अनामिका के उपन्यास ‘आईना साज़’ की समीक्षा
समीक्षक : डॉ. वन्दना
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अनामिका के लेखन से गुजरते हुए लगातार ये अनुभव होता है कि वह आपको धीरे-धीरे तमाम बंधनों से मुक्त करके मानवता के शिखर की ओर ले चलती हैं, जहाँ थोड़ी ऊँचाई पर पहुँच कर ढलान पर स्थित तमाम संरचनाएँ बड़ी साफ़ दिखने लगती है। उनके लेखन में खुली हवा का झोंका अपने साथ तमाम पूर्वाग्रहों को समेट ले जाता है और एक नई ताजगी से भर देता है। प्रकृति के संग-साथ का अनुभव और उसकी विराटता का बोध भी होता है, वो दोस्त बन जाती है। दोस्ती में कोई छोटा-बड़ा थोड़े ही होता है, बस सहभागिता का भाव होता है। अपनत्व का दायरा बढ़ जाता है और उसमें समूची मानवता प्रवेश पा जाती है। यहाँ इस दोस्ती की प्रक्रिया में आपको अपनी पहचान बदलनी नहीं पड़ती और न ही कोई नया लबादा ओढ़ना पड़ता है। आप जो हैं, जैसे हैं, के रूप में स्वीकार्य और स्वागत है। कंधे पर हाथ रखकर, साथ ही हँसते, बोलते-बतियाते आपके सारे दुखम-सुखम को उनकी भाषा में सहजता मिलती है। बाँटने पर तो दुःख साझा और ख़ुशी बढ़ जाती है। लगता है चलो किसी ने सुना तो। फिर तो पीर पिघलने लगती है, उलझी ग्रंथियाँ सुलझने लगती हैं। राहत महसूस होती है और अपने दिल के आईने में स्पष्ट दिखाई देने लगता है।
अनामिका के उपन्यास ‘आईना साज़’ को पढ़ते हुए यह प्रक्रिया बड़ी तीव्र हुई। मन मानो उपन्यास के इतने व्यापक विज़न से जुड़ कर खुद भी विस्तार पाता जाता है। कथानक जटिल भले लगे पर विजन इतना बड़ा है कि इसने उपन्यास को एक नई ऊँचाई प्रदान की है। उपन्यास का शिल्प आकर्षित करता है तो कहीं-कहीं चौंकता भी है। उत्तर-आधुनिक दौर में जीवन जब इतना जटिल है तो उपन्यास भी इस जटिलता को चुनौती की तरह नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप में ग्रहण कर लेता है। कथा दो भागों में बंटी हुई है।
पहले खंड में मध्यकालीन समाज में अमीर खुसरो की आत्मकथा के बहाने उनकी पहेलियों, कव्वालियों के रचनात्मक व्यक्तित्व के पीछे उनके जीवन, दर्शन, परिवार, सूफ़ी परंपरा, स्त्री-पुरुष संबंधों, रूहानियत और धर्मों की एकता एवं उसकी सार्थकता के साथ रची-बसी है। अमीर खुसरो, उनके परिवार, बेटी, पत्नी, बेटे और निज़ाम पिया के साथ बढ़ता कथानक उपन्यास के दूसरे खंड में वर्तमान दौर के किरदारों सपना, नफ़ीस, सिद्धू, ललिता दी, श्यामा जी और सरोज के साथ विस्तार पाता है।
“खुसरो एक पैदा हुआ, मध्यकालीन कहे जानेवाले उस साँवले हिन्दुस्तान में जिसकी छतें ऊँची होती थीं, कि हम बौनों की तिमंजिला बांबियाँ उनमें खड़ी हो जाएँ। यह उस खुसरो की आत्मकथा से रचा हुआ उपन्यास है जिसमें खुसरो की चेतना को जीनेवाले आज के कुछ सूफ़ी मन वालों की कहानी भी साथ में पिरो दी गई है।”(फ्लैप पृष्ठ से)
ऐतिहासिकता को जिस तरह वर्तमान के साथ उपन्यास में जोड़ा गया है, वह इसे और भी प्रभावी बना देता है। वास्तव में तो उपन्यास के दोनों भागों की कहानियाँ अलग-अलग न होकर एक दूसरे के साथ इस तरह जुड़ी हैं कि एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह एक दूसरे को सार्थकता देती है। दोहरे स्तर पर कहानी दो अलग शताब्दियों में गुथी होकर अपने समय के शाश्वत सच बयान कर रही है। अमीर खुसरो और उनसे जुड़े किरदारों का सूफ़ी सिलसिला शुरू होकर इस चेतना को जीने वाले आज के किरदारों की कहानी को बयां करती है।
यहाँ जो समन्वयकारी भाव है, वह पूरे उपन्यास की जान है। उपन्यास की बुनियाद अलग-अलग विचारधाराएँ, धर्म, जाति, लिंग और विभिन्न अस्मिताओं के बीच अपनत्व की धारणा का विस्तार है। यहाँ अलग होने के बावजूद सबको एक जैसा कराने की जल्दबाजी या आग्रह नहीं है बल्कि जो जैसा है उसे उसी रूप में पूरे मन से स्वीकार किया गया है और साथ ही उसकी भिन्नता को भी आदर मिलता है। उपन्यास के केंद्रीय पात्रों के चरित्र को इससे विस्तार मिला है। उपन्यास में आए लगभग सभी पात्र एक-दूसरे से अलग होते हुए भी आपस में जुड़े हुए हैं। उनका यह अलग होना ही उन्हें ख़ास बनाता है। कोई भी दूसरे को बदल कर अपनी तरह करने की तृष्णा से भरा हुआ नहीं है। अपने अपनत्व के दायरे को विस्तृत करके उपन्यास के केंद्रीय पात्रों ने मनुष्यता की पहचान स्थापित की है। उपन्यास में ये सभी प्रमुख पात्र अपने-अपने आईने लेकर चल रहे हैं जिनमें खुदा की झलक है। अपने समय से मुठभेड़ करते हुए ये आईने चटकते नहीं बल्कि रौशनी से भरकर राह दिखाते हैं।
उपन्यास में मध्यकालीन कथा के अंतर्गत अमीर ख़ुसरो की आत्मकथा को बड़े प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है। यहाँ उनकी रचना प्रक्रिया के साथ ही साथ उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं और संबंधों को बड़ी बारीकी से उभारा है। अनामिका ने इसे लिखते हुए उस समय के परिवेश, भाषा और ऐतिहासिक घटनाओं और चरित्रों का जैसा सजीव वर्णन किया है, वह बेजोड़ है। निश्चित तौर पर इसके पीछे उनका गहन अध्ययन, शोध और रचनात्मक क्षमता है। उपन्यास में इसे वह जिस तरह से प्रस्तुत करती हैं, इससे वह गप्प और आख्यायिका की सफल और रोचक द्विवेदी परंपरा की झलक भी देता है।
स्त्री यहाँ केंद्रीय अस्तित्व के साथ विराट विज़न की परिकल्पना के केंद्र में है। अनामिका का कथाकार और कवि मन दोनों एकाकार पाकर जिस संवेदना के साथ स्त्री की अनुभूतियों को उपन्यास में चित्रित हुआ है, वह इसे एक महत्वपूर्ण कृति बनाने के साथ ही साथ बेजोड़ भी बनाते है। अनामिका की स्त्री इन आधुनिक स्त्री की आज़ादी के बाज़ारी फार्मुलेबाज़ी वाली गुलेलों से फेंके जाने वाले दाने से शिकार नहीं बनती। अगर कभी असावधानी में उलझ भी जाए तो फिर खड़ी होकर अपने घावों को सहला अपना इलाज खुद करती है, पर चलना नहीं बंद करती।
उपन्यास में पात्र जहाँ अपना-अपना आईना लेकर अपने समय को दिखा रहे हैं, वहीं उनके भीतर सूफ़ी धुन बहुत गहरे उन्हें संसार की बेचैनी के बीच वृहत्तर विकल्प भी दे रही है, “चैन की बांसुरी होती है तो बेचैनी का भी इकतारा जो कभी वैसा नहीं बजता जैसा कि लेते समय लगता है, वह बजेगा। मोल ले लेने के बाद वह बजता ही रहता है एक अन्यमनस्क-सी धुन में।” (पृ.181)
उपन्यास में कई स्थानों पर अनामिका ने एक ऐसे यूटोपिया का भी निर्माण किया है जहाँ दुखती मानवता के आईने को संवार कर वे आइनासाज़ी करती हैं। लगता है मानो घायल मानवता को एक सूफ़ी कोना मिला है, जहाँ बैठ-सुस्ता कर वह पुनर्जीवित हो जाती है। पुरुष पात्र भी बड़ी मजबूती से इस कोने को संवारने में लगे हैं। असल में अनामिका उपन्यास में लगातार उस नए पुरुष की खोज भी कर रही हैं जो पितृसत्ता से अलग समानता और मानवता के धरातल पर खड़ा हो।
जैसे अमीर ख़ुसरो अपने समय की विभिन्न राज़शाही के बीच अराजक माहौल के बीच भी सूफ़ी मन के साथ अपनी शख़्सियत को शफ्फ़ाक बनाए हुए हैं, वैसे ही आज के माहौल में लेखक उस सूफ़ी तरबीयत और स्त्री-मन को एक करके मानवता को संकट से बचाने और नयी जिजीविषा से भरने का सुन्दर प्रयास करती हैं। उपन्यास की भाषा अनामिका के काव्य मन से ही निकली है जो उसे वैसे ही लय और जीवन की सुन्दर तान पर साधे हुए है। उपन्यास के फ्लैप पर लिखी ये दो पंक्तियाँ उपन्यास की संवेदना और नब्ज़ का बयान कर देती हैं—
ज़िन्दगी एक सूफ़ी सिलसिला इस तरह भी है कि
चिराग़ से चिराग़ रौशन होता है, मशाल से मशाल।
हिन्दी दिवस पर राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा आयोजित लेख प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित समीक्षा
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