राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, अशोक कुमार पांडेय की किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ का एक अंश
***
30 जनवरी, 1948 की सुबह तीनों (नथूराम गोडसे व उसके साथी) फिर से रिटायरिंग रूम में मिले और वहाँ से साथ नाश्ता करने पहली मंज़िल के एक मांसाहारी होटल में गए। वहाँ एक वेटर ने उन्हें पहचाना जो पहले पूना में काम करता था। वहाँ से लौटकर उन्होंने प्रार्थना सभा में गांधी के क़रीब पहुँचने की योजनाओं पर चर्चा की। एक डर था उन्हें कि अगर सादी वर्दी में पूना के पुलिसवाले लगाए गए होंगे तो वे उन्हें पहचान सकते हैं। लेकिन पुलिस ने इतना नहीं सोचा था। बचने के लिए पहले फ़ोटोग्राफर बनकर जाने की योजना पर विचार किया ताकि उस समय प्रचलित कैमरे के काले कपड़े में नथूराम अपना चेहरा छिपा सके। फिर अचानक नथूराम ने पूछा—और अगर बुरक़ा पहनकर जाऊँ तो? यह आइडिया सबको पसन्द आया और आप्टे तुरन्त भागकर चाँदनी चौक से एक बुरक़ा ले आया।
एक फ़ायदा यह था कि महिलाओं को सभा में सबसे अगली पंक्ति में जगह मिलती थी। लेकिन जब नथूराम ने बुरक़े में चलने की कोशिश की तो उलझकर गिर पड़े और यह योजना भी खटाई में पड़ गई। फ़िलहाल किसी और योजना पर विचार करने की जगह वे बिड़ला मंदिर गए और उसके पीछे जंगल में रिवाल्वर चलाकर देखा। वहाँ से लौटकर वे फिर से रिटायरिंग रूम में गए और वहाँ के बुकिंग क्लर्क सुन्दरीलाल से रिजर्वेशन और चौबीस घंटे बढ़ाने के लिए कहा। सुन्दरीलाल ने इनकार कर दिया और न केवल तुरन्त कमरा ख़ाली करने को कहा बल्कि तब तक उनके दरवाज़े पर खड़ा रहा जब तक वे सामान लेकर निकल न गए। इस तरह एक और गवाह तैयार हो गया।
...
गांधी व्यग्र थे। आज़ादी के बाद भी जैसे उनका सपना पूरा नहीं हुआ था। 29 को उन्होंने कांग्रेस के लिए एक नया संविधान लिखा था। अक्सर इसका प्रचार ऐसे किया जाता है मानो गांधी कांग्रेस को ख़त्म करने की बात कर रहे थे—असल में गांधी उसे लोक सेवक संघ में परिवर्तित कर एक ऐसे संगठन का नव-निर्माण करने की बात कर रहे थे जो धर्मनिरपेक्षता, छुआछूत, लोभ-लालच से मुक्त होकर उन आदर्शों पर चले जो आज़ादी की लड़ाई में लक्ष्य की तरह अपनाए गए थे और यह एक प्रस्ताव था जिस पर अगर वह ज़िन्दा रहते तो चर्चा होती, याद रखा जाना चाहिए कि आख़िर उसी दिन वह नेहरू और पटेल से मिलकर सरकार चलाने को भी कह रहे थे। देश भर से जो ख़बरें आ रही थीं वह उनसे व्यथित थे। मनुबेन उस रात उनके द्वारा पढ़ा गया एक शेर उद्धृत करती हैं—
है बहारे बाग़ दुनिया चन्द रोज़
देख लो जिसका तमाशा चन्द रोज़।
30 की सुबह उन्होंने मनुबेन से एक गुजराती भजन सुनाने के लिए कहा था—
थाके न थाके छताय हो
मानवी न लेजे विसामो
अर्थात् हे मनुष्य! अन्त तक न ज़रा भी न थकना न विश्राम करना। कठोपनिषद् के उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वर्रान्निबोध की अनुगूँज है इसमें।
इस श्लोक का अगला हिस्सा है—
निशिता क्षुरस्य धारा दुरत्यया दुर्गम तत् पथः इति कवयः वदन्ति
यानी ऋषिगण कहते हैं यह रास्ता छुरी की धार पर चलकर उसे पार करने जितना दुर्गम है।
बोधा कवि ने लिखा था—यह प्रेम कौ पंथ कराल महा तरवारि की धार पै धावनौ है।
जीवन भर गांधी प्रेम और अहिंसा का सन्देश लिये अथक इसी धार पर चलते रहे थे।
आज इस धार की एक और व्यंजना थी। शाम को सरदार पटेल से बातचीत तय हुई थी। सरदार और जवाहर के बीच के मतभेदों की ख़बरें विदेशों के अख़बारों में आने लगी थीं। गांधी इसे हर हाल में सुलझाना चाहते थे। चार बजे सरदार अपनी बेटी मणिबेन के साथ आए। वह बोलते रहे और गांधी चरखा चलाते हुए सुनते रहे। साढ़े चार बजे मनुबेन उनका डिनर लेकर आईं। दूध, सब्ज़ियाँ और संतरे की फाँकें। सब सुनने के बाद गांधी ने वह दुहराया जो पिछली मुलाक़ात में कहा था। कैबिनेट में पटेल की उपस्थिति अनिवार्य है। यही बात वह पहले नेहरू से कह चुके थे। नेहरू और पटेल के बीच कोई खाई भारत के लिए विनाशकारी होगी। तय हुआ कि अगले दिन तीनों एक साथ बैठेंगे।
मनुबेन और आभाबेन ठीक पाँच बजे उन्हें प्रार्थना सभा के लिए ले जाने आईं लेकिन दोनों ने कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ समय बाद आभाबेन ने कहा—5.10 हो गए तो दोनों उठे। पटेल घर निकल गए और गांधी हँसी-मज़ाक़ करते प्रार्थना सभा के लिए चले।
...
नथूराम ने अन्तत: उस शाम के लिए ख़ाकी वर्दी चुनी थी। दोपहर तृतीय श्रेणी के वेटिंग रूम में बिताने के बाद पौने चार बजे गोडसे निकलने को तैयार हुआ तो आप्टे ने पूछा—हम भी साथ आएँ? गोडसे ने जवाब दिया—अब यहाँ तक आए हो तो साथ चलो। पहले गोडसे अकेले निकला। आप्टे और करकरे दूसरे ताँगे से आए और भीड़ में घुल-मिल गए।
मनुबेन ने अन्तिम दृश्य लिखा है—
बापू चार सीढ़ियाँ चढ़े और सामने देख नियमानुसार हम लोगों के कंधे से हाथ उठा उन्होंने जनता को प्रणाम किया और आगे बढ़ने लगे। मैं उनकी दाहिनी ओर थी। मेरी ही तरफ़ से एक हृष्ट-पृष्ट युवक, जो ख़ाकी वर्दी पहने और हाथ जोड़े खड़ा था, भीड़ को चीरते हुआ एकदम घुस गया। मैं समझी कि यह बापू के चरण छूना चाहता है। ऐसा रोज़ ही हुआ करता था...मैंने इस आगे आने वाले आदमी को धक्का देते हुए कहा : ‘भाई, बापू को दस मिनट की देर हो गई है, आप क्यों सता रहे हैं?’ लेकिन उसने मुझे इस तरह ज़ोर से धक्का मारा कि मेरे हाँथ से माला, पीकदानी और नोटबुक नीचे गिर गई। जब तक और चीज़ें गिरीं मैं उस आदमी से जूझती ही रही। लेकिन जब माला भी गिर गई, तो उसे उठाने के लिए झुकी। इसी बीच दन-दन...एक के बाद एक तीन गोलियाँ दगीं। अँधेरा छा गया। वातावरण धूमिल हो उठा और गगनभेदी आवाज़ हुई। ‘हे रा—राम। हे—रा कहते हुए बापू मानो पैदल ही छाती खोले चले जा रहे हों। वे हाथ जोड़े हुए थे और तत्काल वैसे ही ज़मीन पर आ गिरे...पहली गोली नाभि के ढाई इंच ऊपर पेट में लगी, दूसरी मध्य रेखा से एक इंच दूर और तीसरी फेफड़े में समा गई थी...अत्यधिक रक्त बहने से चेहरा तो क़रीब दस मिनट में ही सफ़ेद पड़ गया था।
दो दिन पहले अमेरिकी पत्रकार विन्सेंट शीन से उन्होंने कहा था—यह सम्भव है कि मेरी मृत्यु मानवता के लिए मेरे जीवन से अधिक क़ीमती हो।
...
नेहरू और पटेल के बीच के जिन मतभेदों को लेकर गांधी आख़िरी समय तक चिन्तित थे वे भी उनकी मौत से धुँधले पड़ गए थे।
पटेल अभी घर पहुँचे ही थे कि गांधी के सहयोगी ब्रजकिशन दरवाज़े पर मणिबेन को देखकर बदहवास चिल्लाए—सरदार कहाँ हैं? बापू को गोली मार दी गई। बापू नहीं रहे। पटेल उन्हीं की कार में बैठकर बिड़ला भवन पहुँचे तो गांधी की देह को एक दरी पर लिटाया गया था। कुछ ही मिनट बाद नेहरू पहुँचे तो पटेल की गोद में सिर रखकर फूट-फूटकर रो पड़े।
मनुबेन लिखती हैं—अकेले वे (सरदार) सबको ढाँढस बँधा रहे थे।
कैम्पबेल बताते हैं कि जब अन्तिम दर्शन के लिए बाहर भीड़ बढ़ने लगी तो नेहरू बिना किसी सुरक्षाकर्मी के उस भीड़ को समझाने निकल आए थे। उस रात सरदार और जवाहरलाल, दोनों ने देश को सम्बोधित किया।
2 फ़रवरी की रात पटेल ने नेहरू को एक पत्र लिखकर गांधी हत्या की ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़े का पत्र लिखा। लेकिन वह पत्र डिस्पैच होता उसके पहले ही अगले दिन सुबह जवाहरलाल का पत्र उन तक पहुँचा जिसमें उन्होंने अपने लगाव और मित्रता का हवाला देते हुए लिखा था—
बापू की मृत्यु के साथ हर चीज़ बदल गई है और हमें एक अलग और मुश्किल दुनिया का सामना करना होगा...आपके और मेरे बारे में जो लगातार कानाफूसी और अफ़वाहें चल रही हैं, जिनमें हमारे बीच अगर कोई मतभेद हैं भी तो उन्हें बेहद बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है, मैं उनसे बेहद दुखी हूँ...हमें इस उत्पात को रोकना होगा।
शायद वल्लभभाई को इसी का इंतज़ार था। उन्होंने तुरन्त लिखा—
मुझे यह बात गहरे छू गई है, असल में आपके पत्र के लगाव और स्नेह से आह्लादित हूँ। मैं आप द्वारा बेहद भावपूर्ण ढंग से व्यक्त भावनाओं से पूरी तरह सहमत हूँ...मेरी क़िस्मत थी कि बापू की मृत्यु के पहले उनसे एक घंटे बात करने का अवसर मिला था मुझे...उनका विचार भी हम दोनों को बाँधता है और मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि मैं इसी भाव से अपनी ज़िम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाता रहूँगा।
अगले दिन संविधान सभा में वल्लभभाई ने नेहरू के प्रति अपनी निष्ठा सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित की और उन्हें ‘मेरे नेता’ कहकर सम्बोधित किया। असहमतियाँ नहीं ख़त्म हुईं, गांधी उसके लिए कहते भी नहीं थे, लेकिन जो मनोमालिन्य और दुर्भाव पैदा होने लगा था, वह धुल गया।
लेकिन वह मौत भी गोडसे और उस जैसे लोगों को नहीं बदल पाई थी।
थोड़ी देर तक तो श्मशानी ख़ामोशी रही। फिर जब प्रार्थना सभा में आए लोगों को एहसास हुआ कि क्या अघटित घट गया है तो दुःख और क्षोभ की लहर उठी और लोग पागल होकर हत्यारे के लिए मारो-मारो चीख़ने लगे। एयरफोर्स के सार्जेंट देवराज सिंह ने इसी बीच नथूराम की कलाई मरोड़कर उसे एक घूँसा लगाकर वश में किया तो बिड़ला हाउस के रघु माली ने दबोच लिया। थोड़ी देर तो जनता में बदहवासी फैली रही फिर लोग गांधी के अन्तिम दर्शन के लिए उनके इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगे। लोगों के बीच खुसुर-फुसुर थी कि गांधी को किसी मुसलमान ने मार दिया।
इसी बीच माउंटबेटन वहाँ पहुँचे तो उन्हें यह खुसुर-फुसुर सुनाई दी। वह पलटे और कहा—बेवकूफ़! तुम्हें पता नहीं कि गांधी जी का हत्यारा हिन्दू है? हालाँकि उस समय तक उन्हें भी पता नहीं था लेकिन वह जानते थे कि अगर हत्यारा मुस्लिम हुआ तो देश में भयावह साम्प्रदायिक हिंसा भड़क सकती है।
झूठ बोलना शायद नथूराम के प्रशिक्षण का हिस्सा था। देर तक उसने अपना नाम नहीं बताया और जब बताया तो उम्र 25 वर्ष बताई। वाय.डी. फड़के एक इतिहासकार के रूप में उसकी करतूतों और गवाहियों का आकलन कर लिखते हैं—वह एक दुस्साध्य झूठा था, एक अपराधी। अदालत में उसका आचरण निश्चित रूप से इसका सबूत है।
सरदार पटेल ने 6 मई, 1948 को श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा हिन्दू महासभा के दिग्विजयनाथ सहित कुछ लोगों की रिहाई के माँग पर लिखे पत्र के जवाब में लिखा—
मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि एक संगठन के रूप में हिन्दू महासभा ने वह षड्यंत्र नहीं रचा जिसकी वजह से गांधी जी की हत्या हुई लेकिन इसी के साथ, हम इस तथ्य से आँखें नहीं मूँद सकते कि बड़ी संख्या में हिन्दू महासभा के सदस्यों ने इस त्रासदी पर ख़ुशी मनाई और मिठाइयाँ बाँटीं।
मिथकीय परम्परा में मृत्यु का उत्सव सिर्फ़ पिशाच और शैतान मनाते हैं। मनुष्य तो लाखों की संख्या में उस भीड़ में भरी आँखों से शामिल हुए जो अपने महात्मा की अन्तिम यात्रा में शामिल होने दिल्ली की सड़कों पर उतर आई थी। माउंटबेटन के सचिव ने लिखा—
वह व्यक्ति जिसने किसी अन्य की तुलना में ब्रिटिश राज की विदाई में बड़ी भूमिका निभाई थी, आज अपनी मृत्यु पर जनता का ऐसा सम्मान पा रहा था जिसकी कोई वायसराय कल्पना भी नहीं कर सकता।
सुभाषचन्द्र बोस ने अपनी प्रेमिका एमिली को लिखे एक ख़त में कहा था—भारत एक अजीब देश है। इस देश में सत्ता हासिल करने वालों को नहीं, त्याग करने वालों को सम्मान मिलता है।
गांधी का पूरा जीवन त्याग का एक विराट आख्यान था।
[‘उसने गांधी को क्यों मारा’ पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें।]