Uttar Himalay-Charit

Translator: Hans Kumar Tiwari
Edition: 2020, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
As low as ₹315.00 Regular Price ₹350.00
10% Off
In stock
SKU
Uttar Himalay-Charit
- +
Share:

सृजनशील रचनाकार उच्चकोटि का यायावर या घुमक्कड़ भी हो, ऐसा संयोग प्राय: दुर्लभ होता है, और जब होता है तो उसकी प्रतिभा अविस्मरणीय कृतियों को जन्म देती है। प्रस्तुत पुस्तक ऐसी ही एक असामान्य और अविस्मरणीय कृति है, जिसमें बांग्ला के सुख्यात यायावर-कथाकार प्रबोध कुमार सान्याल ने अपनी उत्तर हिमालय-यात्रा का रोचक, रोमांचक और कलात्मक विवरण प्रस्तुत किया है।

इस यात्रा-कथा में उत्तरी हिमालय-मेरुदंड के उन दुर्गम अंचलों की दृश्य-छवियों को शब्दों में उतारा गया है जिनसे हमारा परिचय आज भी नहीं के बराबर है और जहाँ की धूल का स्पर्श बाहरी लोगों ने शताब्दियों के दौरान कभी-कभी ही किया है। महासिन्धु, वितस्ता, विपाशा, शतद्रु, इरावती, कृष्णगंगा, चन्द्रभागा आदि नदियों के उस अनोखे उद्गम प्रदेश में पहाड़ी दर्रों के बीच दौड़ती-उछलती धाराओं के किनारे-किनारे चलता हुआ लेखक जैसे पाठक को भी अपने साथ ले चलता है और दिखाता है बिलकुल निकट से हिमशिखरों की अमल-धवल आकृतियाँ तथा सुनाता है एकान्त वन-प्रान्तर और नीरव मरुघाटियों का मुखर-मौन संगीत। इसी क्रम में वह जब-तब अतीत की गुफाओं में भी ले चलता है या फिर भविष्य की टोह लेने लगता है। समर्थ लेखक इस प्रकार अपनी यात्रा में पाठक को सहभागी ही नहीं, सहभोक्ता बना देता है जो रचनात्मक उपलब्धि का सबसे बड़ा प्रमाण है।

More Information
Language Hindi
Binding Paper Back
Publication Year 2020
Edition Year 2020, Ed. 1st
Pages 344p
Translator Hans Kumar Tiwari
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 20 X 13 X 2
Write Your Own Review
You're reviewing:Uttar Himalay-Charit
Your Rating
Prabodh Kumar Sanyal

Author: Prabodh Kumar Sanyal

प्रबोधकुमार सान्याल

 

प्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार प्रबोधकुमार सान्याल का जन्म 7 जुलाई, 1905 को कोलकाता के चोरबागान में उनके मामा के घर हुआ था। 1937 से 1941 तक वह साहित्यिक पत्रिका ‘युगान्‍तर’ के सम्पादक रहे। ‘स्वदेश’ के सम्पादक रहने के दौरान उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया। उन्होंने ‘बिजली’ और ‘पाडातिक’ का सम्पादन भी किया।

प्रबोधकुमार को यात्राओं का शौक था। अपने घुमक्कड़ स्वभाव के कारण उन्होंने छह बार पूरे भारत की यात्रा की। इसी दौरान वह हिमालय के कई दुर्गम क्षेत्रों तक भी गए। भारत और नेपाल के अलावा उन्होंने एशिया के कई अन्य देशों के साथ-साथ यूरोप, अमेरिका और रशिया की भी यात्राएँ कीं। ‘महाप्रस्थानेर पाथे’ (1937), ‘रसियारडायरी, देब तात्मा’ हिमालय (2 भाग) और ‘उत्तर हिमालय–चरित’  जैसी किताबें लिखकर उन्होंने बांग्ला के यात्रा-साहित्य को समृद्ध किया। उनकी कृति ‘महाप्रस्थानेर पाथे’ ने बहुत प्रसिद्धि पाई। 1960 में उन्होंने कलकत्ता में हिमालयन एसोसिएशन की स्थापना की। 1968 में उन्हें हिमालयन फ़ाउंडेशन का अध्यक्ष बनाया गया। 1978 में वह उत्तरी ध्रुव के रास्ते नॉर्वे गए।

प्रबोधकुमार मुख्यतः ‘कल्लोल युग’ के उपन्यासकार के रूप में जाने जाते हैं। ‘कल्लोल’ के अलावा वे ‘बिजली’, ‘स्वदेश’, ‘दुन्दुभी’, ‘पाडातिक’, ‘फॉरवर्ड’ और ‘बांग्लारकथा’ जैसी पत्रिकाओं के लिए भी नियमित रूप से लिखा करते थे। उनका पहला उपन्यास ‘जाजाबार’ 1928 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद ‘प्रिय बांधबी’ (1931), ‘अग्रगामी’ (1936), ‘आँका–बाँका’ (1939), ‘पुष्पधनु’ (1956), ‘बिबागी भ्रमर’, ‘हासुबानु’, ‘बनहंसी’, ‘कांच काटा हीरे’, ‘निशिपद्मा’  जैसे उपन्यास प्रकाशित हुए। अपने उपन्यासों और कहानियों में उन्होंने स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक सम्बन्धों की तुलना में उनके मानवीय और मैत्रीपूर्ण पक्ष पर अधिक बल दिया है। यात्राओं के प्रति उनके अगाध प्रेम ने उनके लेखन को भी बख़ूबी प्रभावित किया है, इसलिए उनके पात्रों के जीवन में विविधता दिखाई पड़ती है। प्रबोधकुमार अपने पात्रों के जटिल जीवन का चित्रण भी सरल लेकिन प्रभावी भाषा में करते हैं। साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के ‘स्वर्णपदक’; ‘शिशिर कुमार’ और ‘मोतीलाल पुरस्कार’; ‘शरत’ और ‘आनन्‍द पुरस्कार’ जैसे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

17 अप्रैल, 1983 को प्रबोधकुमार का देहावसान हुआ।

Read More
Books by this Author
New Releases
Back to Top