ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘ठाकुर का कुआँ’ एक बार फिर राजनीतिक कारणों से चर्चा में है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनकी ‘सम्पूर्ण कविताएँ’ संग्रह से कुछ कविताएँ जो इसी तरह समाज की क्रूर जातिवादी सच्चाई को उजागर करने के साथ ही सामाजिक असमानता पर कड़े प्रहार करती है।
***
ठाकुर का कुआँ
चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का।
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की।
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गाँव ?
शहर?
देश?
***
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
धकेलकर गाँव से बाहर कर दिया जाये
पानी तक न लेने दिया जाये कुएँ से
दुत्कारा-फटकारा जाये
चिलचिलाती दुपहर में
कहा जाये तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाये खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
मरे जानवर को खींचकर
ले जाने के लिये कहा जाये
और,
कहा जाये ढोने को पूरे परिवार का मैला
पहनने को दी जाए उतरन
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
पुस्तकों से दूर रखा जाये
जाने नहीं दिया जाये
विद्या मन्दिर की चौखट तक
ढिबरी की मन्द रोशनी में
कालिख पुती दीवारों पर
ईसा की तरह टाँग दिया जाये
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
रहने को दिया जाये
फूस का कच्चा घर
वक्त-बेवक्त फूंक कर
जिसे स्वाहा कर दिया जाये
बरसात की रातों में
घुटने-घुटने पानी में
सोने को कहा जाये
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
नदी के तेज बहाव में
उलटा बहना पड़े
दर्द का दरवाजा खोलकर
भूख से जूझना पड़े
भेजना पड़े नयी-नवेली दुल्हन को
पहली रात ठाकुर की हवेली
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
अपने ही देश में नकार दिया जायेगा
मानकर बन्धुआ
छीन लिये जाएँ अधिकार
सभी जला दी जाये समूची सभ्यता तुम्हारी
नोच-नोच कर
फेंक दिए जायें
गौरवमय इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
वोट डालने से रोका जाये
कर दिया जाये लहूलुहान
पीट-पीटकर लोकतन्त्र के नाम पर
कदम-कदम पर
याद दिलाया जाये जाति को ओछापन
दुर्गन्ध भरा हो जीवन
हाथ में पड़ गये हों छाले
फिर भी कहा जाये
खोदो नदी नाले
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
सरेआम बेइज्जत किया जाये
छीन ली जाये संपत्ति तुम्हारी
धर्म के नाम पर
कहा जाये बनने को देवदासी
तुम्हारी स्त्रियों को
करायी जाये उनसे वेश्यावृति
तब तुम क्या करोगे?
साफ-सुथरा रंग तुम्हारा
झुलसकर साँवला पड़ जायेगा
खो जायेगा आँखों का सलोनापन
तब तुम कागज पर
नहीं लिख पाओगे
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्।
देवी-देवताओं के वंशज तुम
हो जाओगे लूले-लँगड़े और अपाहिज
जो जीना पड़ जाये युगों-युगों तक
मेरी तरह?
तब तुम क्या करोगे?
***
[ओमप्रकाश वाल्मीकि की बहुचर्चित आत्मकथा 'जूठन' (भाग एक) (भाग दो) यहाँ से प्राप्त करें।]
वे भयभीत हैं
वे भयभीत हैं
इतने
कि देखते ही कोई किताब
मेरे हाथों में
हो जाते हैं चौकन्ने
बजने लगता है खतरे का सायरन
उनके मस्तिष्क और सीने में
करने लगते हैं एलान
गोलबन्द होने का।
वे भयभीत हैं
इतने कि समझने लगते हैं
आँधी
मेरे उच्छ्वासों को
जो बढ़ रहे हैं लगातार
उनके बन्द किले की ओर
जहाँ सुरक्षित हैं वे
फिर भी भयभीत हैं।
ढूँढ़ना चाहता हूँ मैं
बन्द किताब के पन्नों में
अपनी साँसें
स्याह अक्षर चुप्पी साधे
देख रहे हैं कनखियों से
सन्नाटों में डूबे किले की ओर।
खामोशी मुझे भयभीत नहीं करती।
मैं चाहता हूँ
शब्द चुप्पी तोड़ें
सच को सच
झूठ को झूठ कहें!
***
उन्हें डर है
उन्हें डर है
बंजर धरती का सीना चीर कर
अन्न उगा देने वाले साँवले खुरदरे हाथ
उतनी ही दक्षता से जुट जाएँगे
वर्जित क्षेत्र में भी
जहाँ अभी तक लगा था उनके लिए
नो एंट्री का बोर्ड
वे जानते हैं
यह एक जंग है
जहाँ उनकी हार तय है
एक झूठ के रेतीले दूह की ओट में
खड़े रह कर आखिर कब तक
बचा जा सकता है
बालि के तीक्ष्ण बाणों से
आसमान से बरसते अंगारों में
उनका झुलसना तय है
फिर भी
अपने पुराने तीरों को वे
तेज करने लगे हैं
चौराहों से वे गुजरते हैं
नि:शंक
जानते हैं
सड़कों पर कदम ताल करती
खाकी वर्दी उनकी ही सुरक्षा के लिए तैनात है
आँखों पर काली पट्टी बाँधे
न्यायदेवी जरूरत पड़ने पर
दोहराएगी दसवें मंडल का पुरुषसूक्त
फिर भी,
उन्हें डर है
भविष्य के गर्भ से चीख-चीख कर
बाहर आती हजारों साल की बीभत्सता
जिसे रचा था उनके पुरखों ने
भविष्य निधि की तरह
कहीं उन्हें ही न ले डूबे किसी अँधेरी खाई में
जहाँ से बाहर आने के तमाम रास्ते
स्वयं ही बन्द कर आए थे
सुग्रीव की तरह
वे खड़े हो गए हैं
रास्ता रोक कर
चीख रहे हैं
ऊँची आवाज में
उनके खिलाफ
जो खेतों की मिट्टी की खुशबू से सने हाथों
से खोल रहे हैं दरवाजा
जिसे घेर कर खड़े हैं वे
जिनके सफेद कोट पर खून के धब्बे
कैमरों की तेज रोशनी में भी साफ
दिखाई दे रहे हैं
भीतर मरीजों की कराहटें
घुट कर रह गई हैं
दरवाजे के बाहर
सड़क पर उठते शोर में
उच्चता और योग्यता की तमाम पर्ते
उघड़ने लगी हैं
***
[ओमप्रकाश वाल्मीकि की 'प्रतिनिधि कविताएँ' यहाँ से प्राप्त करें।]
ज्यादा बुरे दिनों के इन्तजार में
जारी था हजारों साल पुराना
प्रवचन
लच्छेदार भाषा में
बखान था
'गोमूत्र' के गुणों का
आयुर्वेद के साक्ष्यों के साथ
मैं चुप था
इसलिए
कि नहीं जानता
आयुर्वेद में क्या लिखा है?
चुप रहना
मेरी विवशता थी
मैं उस रोज भी चुप था
जब सगोत्रीय
युवक-युवती
मारे गए
'ऑनर किलिंग' के नाम पर
यह सच है
कि मैं नहीं जानता
'ऑनर किलिंग' क्या है?
कितनी जायज
और कितनी वैधानिक है?
इसी तरह,
मैं उस रोज भी चुप ही रहा
जब,
'खाप' पंचायतों ने खुलेआम
डंके की चोट पर
ऊँची आवाज में सुनाए थे फैसले—
गोहाना और मिर्चपुर में
'जला कर राख कर दो
इन कमीनों के घरबार
पाँव की जूती सिर उठा कर चलने लगी है'
मुझे विश्वास था—
पुलिस, प्रशासन
न्यायपालिका
प्रधानमन्त्री,
राष्ट्रपति,
चुनाव और मानवाधिकार आयुक्त,
तथाकथित राष्ट्रभक्त,
साहित्य के मठाधीश
चुप नहीं रहेंगे
अफसोस!
उनकी विवशता
मुझसे भी ज्यादा
खतरनाक थी...!
मैं उस रोज भी चुप ही रहा
जब अखबार ने बताया
हजारों टन अनाज
सड़ रहा है
बिना गोदामों के
जबकि,
लाखों लोग
जूझ रहे हैं
कर रहे हैं
आत्महत्या
किसान
भूख से बिलबिलाकर
मैं नहीं जानता
कौन है जिम्मेदार...?
जो घोड़े बेच कर सो रहा है
शायद, यह मुहावरा ही गलत है
लगता है—
कुएँ में भाँग पड़ी है
इसीलिए,
चारों ओर
चल रहे हैं
धार्मिक प्रवचन
बखान रहे हैं
'गोमूत्र' के गुण
आयुर्वेद का साक्ष्य देकर
और,
एक हम हैं
जो चुप हैं
और ज्यादा बुरे दिनों के इन्तजार में!
[ओमप्रकाश वाल्मीकि की सभी किताबें यहाँ से प्राप्त करें।]