मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी : मृणालिनी की गोपन आत्मकथा

रंजन बंद्योपाध्याय के उपन्यास 'मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी : मृणालिनी की गोपन आत्मकथा' की समीक्षा

समीक्षक : तेज प्रकाश

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विगत दिनों मैंने रंजन बंद्योपाध्याय का लिखा उपन्यास ‘मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी’ पढ़ा। अक्सर यह नहीं हो पाता कि मैं किसी पुस्तक को आद्योपांत पढूँ और ले-देकर मात्र दो बैठकों में समाप्त कर दूँ। ज़ाहिर है, श्रेय इस पुस्तक की कथावस्तु और उसके प्रस्तुतिकरण को जाता है।

मृणालिनी देवी का लिखा हुआ कुछ भी प्राप्य नहीं है। वे पत्र तक जो उन्होंने अपने पति को उनके पत्रों के उत्तर में लिखे, संभवतः उनकी चिता पर उन्हीं के साथ आरूढ़ होकर भस्मीभूत हो गए। कुछ तो कहना चाहा होगा मृणालिनी ने अपने दाम्पत्य जीवन, पति रवीन्द्रनाथ के व्यवहार और ठाकुरबाड़ी परिवार के बारे में। इस उपन्यास में उसी अनकही, संभव है विलोपित, आत्मकथा की कल्पना की गई है । तो कुछ रहस्यों के ऊपर से तो पर्दा हटा, यह लगना स्वाभाविक है।

रहस्योद्घाटन, वह भी एक बड़ी विभूति के बारे में, और भी अधिक यदि वह उसके व्यक्तिगत जीवन की बाबत है, चाहे उसमें कल्पना का कितना भी पुट क्यों न हो, अरूचिकर तो नहीं ही लगता, मन एवं नयन प्रकृति से दृश्यरतिक जो होते हैं। किसी को परोक्ष आनन्द की प्राप्ति होती है, किसी की जिज्ञासा शान्त होती है, तो किसी को लगता है कि इतिहास के प्रति कुछ तो न्याय हुआ। इस उपन्यास में बहुत लोगों की रूचि का बहुत कुछ है।

मृणालिनी में रवीन्द्रनाथ की पत्नी होने लायक कोई योग्यता नहीं थी। वह एक बेमेल विवाह था। तभी तो अपने पति से उनका प्रश्न ‘क्यों किया था विवाह, बोलो!’ शुरू से अंत तक एक यक्ष प्रश्न की तरह घूरता रहता है। ज़ाहिर है, ठाकुर ने उनसे कई बार कहा, ‘तुममें किसी प्रकार का रस-बोध नहीं है।’ 

अस्तु बोध-बुद्धि की चमक भी न होनी चाहिए। लेकिन अपनी ज़िन्दगी और अपने पति सहित दूसरे लोगों के बारे में बोध और हिसाब लगाने में पक्की हैं मृणालिनी।

वह जब देखती हैं कि उनके पति अपने मन को खोलकर रख देते हैं अपनी भतीजी इंदिरा उर्फ़ बीबी को लिखी अनगिनत चिट्ठियों में, तो अपने पति से पूछती हैं, जैसे कोई भी पत्नी पूछेगी ही, ‘बीबी के साथ जैसे मन की बात करते हो, मेरे साथ क्यों नहीं करते?’ 

पति का उत्तर काव्यमय तरीक़े से पाकर—‘तुम मुझे समझ नहीं पाते ?’

मृणालिनी की व्यथा इन शब्दों में झलक पड़ती है—‘दूसरों को तो समझ लेती हूँ, सिर्फ़ तुम्हें ही समझ नहीं पाती।’ 

इस पर रवीन्द्रनाथ मृणालिनी की आँखों में देखकर जब कहते हैं—‘कब किसने पूरा का पूरा समझा है इस जग में किसको?’

मृणालिनी के मन में पलती इर्ष्या जाग उठती है। वह मन-ही-मन कहती हैं—‘क्यों, तुम्हारी नोतुन बोउठान नहीं समझती थीं? तुम्हारी लाड़ली भतीजी बीबी नहीं समझ पाती?’ 

स्त्री-मन यह बहुत शीघ्र ताड़ लेता है कि उसके पति की ज़िन्दगी में क्या किसी और का आधिपत्य था उसके हृदय पर या कि अभी भी है! मृणालिनी को इसकी झलक वासरघर (कोहबर) में ही मिल जाती है। विवाह के तीन माह के भीतर नोतुन बोउठान आत्महत्या कर लेती हैं ज़हर खाकर। इसके पहले एक बार और उन्होंने आत्महत्या का प्रयास किया था जब रवीन्द्रनाथ को बैरिस्टर बनने के लिए दूसरी बार जबरन विलायत भेजा जा रहा था, पर उस समय वह बच गई थीं। 

मृणालिनी को पता चलता है कि रवीन्द्रनाथ के मातृहारा होने पर कादम्बरी देवी पहले उनके लिए ममतामई माँ-सी, फिर मित्र और फिर प्रेमाधार रायकिशोरी बन कर उभरी थीं। उनके पति अपनी नोतुन बोउठान से बेहद प्रेम करने लगे थे—वह भी कच्ची उम्र में। वो नहीं चाहती थीं कि उनके प्रिय देवर का विवाह हो। 

पहली बार विलायत से लौटकर रवीन्द्रनाथ ने अपनी नोतुन बोउठान के साथ मिलकर छत पर एक ‘नंदनकानन’ का सृजन किया था जो उनके सम्बन्धों और उनके गोपन प्रेम की घोषणा का उपवन था—

मधुर मिलन

हँसी में मिली है हँसी

नयन से नयन।

उसी ‘नंदनकानन’ में नोतुन बोउठान ने बेली फूलों की माला रवीन्द्र के गले में पहनाने का पागलपन किया था। रवीन्द्रनाथ मृणालिनी से कहते हैं, ‘उन सब दिनों की बातें बहुत याद आती हैं। काश! कि उन सब सुन्दर दिनों को सोने के पिंजरे में बन्द करके रख पाता।’

असली बात तो तब आती है जब मृणालिनी यह पाती हैं कि नोतुन बोउठान मौत के बाद भी कहीं नहीं गई हैं, अदृश्य रूप से उपस्थित हैं—‘अँधेरे बरामदे में खड़े रहकर मैंने महसूस किया कि वह अँधेरे के साथ अशरीरी अन्धकार बन घुली हुई हैं।’ 

काफ़ी नैराश्यपूर्ण जीवन था मृणालिनी का। अपने पति के प्रेम पर एकाधिकार पाने में असफलता, नोतुन बोउठान का अपनी मृत्यु के उपरान्त भी पति की यादों में बने रहना, यायावर गृहस्थी और उसके खर्चों के प्रति पति की नज़रदारी और खिचखिच, चीज़-बतुस और सरंजाम-उपकरण को पति द्वारा अप्रयोजनीय जंजाल समझना, उनका अपने और अपने बच्चों के प्रति व्यवहार, इन सब से बहुत खिन्न रहती थीं मृणालिनी। 

तो एक बार मृणालिनी भी नोतुन बोउठान की भाँति आत्महत्या करना चाहती थीं लेकिन नहीं कर सकी थीं। अपने विक्षिप्त जेठ वीरेन्द्रनाथ के पुत्र बलेन्द्रनाथ ‘बलू’ के रूप में उन्हें एक बन्धु मिला था, वह भी अकाल काल कवलित हो जाता है। 

मृणालिनी गलत को गलत समझती हैं, तमाम शब्दों में कह भले ही न सकें। बलू की विधवा साहाना के पिता द्वारा उसके पुनर्विवाह के प्रयास की खबर पर जब बाबा मोशाय रवीन्द्रनाथ को इलाहाबाद भेजते हैं साहाना को बहला-फुसला कर ठाकुरबाड़ी वापस हाँक लाने के लिए, तो मृणालिनी मन-ही-मन कहती हैं—‘बाबा मोशाय ने तो आजीवन विधवा-विवाह का विरोध किया है। लेकिन तुम्हारा कोई अपना मत न था? तुमने तो मुझसे कितनी बार कहा है कि तुम विधवा-विवाह के पक्षधर हो। तथापि बाबा मोशाय देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सिद्धान्त के प्रतिवाद स्वरूप एक शब्द बोलने का भी साहस तुममें न हुआ!’ 

एक और बात जिससे वह आहत होती हैं, वह है बाबा मोशाय द्वारा अपने उन्मादग्रस्त चौथे पुत्र को बलू की मृत्यु के बाद पैतृक सम्पत्ति से बेदखल करना और रवीन्द्रनाथ का इस मामले में बाबा मोशाय का समर्थन करना। 

रवीन्द्रनाथ अपनी दूसरी बेटी रेणुका का मात्र दस वर्ष की वय में मृणालिनी की इच्छा के विरूद्ध विवाह कर देते हैं, कारण बाबा मोशाय की वसीयत के अनुसार उनके जीवित रहते लड़कियों की शादी करने से खर्चे का प्रायः सब कुछ जोड़ासाँको के खजाने से मिलना था। 

मृणालिनी कहती हैं—‘कितना आश्चर्यजनक हिसाब है।’

यह उपन्यास मृणालिनी की नितान्त व्यक्तिगत वेदना से विदीर्ण जीवन की एक झलक प्रस्तुत करने में सक्षम हुआ है और रवीन्द्रनाथ के कन्धों को उघाड़ने में भी। मृणालिनी के ही शब्दों में—‘मैंने पहचाना है, जाना है एक अलग ही रवीन्द्रनाथ को...मैंने ही देखा है चाँद का पृष्ठतल...।’

अनुवाद बहुत सक्षम बन पड़ा है। यदि कोई हमें यह न बताए कि यह एक बांग्ला से अनूदित पुस्तक है, तो मैं तो यही समझूँगा कि यह एक हिन्दी में लिखित मूल पुस्तक है। भाषा सरल किन्तु पूर्णतया भावोचित है। शब्द तो अनूदित हुए ही हैं, भाव भी अनुवाद की कसौटी पर खरे उतरते हैं। जितनी प्रशंसा मूल कथाकार रंजन बंद्योपाध्याय की करनी चाहिए, अनुवादक शुभ्रा उपाध्याय उससे कम प्रशंसा की पात्र नहीं। यह बांग्ला से हिन्दी में उस कोटि का अनुवाद है जो सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ एवं सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘गोरा’ का किया था।

 

हिन्दी दिवस पर राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा आयोजित लेख प्रतियोगिता में चयनित श्रेष्ठ समीक्षा

 

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