस तरह यह श्लोक ग्रन्थ और भोजन दोनों के मूल स्वभाव का सूचक था। किसी किताब की तरह भोजन के बारे में भी कोई एक निश्चित कथन नहीं हो सकता। न तो भोजन के बारे में कोई एक मान्यता है, न कोई एक मान्य पाक-विधि। आपकी थाली में अगर सिर्फ़ चार चीजें हैं तो तय मानिए कि आपको नहीं मालूम होगा कि कितने महाद्वीपों और महासागरों को पार कर कोई पकवान आपके पास आया है।

 

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कई शताब्दियों बाद अम्बर्तों इको के महान उपन्यास के आख्यायक को जब एक पांडुलिपि मिलती है, वह उसकी नकल उतारते वक़्त अपनी सम्भावित चूक को इसी तरह स्वीकार करता है। ‘द नेम ऑफ़ द रोज़’ में सुअर को पकाने की विधि का विस्तृत वर्णन भी है। अगर हालिया काटे गए सुअरों के खून को अच्छे से फेंटा जाए तो यह जमेगा नहीं। इस ख़ून से बने स्वादिष्ट पकवान ईसाई भिक्षु बड़े चाव से खाते हैं।

संस्कृत ग्रन्थ छप्पन भोग का विशद वर्णन करते हैं, देवता भी स्वाद-रस में डूबते हैं। वाल्मीकि रामायण के एक प्रसंग में अयोध्या से जाते वक़्त राम, सीता और लक्ष्मण नाव से गंगा पार कर रहे हैं। पानी के बीच पहुँचने पर सीता गंगा से वायदा करती हैं कि सुरक्षित वापस लौटने पर वे ‘एक सहस्र घड़े सुरा और मांसयुक्त चावल’ उन्हें अर्पित करेंगी। अनुशासन और सतीत्व की प्रतीक सीता द्वारा गंगा मैया को शराब और मांस अर्पित करते देख अगर आप अचम्भित हों तो उपनिषदों की ओर मुड़ना चाहिए जहाँ अन्न को ब्रह्म कहा गया है। रामानुजन की कथा में निहित मान्यता पर प्रश्न करने के बाद हम दो प्रस्तावनाएँ दे सकते हैं। पहली, अपने प्रियजनों के लिए खाना बनाना साधना से कम नहीं। जब हवा में उठती मसालों की गन्ध आँच पर रखे बर्तनों से उमड़ती भाप को छूती है, आपकी तमाम बेचैनियाँ बेहतरीन पकवान से हासिल सुख में घुल जाती हैं। दूसरे, अच्छा भोजन आपको गहरा आनन्द दे सकता है। कुछ चीजें कामोत्तेजना जगाती हैं, और कई बार बहुत साधारण चीज़ भी कामुक अनुभव दे सकती है। हम फिर से पूर्वी सभ्यता की एक कृति की ओर मुड़ सकते हैं, जापानी फ़िल्म ‘टेम्पोपो’ जो भोजन-रस का रोमांचक वर्णन करती है। 

एक विलक्षण दृश्य में नायक नायिका को एक हल्के उबले अंडे की पीली जर्दी खिलाता है और वह कामुकता के चरम को छू लेती है। वह जर्दी को अपने मुँह में लेकर नायिका के मुँह के भीतर कुछ ऐसी नजाकत से ठहरा देता है कि यह ज़र्दी लिंग का प्रतीक बन जाती है। वह इसे पूरी तरह नहीं निगलती, पीले गोले को अपने मुँह में फिराती है और उत्तेजना और मदहोशी के सागर में डूबती जाती है।

ग़ौर करें, कामसूत्र में वर्णित चौंसठ कलाओं में विभिन्न प्रकार के व्यंजन और पेय बनाने की कला शामिल है।

मेरी फ्रेंच मित्र जूडिथ मिसराही बराक ने मुझे हाल ही एक अन्य फ़िल्म ‘बेबेटेज फ़ीस्ट’ (बेबेटे का भोज) के बारे में याद दिलाया था। भोजन के सुख पर बनी यह फ़िल्म दो वृद्ध साध्वियों की कथा है जो उन्नीसवीं सदी के डेनमार्क में एक प्रोटेस्टेंट समुदाय में रहती हैं। वे अनुशासित जीवन जीती हैं, सादा भोजन करती हैं और किसी भी क़िस्म के आनन्द को पाप मानती हैं। उन्हें लगता है कि अनुशासन और संयम से ही पाप से मुक्ति सम्भव है— वे पाप जिनके बारे में हमें कभी पता नहीं चलता, इसलिए वे उनकी ख़याली उपज प्रतीत होते हैं। एक दिन बाहरी दुनिया की निवासी बेबेटे उनके पास आती है। वह पेरिस में हो रही हिंसा से बचती-भागती वहाँ आ गई है। वह बहनों से शरण माँगती है जिसके एवज में वह उनकी सेवा किया करेगी। दोनों बहनें शुरुआत में उसे हिचकते हुए अनुमति देती हैं, लेकिन बेबेटे जल्द ही उनकी प्रिय बन जाती है।

कई साल बाद वह एक लॉटरी जीतती है जिसकी रक़म से वह पेरिस वापस लौट सकती है। जाने से पहले वह इस समुदाय का आभार व्यक्त करना चाहती है लेकिन वह आभार जताने का सिर्फ़ एक तरीक़ा जानती है—वृहद भोज। वह लॉटरी की राशि इस भोज में खर्च कर देती है। पकवान बनते देखकर वृद्ध स्त्रियाँ शुरू में असहज होती हैं, इसे पतन का प्रतीक मानती हैं। लेकिन जब वे धीरे-धीरे कौर तोड़ती हैं, खाना शुरू करती हैं, उनका शक दूर हो जाता है और वे अनजान रहे आए इस सुख का साक्षात्कार करती हैं। यह महाभोज आध्यात्मिक ऊँचाइयों पर पहुँच जाता है, साध्वियों की देह और आत्मा को तृप्त करता है और खाने की मेज़ मुक्ति का स्थल बन जाती है।

 

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