अली अनवर की किताब ‘सम्पूर्ण दलित आन्दोलन : पसमान्दा तसव्वुर’ की समीक्षा
समीक्षक : गोविन्द
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विगत लोकसभा चुनाव में मुस्लिमों को ओबीसी, अनुसूचित जाति/जनजाति में अधिसूचित करने या उनकी अलग से श्रेणी बनाने का मुद्दा बहुत सरगर्म रहा। सत्ताधारी भाजपा ने लोकसभा चुनाव में इसे मुख्य मुद्दे के बतौर रखा कि वह धर्म के आधार पर आरक्षण का बंटवारा नहीं होने देंगे। वहीं, दूसरी तरफ़ कांग्रेस, समाजवादी पार्टी सहित अन्य दल इस बात को बार-बार दोहरा रहे थे कि भाजपा आरक्षण खत्म कर देगी। भाजपा आरक्षण को खतरा इस बिन्दु पर मान रही थी कि ‘INDIA गठबंधन’ अगर सत्ता में आता है तो वह मुस्लिम जातियों को भी या तो अलग से आरक्षण देगा या उन्हें भी ओबीसी, अनुसूचित जाति या जनजाति में सम्मिलित करेगा। वहीं, दूसरी तरफ INDIA गठबंधन इस बात से आरक्षण पर आसन्न खतरे की ओर मतदाताओं का ध्यान आकर्षित करना चाहता था कि भाजपा ने विगत वर्षों में आरक्षण की नीतियों पर कई तरह के कुठाराघात किए हैं।
इन दोनों के बरक्स एक प्रश्न था जो बिना किसी चर्चा के रह गया वह था कि यह कौन से मुस्लिम समुदाय या जातियाँ हैं जिन्हें अलग-अलग राज्यों की ओबीसी सूची में शामिल किया गया है? वह क्या करती हैं? कहाँ रहती हैं? उनकी राजनीतिक और सामाजिक स्थिति क्या है? इनके लिए क्या अलग से आरक्षण का प्रावधान किया जा सकता है? क्या इन्हें अनुसूचित जाति-जनजाति के अन्तर्गत सूचीबद्ध किया जा सकता है? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिन पर बगैर चर्चा के ही वह दौर गुजर गया।
हालांकि ऐसा नहीं है कि इन पर चर्चा नहीं हो रही है या नहीं हुई है। विगत दशकों में इस पर महत्वपूर्ण चर्चाएँ हुई हैं। इस विमर्श की निर्मितियों में सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है—अली अनवर का लेखन। अली अनवर ने अपनी किताब ‘मसावत की जंग’ के जरिए ‘पसमान्दा मुस्लिम’ समूहों की एक विस्तृत रूपरेखा सामने रखी। हाल के दिनों में प्रकाशित उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘सम्पूर्ण दलित आन्दोलन पसमान्दा तसव्वुर’ उसका एक विस्तार है।
यह किताब उनकी पिछली किताब से इस मायने में अलग है कि इसका एक भाग विशुद्ध शोध पर आधारित है। यह किताब उन सवालों के जवाब देने का प्रयास करती है जो ऊपर उठाए गये हैं। यह कई मिथकों को तोड़ते हुए यह तर्क विकसित करती है कि छूआछूत और जाति आधारित श्रेणीक्रम इस्लाम के भीतर भी ठीक उसी तरह मौजूद है जैसे कि हिन्दू धर्म में।
दूसरी महत्वपूर्ण बात जो यह किताब सामने रखती है वह है—राजनीतिक दाँव-पेंच के चलते अभी तक दलित मुस्लिम समुदाय को ठीक से सामाजिक और आर्थिक न्याय नहीं मिला है। यह किताब इस मायने में अनूठी है कि यह कई मुस्लिम दलित जातियों के नाम और विवरण उनकी जीवन परिस्थितियों के साथ पाठक के सामने रखती है।
यह किताब अली अनवर द्वारा किए गए सर्वेक्षण पर आधारित है जिसमें गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों तरह के आँकड़ों का संकलन किया गया है। इसके जरिए वे उस जड़ की खोज करते हैं जहाँ से इन समुदायों में वंचना प्रादुर्भूत होती है। सैद्धांतिक रूप से यह माना जाता है कि इस्लाम धर्म के भीतर जाति आधारित श्रेणीक्रम नहीं पाया जाता है। अली अनवर इस सिद्धांत की कड़ी परीक्षा लेते हैं और बताते हैं कि भले ही सैद्धांतिक तौर पर इस्लाम में भेदभाव की अवधारणा नहीं है लेकिन व्यावहारिक तौर पर ऐसा नहीं है। अगर ऐसा न होता तो अशराफ़, अजल़ाफ़ और अरज़ाल़ शब्द की व्युत्पत्ति ही नहीं हुई होती। यह शब्द है तो इस पर आधारित भेदभाव भी जाहिर तौर पर रहेगा ही।
उनका तर्क है कि मुसलमानों की ऐसी कई बिरादरियाँ हैं जो हिन्दुओं की दलित जातियों के समकक्ष हैं। वह निम्नस्तर का जीवन-यापन कर रहीं हैं। उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था न होना इसका मुख्य कारण है। सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोग के द्वारा मुस्लिमों के लिए ‘टोटल आरक्षण’ की सिफारिशों के बरक्स वह तर्क देते हैं कि ऐसा नहीं है कि मुस्लिम सजातीय रूप में पिछड़े या वंचित हैं बल्कि उनकी वंचना और पिछड़ापन विजातीय है। अशराफ़ की तुलना में अरज़ाल़ बहुत पिछड़े हैं। ऐसे में टोटल आरक्षण की अवधारणा से न्याय को सुनिश्चित करना मुश्किल होगा।
अगर टोटल आरक्षण की अवधारणा पर आधारित आरक्षण की व्यवस्था लागू होती है तो इसका लाभ दलित मुस्लिम जातियों को नहीं मिलेगा। इसका दायरा मुस्लिम उच्च जातियों तक ही सिमटकर रह जाएगा। वह यह भी बताने से नहीं चूकते कि हिन्दुत्ववादी समूहों की हिंसा का शिकार यही दलित मुस्लिम जातियाँ होती हैं।
ऐसे में किन जातियों को दलित माना जाय? वे सर्वेक्षण के द्वारा उन जातियों को चिन्हित करते हैं जिनको आरक्षण दिया जाना चाहिए। वह दलित मुस्लिम जातियों को हिन्दू दलित जातियों के साथ सूचीबद्ध करके अनुसूचित जाति का आरक्षण दिए जाने की वकालत इस आधार पर करते हैं कि जब नव बौद्ध और सिखों को अनुसूचित जाति का आरक्षण मिल सकता है तो मुस्लिम और ईसाई दलितों को क्यों नहीं। इस अध्ययन में मुस्लिम धोबी, हलालखोर, बख्शो, पंवरिया, मछुआरा, नालबंद और मुस्लिम नट परिवारों को शामिल किया गया है।
इस सर्वेक्षण से निकलकर जो मुख्य तथ्य सामने आते हैं, वह है—मुस्लिमों के भीतर जाति आधारित भेदभाव और छूआछूत की गहरी जड़ों के साथ जीवन-यापन की कठिन परिस्थितियों, बस्तियों में स्वच्छता और मूलभूत सुविधाओं का अभाव, शिक्षा का निम्न स्तर तथा स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ हैं जो इनके जीवन को नारकीय यातनाओं में परिवर्तित कर देती हैं। ऐसा नहीं है कि वह अपनी वंचना को स्वीकार कर बैठ गए हैं। वह अपनी वंचना के खिलाफ़ मुखर भी हैं।
अली अनवर कर्पूरी ठाकुर द्वारा और बाद में मण्डल आयोग के लागू होने के बाद मुस्लिम दलित जातियों को दिए गए आरक्षण को गरम तवे पर बूँद भर पानी छिड़कने के बराबर मानते हैं। वह आरक्षण में छूआछूत की विशिष्टता पर भी सवाल करते हैं कि आदिवासी समुदायों के भीतर तो छूआछूत नहीं है फिर भी उन्हें अनुसूचित जनजाति के अन्तर्गत अलग से आरक्षण दिया गया। इसका मतलब है कि अनुसूचित जाति या जनजाति घोषित करने का अधिकार केवल छूआछूत नहीं है बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ापन के आधार पर भी अनुसूचित जनजाति के अन्तर्गत आरक्षण दिया जा सकता है।
वह मुस्लिम जाति मेव और मीणा जाति के बीच कई ऐतिहासिक समानताओं पर आधारित तर्क देते हुए उन्हें एक समान जाति मानते हैं। आगे उन्होंने विश्लेषित किया है कि इनका इतिहास मेहनतकशों का इतिहास रहा है। यह सभी जातियाँ लगभग किसी न किसी शिल्प या व्यवसाय से संबंधित रही हैं जिनका शिल्प और व्यवसाय औपनिवेशिक शासन के बाद उत्तरोत्तर कमजोर होता गया। उदारीकरण के बाद तो खत्म ही हो गया। डी. आर. नागराज के शब्दों में कहें तो यह उत्तरोत्तर ‘टेक्नोसाइड समुदाय’ में परिवर्तित होते गए। वर्तमान में यह भारत के सबसे वंचित समूहों में से एक हैं जिन्हें न्याय का इंतज़ार है।
इस किताब के माध्यम से अली अनवर मुस्लिमों के उस संसार से पर्दा हटाते हैं जो नेपथ्य में अदृश्य है। हालांकि इनकी दृश्यता अकादमिक जगत में बढ़ी है लेकिन राजनीतिक रूप से यह अभी भी अदृश्य हैं। अली अनवर की इस विमर्श की निर्मितियों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है लेकिन वह इस दिशा में और भी आगे बढ़ सकते थे। सर्वेक्षण के जरिए उन्होंने जिन आँकड़ों का संकलन किया है उनको और विस्तारित रूप दिया जा सकता था। उन्होंने मुस्लिम दलित जातियों के लोक के भीतर मौजूद आवाज़ों को अनसुना छोड़ दिया है। यह किताब कुछ बिखरी हुई है जिसमें एक तरफ़ जातियाँ हैं और दूसरी तरफ़ अली अनवर। फिर भी यह किताब दलित मुस्लिम जातियों की दृश्यता और हमारी समझ में अभिवृद्धि के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और वर्तमान समय के लिए प्रासंगिक है।
हिन्दी दिवस पर राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा आयोजित लेख प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार से सम्मानित समीक्षा
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