गगन के साथ : जीवन में बिखरे अर्थ की खोज

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, साहित्य अकादेमी पुरस्कार-2024 से सम्मानित कवि गगन गिल के संस्मरणों की किताब ‘इत्यादि’ पर कथाकार अलका सरावगी की टिप्पणी। 

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गगन गिल (2019) का ‘इत्यादि’ तरह-तरह के अनुभवों, मनस्थितियों और महाकाव्यों के पात्रों के मार्फ़त तमाम जीवन में बिखरे अर्थ को खोजने की यात्रा है।

दुःख, उसके कारण और उससे मुक्ति को समझने की सभ्यता की यात्रा को बूझने का मन हो, तो यह पुस्तक आपको अपने साथ ले चल सकती है। 

इसमें आपको अपने अन्दर उतारने की एक भाषिक पगडंडी है। 

इस स्मृति-आख्यान में पहली स्मृति ‘बदलकर फ़क़ीरों का भेस’ में फ़क़ीरों की ज़रूरत की बात यों की गयी है कि जब तक दुनिया में हमारे झूठ-सच हैं, इसे फ़क़ीरों की लीलाओं की ज़रूरत है। नारद पाखंड का खंडन करनेवाले फ़क़ीर हैं। भले समय बदले, पर मनुष्य होने की घटना और विडम्बना का मापदंड नहीं बदलता। सच्चा फ़क़ीर सामने पड़ जाए, तो आप अपने को देख लें। अपने झूठ-सच को भी। 

गगन गिल की फ़क़ीर के भेस में घूमते शख़्स की तलाश शायद हम सब की तलाश है। ऐसे शख़्स की जो दुनियावी जोड़-तोड़ से परे सच से आँख मिलाने की हिम्मत रखता हो; और पाखंड को पाखंड कह सकता हो। 

है कोई कहीं? 

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गरदन से नीचे अपाहिज एक महिला फ़ोन पर लेखिका को कुछ बताना चाहती है। कुछ माने क्या? कुछ पूछना है।.. अब और सहा नहीं जाता। आत्महत्या कर लूँ?.. 

…हम सबके पास मन है। वह जीने के काम भी आता है, मरने के भी। अभी आप इसे जीने के काम लाएँ…यह दिलासा है शब्दों की। लेखिका की दी हुई छोटा-सी दिलासा। 

हममें जीने की असह चेतना है। 

यह है निष्कर्ष। 

यही पगडंडी है जिसकी बात ऊपर की गयी थी। 

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अब बात जीवन के अंतिम अफ़सोस की। 

‘अनलिखी किताबों का रंज’ में गगन गिल पॉल ऐंगल विश्वप्रसिद्ध इंटरनेशनल आयोवा प्रोग्राम के अध्यक्ष की बतकही में उनका परिचय देती हैं। अपनी शुरुआत पॉल ने एक कवि के रूप में की थी।

दुनिया के हर व्यक्ति को अंत में कुछ करने या न करने का अफ़सोस रहता है। पर एक लेखक का अफ़सोस बस यही है कि उसने वे किताबें नहीं लिखीं जो वह लिख सकता था। वह अपनी पहचान अंततः एक लेखक के रूप में चाहता है, चाहे उसकी प्रसिद्धि इस हद तक हो कि उसका नाम नोबेल शान्ति पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया गया हो। 

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अपनी भाषा के बारे में कोई एक विदेशी से क्या सीख सकता है? लोथार लुत्से हिन्दी से जर्मन में अनुवाद करनेवाले मनीषी हैं। अपने लिखे में लेखक ने एक नामालूम-सा शब्द क्यों चुना, उसके आसपास का कोई दूसरा क्यों नहीं?—लुत्से का यह प्रश्न अपने भीतर की जातीय अस्मिता की परख करने की आँख लेखिका को दे जाता है। 

कोई हमें अपने को देखने की आँख दे, वही तो गुरु है! 

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‘इत्यादि’ स्मृति आख्यान की सबसे दारुण स्मृति है, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 के सिख विरोधी दंगों की। मुझे नहीं लगता कि इसके पहले मैंने इस दौर का ऐसा निजी भयावह अनुभव पढ़ा हो। घर की ऊपरी मंज़िल में छिपकर बैठी चार बहनें और चोटी कर फ़्रॉक पहनाया भाई; पाँच ऐन फ़्रैंक जैसे एक नया रूप धरकर 25 साल की गगन गिल बन जाती है। माँ के देखे 1947 के विभाजन के दंगे स्मृति में ज़िन्दा हो गए हैं…“कैलेंडर से उखड़ी वह तारीख़ वहीं खड़ी मिलती है, इतिहास के चौराहे पर, अपने रक्त में नहायी..”

भयानक यादें हैं, समय के अलग-अलग दौर की। विभाजन के समय माँ का देखा स्तन-कटी नंगी औरतों का जुलूस। बांग्लादेश के मुक्तियुद्ध में औरतों पर हुई बर्बरता। गोधरा में जलते लोग। 2002 में हाथ जोड़कर खड़ा एक बिलबिलाता आदमी। 

सब सह सकता है मनुष्य? 

हम भूल कैसे जाते हैं? 

सवाल ही सवाल हैं। 

लेकिन मरती हुई दादी नहीं भूली। उसको गांधी का मारा जाना याद है। वह उसी देशकाल में लौट विलाप करती गाती है…ओ...गांधी... तू न मरदों... मैं मर जान्दी… उसे कौन समझाए कि गांधी को मरे पचास साल हो गए। 

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सत्रह साल की किशोरी गगन पिता से कहती है… मैं बौद्ध बनना चाहती हूँ। उसे लत है सखियों के बजाय चरित्रों के साथ घूमने की। कभी भीष्म पितामह की शर-शय्या के पास वह खड़ी है, कभी मरते हुए कर्ण के पास, कभी पहली भिक्षा के गंधाते अन्नपात्र को देखते सिद्धार्थ के पास। कथाएँ ही जैसे धर्म हों! हमारी तीन परित्यक्त नायिकाओं-शकुंतला, सीता और यशोधरा में से वह शकुंतला के लिए दुखी है क्योंकि उसके दुःख को किसी ने शब्द नहीं दिए, जबकि सीता के शब्द हम में हाहाकार जगाते हैं और यशोधरा के आँसू का आलोड़न। 

उस लड़की को वह दिखता है जो किसी और को नहीं। अवलोकितेश्वर के आँसुओं से निकाली इक्कीस ताराएँ। उनसे अतीव नज़दीकी और वियोग। देशना लेने दलाई लामा के पास जाती है। दीवार पर उभर आते हैं वे कमरे में। 

रिनपोछे जैसे आत्मस्थ बौद्ध विद्वान का संग साथ, बारह सौ साल पहले हुए शांतिदेव की पुस्तक पढ़ना इस बौद्ध बन गयी लड़की के साथ आप कर सकते हैं। उसके अतींद्रिय अनुभवों, उसके अन्दर गहरे बैठे देवों के उसके बौद्ध बनने पर खो जाने को महसूस करते हुए। चकित होते हुए। विश्वास और अविश्वास के बीच झूलते हुए। 

और अंत में बौद्ध यायावर कृष्णनाथ जी के हवाले से साहित्य पर यह विचार : “केवल साहित्य में यह सम्भव है—खाँचे में जाना-बाहर आना, उससे खेल-खेल करना। ऐन दहलीज़ पर रुके रहना— न भीतर न बाहर। पास देखना और दूर भी।”

जैसे यह भी कोई देशना हो लिखने वालों के लिए। 

लेकिन अंत यहाँ नहीं। अंत है शंख घोष के घर जहाँ रवींद्रनाथ की छाया किसी बुलाई गयी आत्मा की तरह खड़ी है दोनों कवियों के बीच। यही इति का आदि है; लेखक और पाठक का पुनर्जन्म। लिखे और पढ़े गए शब्दों के माध्यम से, जो स्मृति में पुनः पुनः उभर आएँगे।

 

[लेखक की अनुमति से उनकी फ़ेसबुक वॉल से साभार]