मिर्ज़ा ग़ालिब की डायरी से : तंगी के दिन

मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 के आन्दोलन के सम्बन्ध में अपनी जो रूदाद लिखी है, उसे उन्होंने लगभग डायरी की शक्ल में प्रस्तुत किया है। फ़ारसी भाषा में लिखी गई इस छोटी-सी किताब का नाम है—‘दस्तंबू’। इसमें ग़ालिब ने 11 मई, 1857 से 31 जुलाई, 1857 तक की हलचलों का कवित्वमय वर्णन किया है। साथ ही इसमें ग़ालिब के निजी जीवन की वेदना भी भरी हुई है। आज ग़ालिब की जयन्ती पर राजकमल ब्लॉग में प्रस्तुत है, इस डायरी का एक अंश जिसमें उन्होंने सैनिक विद्रोह के बाद दिल्ली की हलचलों, अपनी आर्थिक तंगी और संकट के समय मदद करनेवाले अपने मित्रों के बारे में बताया है। इस किताब का फ़ारसी से अनुवाद सैयद ऐनुल हसन ने और सम्पादन अब्दुल बिस्मिल्लाह ने किया है।

***

लेखक की आयु के 63 वर्ष बीत चुके हैं। इन भाँति-भाँति की विपत्तियों से ऐसा प्रतीत होता है कि संसार से अब और अधिक जीवन की आशा व्यर्थ है। मैं निस्सहाय, केवल शेख सादी (फारसी का महान कवि, ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दे!) की पक्तियों को दुहराता हूँ। जिस प्रकार एक दुखी मनुष्य दूसरे दुखी मनुष्य से सीख लेता है, ठीक उसी प्रकार अगर मैं इन पंक्तियों को पढ़कर अपने आप को प्रसन्न नहीं कर सकता हूँ तो कम-से-कम दुखों के इस जाल से अपने आपको मुक्त तो कर ही सकता हूँ :

अफ़सोस, हमारी मृत्यु के बाद

इस संसार में बार-बार बसन्त ऋतु आएगी

और फूल खिलेंगे।

तीरदय तथा अर्देबहिश्त के महीने बार-बार आएँगे

लेकिन तब तक हम कब्र की मिट्टी में मिल जाएँगे।

वास्तविकता को छिपाना आज़ाद ख़यालों का काम नहीं। मैं अधूरे मुसलमानों के संस्कारों तथा धार्मिक बन्धनों से मुक्त हूँ। यही नहीं, मैं तो अपनी बदनामी के दुख से भी मुक्त हूँ। सदा से मेरी यही आदत रही है कि रात के समय सिवाय बिलायती शराब के और कुछ नहीं पीता था। और जब नहीं पाता तो मुझे नींद नहीं आती थी। आजकल अंग्रेजी शराब शहर में बहुत महँगी है और मेरे पास पैसा नहीं है। यदि ईश्वर से प्रेम करने वाला, दूसरों पर लुटाने वाला, समुद्र जैसा हृदय रखने वाला महेशदास देशी शराब, जो रंग में विलायती शराब के बराबर और उससे अधिक सुगन्धित है, मेरे लिए भेजकर मेरे हृदय की आग को ठंडा न करते तो मैं जीवित न रहता। मैं इसी प्यास से मर जाता।

बहुत समय से मेरी इच्छा थी कि मुझे असली शराब मिल जाए, मेरी मनोकामना पूरी हो जाए और एक-दो प्याले मेरे होंठों तक पहुँच जाएँ...ज्ञानी महेशदास ने मुझे वह अमृत उपलब्ध करा दिया, जिसे सिकन्दर ने अपने लिए खोजा था।

मैं यह बात कहे बिना नहीं रह सकता कि इस भले स्वभाव के व्यक्ति महेशदास ने नगर में मुसलमानों को बसाने के लिए कोई कसर नहीं उठा रखी थी। चूँकि खुदा की मर्जी नहीं थी, इसलिए वे अपने प्रयत्नों में असफल रहे। यह बात सभी जानते हैं कि दिल्ली शहर में हिन्दुओं का स्वतन्त्रता के साथ रहना दयावान हाकिमों की प्रेम-भावना के कारण ही सम्भव हुआ है। अर्थात् इस भले स्वभाव वाले महेशदास का ही इसमें हाथ रहा है। संक्षेप में यह, कि वह एक भाग्यशाली व्यक्ति है। लोगों के साथ भलाई करता है और सुखपूर्वक अपनी दिनचर्या निबाहता है। यद्यपि मेरी उसकी पुरानी जान-पहचान नहीं है, पर कभी-कभी भेंटवार्ता हो जाती है। कभी वह कोई उपहार भेजकर मुझे कृतज्ञ करता है। फिर भी वह मेरा एक घनिष्ठ साथी है।

मेरे अन्य सम्बन्धियों और शिष्यों में से एक हीरासिंह है जो एक प्रतिष्ठित युवक और सम्बन्धों को ध्यान में रखने वाला व्यक्ति है। वह मेरे पास बराबर आता है और मेरे दुख़ों में कमी करता है। इस आधे आबाद आधे वीरान नगर के लोगों में शिवजी राम और कुलीन ब्राह्मण है। यह एक बुद्धिमान युवक है जो मुझे अपने बेटे की तरह प्रिय है। मुझ जैसे दुखी जोगी को यह बहुत कम अकेला छोड़ता है। वह हर समय मेरी आज्ञा का पालन एवं कार्यों को सरलता से करने का प्रयत्न करता है। उसका लड़का बालमुकुन्द जो एक अच्छे आचरण वाला युवक है और अपने पिता की भाँति आज्ञापालक एवं चौकस है, सदैव दूसरों के दुख बाँटने में लगा रहता है।

मेरे दूर के मित्रों में आकाश के चन्द्रमा की भाँति प्रेममय हरगोपाल तफ्त: भी हैं, जो मेरे पुराने साथी हैं और इसी कारण वे मुझे अपना उस्ताद भी कहते हैं। उनकी सब कविताएँ ईश्वर की देन लगती हैं जो मुझे भी प्रिय हैं। उनकी कविताओं पर मुझे गर्व है। मैं यह कह सकता हूँ कि वे एक सज्जन व्यक्ति हैं। सिर से पैर तक प्रेम एवं मित्रता की भावना से पूर्ण हैं। उनकी कविताओं ने ही उन्हें ख्याति प्रदान की है और उन्हीं के कारण कविता-पाठ के हंगामें रहा करते हैं। मैंने अत्यन्त प्रेम-भावना से उनको अपनी आत्मा का अंग समझ लिया है और उन्हें ''मिर्ज़ा तुफ्त:” की उपाधि दी है। उन्होंने मेरठ से एक हुंडी मेरे नाम भेजी है। साथ ही वह अपनी ग़ज़लें तथा अपने पत्र बराबर भेजते रहते हैं।

ये बातें, जिनका लिखना आवश्यक नहीं था, केवल इसलिए लिख दीं ताकि उनकी मित्रता एवं स्नेह का धन्यवाद कर दूँ। साथ ही इस कारण भी, कि जब यह कहानी मित्रों के बीच दुहराई जाए तो वे समझ लें कि नगर मुसलमानों से खाली हो गया है। रातों को उनके घरों में दीए नहीं जलते और दिन में उनके घरों के झरोखों से धुएँ निकलते हैं। गालिब एक ऐसा व्यक्ति था, नगर में जिसके हज़ारों मित्र थे। हर घर में उसके साथी एवं जानने वाले उपलब्ध थे। परन्तु इस अकेलेपन में कलम के सिवाय उसका कोई समभाषी नहीं है और अपनी परछाईं के अतिरिक्त कोई सम्बन्धी नहीं है।

अब मेरी दशा ऐसी है कि मेरे मुख पर

उस समय तक तेज नहीं आता

जब तक कि मैं अपने मुखड़े को आँसूओं से भिगो न लूँ

मेरे शरीर में दुख एवं पीड़ा ने

आत्मा एवं हृदय का स्थान ग्रहण कर लिया है

मेरे बिस्तर का ताना-बाना काँटों से भर गया है।

अगर इस नगर में ये चारों व्यक्ति न होते तो कोई मेरी कठिनाइयों का गवाह न होता। आकाश के चक्रव्यूह पर ईर्ष्या होती है कि इस लूटमार में, जबकि नगर के किसी घर में मिट्टी तक नहीं बची, यद्यपि मेरा घर लूटमार से बच गया, फिर भी मैं सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मेरे घर में बिस्तर और कपड़ों के अतिरिक्त कुछ बाकी नहीं बचा। इस गम्भीर समस्या और झूठे सच की वास्तविकता यह है कि जिस समय शैतानों (बागियों) ने नगर पर अधिकार पाप्त किया, बेगम ने मुझसे कहे बिना बहुमूल्य वस्तुएँ एवं आभूषण इत्यादि, अर्थात् जो कुछ भी था, चुपके से काले साहब पीरज़ादा के यहाँ भेज दिया। उसे वहाँ भूगर्भ में छिपा दिया गया और दरवाज़ा मिट्टी से पाट दिया गया।

जब विजेता अंग्रेजों ने नगर पर प्रभुत्व स्थापित किया और सिपाहियों को लूटमार की आज्ञा मिल गई तब बेगम ने यह भेद मुझे बताया। समय निकल चुका था। वहाँ तक जाने और सामान लाने की कोई वयस्था नहीं थी। मैं शान्त हो गया और मन को समझा लिया कि ये वस्तुएँ जाने वाली ही थीं। अच्छा हुआ कि ये वस्तुएँ मेरे घर से नहीं गईं।

अब यह जुलाई का पन्द्रहवाँ महीना है। पुरानी पेंशन, जो अंग्रेजी सरकार से मिलती थी, उसके मिलने का कोई साधन नहीं निकला। बिस्तर और कपड़े बेच-बेचकर जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। मानो दूसरे लोग रोटी खाते हैं और मैं कपड़े खाता हूँ। डरता हूँ कि जब सारे कपड़े खा लूँगा तो एक समय वह भी आएगा जब नग्न अवस्था में भूख से मर जाऊँगा।

इस अशान्त वातावरण में पुराने नौकरों में से दो-तीन नौकर मेरे पास से नहीं गए। उनका भी पालन-पोषण करना है। सच्ची बात तो यह है कि मनुष्य, मनुष्य के बिना नहीं रह सकता। नौकर के बिना कोई काम नहीं हो सकता। इन नौकरों के अतिरिक्त दूसरे अभिलाषी जन जो सदैव मुझसे कुछ-न-कुछ लाभ उठाते रहे हैं, इस बुरे समय में भी मुर्गे़ की भाँति असमय ही हृदय विदारक आवाज़ निकाल कर... मेरी आत्मा को दुखी करते हैं और मुझे कष्ट पहुँचाते हैं।

अब जबकि शारीरिक कष्टों के दबाव एवं मानसिक कठिनाइयों के बोझ ने मेरे शरीर और मेरी आत्मा को नष्ट कर दिया है, अचानक मन में विचार आया कि इस खिलौने की साज-सज्जा में कहाँ तक व्यस्त रहूँ? निश्चय ही इस असमंजस का अन्त या तो मृत्यु है या फिर भीख माँगना। एक दृष्टि से इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा कि यह कहानी सदैव के लिए अपने निष्कर्ष से वंचित रहे और पाठकों के मन को पीडि़त करे। दूसरे दृष्टिकोण से यह बात खुलकर लोगों के सामने आएगी कि मैं कुछ गलियों से दुत्कार दिया गया और कुछ दरवाज़ों पर भीख लेने में सफल रहा। बात कहाँ तक दुहराई जा सकती है और अपने आपको कहाँ तक नीचा दिखाया जा सकता है? बाकी पेंशन अगर मिल भी गई तो मन में दर्पण से दुखों की धूल साफ़ न हो सकेगी। और यदि पेंशन न मिली तो दूसरों का उधार चुकता न होगा। ऐसे में शीशा पत्थर से टकरा कर चकनाचूर हो जाएगा। सबसे दुखद बात तो यह है कि दोनों ही प्रकार से दिल्ली नगर से भागना होगा और किसी अन्य नगर में निवास करना होगा। क्योंकि दिल्ली की जलवायु पीड़ित लोगों को भाती नहीं।

 

[मिर्ज़ा ग़ालिब की पुस्तकें यहाँ से प्राप्त करें।]