हृषीकेश सुलभ की कहानी—‘खुला’

सन् उन्नीस सौ पाँच के साबिक सर्वे सेटलमेंट से बना पकवाघर, कस्बाई इलाक़े के एक मुसलमान परिवार का ठिया है, जहाँ रंग-रंग के लोग रंग-रंग की पीढ़ियों को ठौर मिलता है। वहीं लुबना अपने जीने की मुकम्मल राह तलाशती है, तालीम और हक़ पाने की लड़ाई लड़ती है।

आज जब मुसलमान शक-ओ-शुबहा के घेरे में कर दिये गये हों। इतने कि उन्हें अपने होने और ना होने का भ्रम सताने लगा हो, ऐसे में 2001 में लिखी यह कहानी हवा के ताज़े झोंके की तरह मालूम देती है। लुबना जैसे किरदार ज़ेहन में ताजीवन बस जाते  हैं।

चर्चित कहानी संग्रहों, अग्निलीक और दातापीर जैसे बड़े उपन्यासों के लेखक हृषीकेश सुलभ की अत्यन्त मानीखेज़ कहानी।

—वन्दना राग 

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, कथाकार वन्दना राग द्वारा पाठकों के लिए सुझायी गई हृषीकेश सुलभ की कहानी—‘खुला।’ यह कहानी ‘वसंत के हत्यारे’ संग्रह में संकलित है। 

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सन् उन्नीस सौ पाँच में, जिस साल साबिक़ सर्वे सेटलमेंट हुआ था, पकवाघर की नींव पड़ी थी। इसी सर्वे सेटलमेंट के समय बीवीपट्टी की ज़मींदारी का यह सबसे कमाऊ इलाक़ा बहादुर अली के बेटों के हाथ लगा था। इस बन्दोबस्ती की हसरत लिये बहादुर अली गुज़र गए थे। बहादुर अली अपनी बीवी के साथ, औलाद की चाहत में नंगे-पाँव फ़क़ीर आशा बाबा से दुआ माँगने पहली बार हसनपुर आए थे। फिर तो उनका अपना गाँँव महम्मदपुर छूट गया। फ़क़ीर ने यहीं बसने का हुक्म दिया और वह महम्मदपुर की ज़मीन-जायदाद बेचकर यहीं बस गए। हसनपुर में बसने के साल भर बाद हशमत अली पैदा हुए। फिर ज़ोहरा बानो और हबीब अली की पैदाइश हुई। अपने हिस्से की ज़मीन-जायदाद बेचने के बावजूद बहादुर अली ने महम्मदपुर से रिश्ता क़ायम रखा। उनकी तीनों औलादों की शादियाँ महम्मदपुर में ही हुईं।

बहादुर अली ज़िराअत के लिए दो सौ बीघा काश्तकारी ज़मीन और काफ़ी माल-असबाब छोड़ अल्ला को प्यारे हुए। मरने से पहले उन्होंने हशमत अली और हबीब अली को पास बैठाकर ज़ुबान कुबूलवाया कि वे दोनों हर हाल में बीवीपट्टी से ज़मींदारी की बन्दोबस्ती हासिल करेंगे। अपने अब्बा की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए दोनों बेटों ने काफ़ी जोड़-तोड़ किया। महम्मदपुर के पट्टीदार रिश्तेदारियों के बावजूद हर बार बीच में आ जाते। पर इस बार दोनों ने ऐसी बिसात बिछाई कि महम्मदपुर वाले चित हो गए। मरने के बाद ही सही, पर बहादुर अली का ख़्वाब पूरा हुआ। बन्दोबस्ती मिलते ही हशमत अली ने पकवाघर की नींव रखी।

पकवाघर की तामीर पूरी हुई और हशमत अली ने दूसरी शादी के लिए अपनी मामूज़ाद बहन के नाम पैग़ाम भेजा और दस दिनों में दुलहन की डोली ले आए। पकवाघर में अब तक आईं औरतों में सबसे हसीन औरत थीं जमीला ख़ातून।

इस इलाक़े की सबसे बड़ी बस्ती हसनपुर में उन दिनों सात सौ सत्तासी घर थे। इसमें पक्के ईंटों से बना सिर्फ़ एक घर था—पकवाघर। छतों, बुर्ज़ियों, मेहराबों और मँुडेरों वाला घर। उन दिनों लोग-बाग पैदल चलकर आते थे पकवाघर को देखने। मुहर्रम और फागुनी शिवरात्रि पर लगने वाले मेलों के दिन तो भीड़ लग जाती थी। मेला जाते या मेले से लौटते लोग उचक-उचककर पकवाघर की चहारदीवारी के भीतर झाँकते। काँधे पर बच्चों को बैठाकर उन्हें झँकवाते और भीतर रहनेवालों की ज़िन्दगी की रूपकथाएँ गढ़ते हुए वापस लौटते। 

हशमत अली को तीन बेटे थे। पहली बीवी गौहर ख़ातून से रहमत अली और दूसरी बीवी जमीला ख़ातून से नुसरत अली और फ़रहत अली। हबीब अली की दो बेटे और तीन बेटियाँ थीं। हशमत अली के तीनों बेटों की शादियाँ हबीब की बेटियों से हुईं। हबीब अली के बेटे ज़ोहरा बानो की बेटियों को ब्याहकर हसनपुर ले आए। आज़ादी के समय मुल्क का बँटवारा हुआ और हबीब अली अपने बेटों के परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए। रुपए और ज़ेवरात साथ ले जा सके। बाक़ी सब यहीं छूट गया। वह जाना नहीं चाहते थे, पर बेटों के दबाव में बूढ़ी ज़ुबान हिल नहीं सकी। उसी साल, उनके जाते ही हशमत अली गुज़र गए। हशमत अली के गुज़रते ही उनके बेटों के बीच तनातनी शुरू हो गई। बँटवारा हुआ। सारा माल-असबाब बँटा। काश्तकारी ज़मीन बँटी। ज़मींदारी की साझा वसूली को तीन भागों में बाँटकर सौंपने का ज़िम्मा मुंशी धनुषधारी लाल को सौंपा गया। मुंशीजी पकवाघर के ख़ानदानी कारिन्दा थे। पकवाघर के कमरे पहले ही बँट चुके थे। बावर्चीख़ाना बाक़ी था, सो वह भी बँट गया। हाँ, ऊपर की मंज़िल पर कुछ कमरे और बने। इन नए बने कमरों की सूरत अलग थी। ये कमरे नए ज़रूर थे, पर पकवाघर में पैबन्द की तरह लगते थे।

फिर एक दिन ज़मींदारी चली गई। ज़मींदारी के जाते ही अचानक बहुत कुछ चला गया। जो बचा था, धीरे-धीरे जा रहा था या अपना रंग-रूप बदल रहा था।... पर एक बात बरक़रार रही कि पकवाघर की औरतें पकवाघर में ही पलतीं—फूलतीं-फलतीं और उसी में मुरझाकर दफ़्न हो जातीं। वे चहारदीवारी से बाहर नहीं निकलतीं। वे उतना ही आसमान देखतीं, जितना पकवाघर के ऊपर था। उतनी ही हवा या रोशनी को जानतीं, जितनी चहारदीवारी को पार कर भीतर आती। उनका रंग कभी धूमिल नहीं होता। पकवाघर के ठीक पीछे घेराई था। कई बीघों में फैला बाग़ और चारों तरफ कँटीले तारों का घेरा। इस घेरे के चलते इस बाग़ का नाम पड़ा था—घेराई। इसी घेराई के अंतिम छोर पर था पकवाघर का ख़ानदानी क़ब्रिस्तान। पकवाघर का पीछे वाला दरवाज़ा इसी घेराई में खुलता था। मरने या मार दिए जाने के बाद बिना शोर-शराबे के लाशें आँगन में पहुँचतीं और आँगन से खिसककर घेराई में दफ़्न हो जातीं।

जुआ, रंडीबाज़ी, ठेकेदारी, दलाली, खेती, मुक़दमेबाज़ी और तरह-तरह के उद्यमों-व्यवसायों में लगे पकवाघर के मर्दों और गहने गढ़वातीं-बेचतीं, सारे ज़माने को जूती की नोक पर नचातीं, तूफ़ान की तरह गरजतीं, मेघों की तरह बरसतीं और औरत होने के शाश्वत दुःख में ज़हर खाकर या तिल-तिल गलकर मरतीं औरतों-लड़कियों के हुजूम में लुबना को पहचानना मुश्किल नहीं था। लुबना हशमत अली के सबसे छोटे बेटे फ़रहत अली की पोती और मोहसिन अली की बेटी थी, जो मैट्रिक का इम्तिहान देने के बाद अपने सोलहवें साल की मुसीबतों से जूझ रही थी।

पकवाघर की चहारदीवारी के भीतर ही एक ग़ैरसरकारी मदरसा था। मौलवी ज़हीर बख़्श आते और बरामदे में बैठकर बच्चों को तालीम देते। मौलवी की तालीम पूरी होते ही लड़कियाँ बावर्चीख़ानों में घुस जातीं और लड़के रोज़ी-रोज़गार और ज़मीन—जायदाद से जा लगते। लुबना नाम की पकवाघर की पहली लड़की ने जिस साल मैट्रिक का इम्तिहान दिया, उसी साल मौलवी इंतक़ाल कर गए। बिना बाल—बच्चों वाले रंडुवे ज़हीर बख़्श के गुज़रने के बाद पढ़ाने के लिए सिर्फ़ दाल-रोटी की तनख़्वाह पर किसी मौलवी का मिलना नामुमकिन था, सो मदरसा बंद हो गया। 

लुबना ने अपनी परदादी जमीला ख़ातून का रूप-रंग पाया था। वैसा ही सोने सा दिप-दिप करता रंग, छरहरी देह, तीखे नाक-नक़्श और कमर तक झूलते केश। जिस दिन मैट्रिक का नतीज़ा आना था, लुबना अपने घने बालों के उपचार में व्यस्त थी। बालों में अंडे की सफ़ेदी और हिना लगाए, पकवाघर के नन्हे-मुन्नों की फ़ौज से घिरी बरामदे में बैठी थी। उसे सिर में अंडा लगाते देखकर बच्चे हैरत में थे। उन्होंने सवाल-दर-सवाल दाग़ने शुरू किये, तो लुबना ने सिर के तवे पर पककर तैयार होने वाले आमलेट का बखान किया। बच्चे आमलेट के इंतज़ार में उसे घेरे बैठे थे कि राशिद हाथ में अख़बार का परचम लहराते आँगन में दाखि़ल हुए। लुबना फ़र्स्ट डिविज़न में पास हुई थी। उसके बड़े अब्बा साहेब अली की रखैल की औलाद राशिद और उसकी अम्मी निकहत जहाँ के अलावा बाक़ी लोगों के लिए यह घटना प्रसन्नता का कारण नहीं बन सकी। कुछ लोग उदासीन थे, तो कुछ नाख्शुश कि मोहसिन की लड़की तो पहले से ही नकचढ़ी और बदतमीज़ थी, अब और क़हर बरपाएगी।

राशिद ने दो साल पहले मैट्रिक पास किया था और इन दिनों सीवान के इस्लामिया कॉलेज में पढ़ रहे थे। हसनपुर से सीवान आना-जाना मिलाकर रोज़ लगभग तीस किलोमीटर साइकिल चलाते थे राशिद। वह लुबना से तीन साल बड़े थे। लुबना की पढ़ाई के एकमात्र मददगार दोस्त थे राशिद। 

मुक़दमों की पैरवी के सिलसिले में साहेब अली अक्सर कोर्ट-कचहरी आया—जाया करते थे। इसी कारण शहर में उनकी रातें गुज़रतीं। एक दिन जब वह एक गर्भवती स्त्री के साथ पकवाघर में दाखि़ल हुए, तो सारे लोग भौंचक रह गए। इसके पहले ऐसा नहीं हुआ था। रखैलें थीं, पर पकवाघर की चहारदीवारी से बाहर। लाख समझाया-बुझाया लोगों ने, पर साहेब अली नहीं माने। डटे रहे। बच्चा पैदा हुआ और प्रसूति-गृह में ही साहेब अली की माशूक़ा के प्राण-पखेरू उड़ गए। नसीबोंवाली थी। जाने किस घूरे से उठकर पकवाघर के आँगन में आई और घेराई वाले क़ब्रिस्तान में बस गई। राशिद की क़िस्मत में भी पकवाघर के आँगन में पलना लिखा था, सो वह भी इधर-उधर रेंगते हुए बड़े हुए। जूठन खाकर भी राशिद की देह ने अपने अब्बा की धज पाई थी। बीवी के तानों के बावजूद साहेब अली राशिद पर अपना स्नेह लुटाया करते। आँगन से बाहर अब्बा हुज़ूर की छाँह और आँगन के भीतर नन्ही लुबना की आत्मीयता उनका सहारा थी। जैसे-जैसे दिन गुज़रते गए, लुबना ने राशिद के दुःखों को सहेजना शुरू किया। कभी लोगों की नज़रों से छिपाकर, तो कभी ढीठ की तरह सबकी नज़रों में चुभती हुई वह राशिद को अपनी आत्मीयता से ढँक लेती। 

लुबना के पास होने की ख़ुशी में मीठे ख़ुरमे बँटे। घेराई के सबसे पिछले छोर पर रखवालों के लिए बने और अब खँडहर में तब्दील हो रहे दालान में बैठकर जुआ खेलने से फु़र्सत पाने के बाद हन्नू जब भीतर आए, उन्हें भी यह ख़बर ख़ुरमे के साथ मिली। पहले उनकी अम्मी अंगूरी बेगम ने एक प्लेट में लुबना के यहाँ से आए ख़ुरमे लाकर दिये। उन्होंने ख़ुरमों की तारीफ़ की, तो उनकी अम्मी ने उन्हें कोसना शुरू किया। हन्नू चौकन्ने हुए। हन्नू ने जब मामले को टटोलना शुरू किया, तो पता चला कि उनकी होनेवाली दुलहन ने मैट्रिक पास कर लिया और वह भी फ़र्स्ट डिविज़न में।

हशमत अली के बड़े बेटे रहमत अली के पोते थे हन्नू। हन्नू के अब्बा ज़ाकिर अली की शादी साहेब अली और लुबना के अब्बा मोहसिन अली की इकलौती बहन अंगूरी से हुई थी। लुबना की पैदाइश के बाद अंगूरी बेगम ने अपनी छोटी भावज निकहत जहाँ से उसे अपने बेटे हन्नू के लिए माँग लिया था। पकवाघर में रिश्ते ऐसे ही तय होते थे। 

हन्नू बचपन से ही लुबना पर हक़ जताते और लुबना थी कि राशिद की पूँछ बनी डोलती फिरती। बचपन के दिनों में लुबना की उपेक्षा और हुक्मउदूली से खीजकर हन्नू अक्सर ताव खा जाते। नतीज़तन वह लुबना और राशिद की ठुकाई करते। लुबना को तो उसकी अम्मी के आँचल की छाँह नसीब थी, सो वह जाकर दुबक जाती, पर गाज गिरती राशिद पर। रखैल की औलाद को कौन बचाता? साहेब अली औरत तो थे नहीं कि चौबीसों घंटे जनानख़ाने में बैठकर राशिद की हिफ़ाज़त करते, सो हन्नू की खीज राशिद पर उतरती थी। बाद के दिनों में, जब उम्र थोड़ी और आगे खिसकी, पिटते राशिद के आगे ढाल की तरह तन जाती लुबना और आँखें तरेरकर हन्नू को घूरने लगती। लुबना की आँखों की तेज से घबराकर हन्नू पीछे हटते और खिसक जाते। यह सिलसिला आगे बढ़ता रहा। 

हन्नू ने एक दिन मौलवी ज़हीर बख़्श के सिर पर स्लेट से वार किया और तालीम से रिश्ता तोड़ लिया। उनकी अम्मी अंगूरी बेगम ने मौलवी के सात पुश्तों को गालियों से नवाज़ा। उन्होंने ऐलान किया कि चाहे हन्नू बिना तालीम के रह जाएँ, पर वह ऐसे क़साई मौलवी से अपने बेटे को नहीं पढ़ने देंगी। राशिद और लुबना पढ़ते रहे। आरम्भिक तालीम पूरी होने के बाद राशिद की ज़िद पर साहेब अली उनकी अँगुली थामे कोस भर दूर के हाई स्कूल में पहुँचे। राशिद का चौथी में दाखि़ला हुआ। राशिद की क़िताबें और तालीम लुबना के काम आईं। उनके पीछे-पीछे लुबना ने प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में मैट्रिक तक का सफ़र तय किया और हन्नू अपने ख़ानदान की रवायत के मुताबिक़ फूलते-फलते रहे। 

लुबना के पास होने की ख़ुशी में ख़ुरमे पहले ही बँट चुके थे। रात में उसकी अम्मी ने मीठी फ़िरनी पकाई। हाथ में फ़िरनी से भरा कटोरा लिये राशिद को ढूँढ़ती फिर रही थी लुबना। छत के पिछले हिस्से पर एक सुनसान कोना था, जिसकी मुँड़ेर घेराई की तरफ़ खुलती थी। राशिद इसी मुँडेर पर बैठे क़ब्रिस्तान की घास-फूस की झुरमुटों में छिपी अपनी अम्मी की क़ब्र निहार रहे थे। यह जगह राशिद को बहुत प्रिय थी। बचपन से ही वह अपना निचाट एकांत यहीं जीते थे। यहाँ बैठे-बैठे उनका एकांत इतना व्यापक हो जाता कि उसकी पीड़ा सुख में बदल जाती। इसी एकांत के बल पर राशिद ने अपने बचपन की यातनाओं को काट लिया था। अब राशिद के सामने थीं यौवन के बसंत की उदासियाँ। ये उदासियाँ राशिद को परेशान करतीं। उनके भीतर लालसाओं के बीज बो देतीं। इन लालसाओं से मुक्ति के लिए राशिद यहीं बैठे-बैठे अपने एकांत में डूबते-उतराते अपनी अम्मी की क़ब्र निहारते, और अपने लिए ताक़त बटोरते।

राशिद को लुबना के पाँवों की आहट तक नहीं मिली। बिलकुल पास आकर जब उसने फ़िरनी से भरा कटोरा आँखों के सामने किया, राशिद की एकाग्रता टूटी। राशिद ने लुबना को निहारा। लुबना के चेहरे पर चमक थी। आँखें किसी ज्योतिपुंज की तरह दीप्त...और सिर से पाँव तक आत्मप्रस्फुटन के गरिमामय क्षणों के आध्ाद से भरी थी लुबना। राशिद को लगा, जैसे लुबना उसके रक्त में घुलती जा रही है। राशिद को इस तरह एकटक निहारते पाकर लुबना सिहर उठी। यह अनजान सिहरन पहली बार उसके मन-प्राण पर छा गई। 

राशिद ने लुबना का हाथ थामा और पास बैठा लिया। लुबना को लगा, राशिद उसका हाथ थामे उसे जल के भीतर अतल गहराई में लिये जा रहे हों। उसके मन में भय नहीं था। आश्वस्ति थी। अतल गहराई में उतरते हुए राशिद की हथेलियों की पकड़ का सम्बल था लुबना के पास। 

कुछ देर मौन रहा। लुबना ने अपने हाथों चममच से राशिद को फ़िरनी खिलाना शुरू किया। राशिद खाते रहे। धीरे-धीरे कटोरे की फ़िरनी ख़त्म हुई।

मोहसिन अली को खाना खिलाते हुए दूसरे दिन की दोपहर जब निकहत जहाँ ने कॉलेज में लुबना के दाखि़ले का ज़िक्र छेड़ा, तो बवंडर उठ गया। मोहसिन अली ने थाली से हाथ खींचा और जूठे हाथ एक झन्नाटेदार तमाचा निकहत जहाँ के गाल पर जड़ दिया। उठे और थाली को लात मारते हुए हाथ धोने चले गए। थाली झनझनाती हुई आँगन में जाकर गिरी और पकवाघर में बिना फैलाए ख़बर फैल गई।

तमाचे खाना निकहत जहाँ के लिए कोई नई बात नहीं थी। वह पिछले पच्चीस सालों से पिट रही थीं। लुबना की तालीम के सिलसिले में अपनी ज़िद को लेकर वह पहले भी कई बार पिट चुकी थीं। इसके अलावा भी पिटने के कारण थे। मोहसिन अली की कहानियाँ पकवाघर की चहारदीवारी पार कर भीतर आतीं और आदतन निकहत जहाँ उनसे कभी कुछ पूछ बैठतीं, तो इस तरह पिटतीं कि गोरी देह पर उभरे नील हफ़्ता-दस दिनों तक टीसते रहते।

कॉलेज की पढ़ाई के लिए लुबना के शहर जाने की चर्चा पकवाघर में शुरू हो चुकी थी। सुबह-सुबह अंगूरी बेगम और निकहत जहाँ के बीच बातचीत हुई। अंगूरी बेगम ने निकाह की तारीख़ तय करने को कहा, तो निकहत जहाँ ने साफ़—साफ़ नकार दिया—‘‘नहीं, अभी नहीं। अभी तो लुबना का सोलहवाँ साल चल रहा है। इतनी कम उम्र में...’’

अंगूरी बेगम तड़क उठीं—‘‘अयहय! कौन उसे डोली चढ़कर दूसरे गाँव जाना है? इसी आँगन में तो रहना है। पहरे बैठा देना। ...निकाह के बाद हन्नू कहाँ यहाँ बैठे रहेंगे! वे भी तो अरब जा रहे हैं। दो साल बाद लौटेंगे।’’

निकहत जहाँ टाल गईं—‘‘कौन जाने वक़्त का खेल? भागी तो नहीं जा रही है लुबना? हन्नू लौट आएँ अरब से, फिर...’’

अंगूरी बेगम ने अपने भाई मोहसिन अली को बुलवाया। भाई के हाथ में चाय की प्याली देकर लुबना और हन्नू के निकाह के बारे में अपना फ़ैसला साफ़-साफ़ सुना दिया—‘‘ हन्नू को तालीम के लिए लुबना का शहर जाना और आगे पढ़ना बिलकुल पसंद नहीं। इंदिरा गाँधी की तरह वज़ीर बनवाना हो तो ठीक है, पर अगर घर-परिवार की ज़िम्मेदारियाँ सौंपनी हों तो निकाह की तारीख़ तय होनी चाहिए।...अरब के लिए हन्नू का वीजा आनेवाला है। दलाल को चालीस हज़ार रुपए भरे जा चुके हैं। दो-तीन महीनों में हन्नू अरब चले जाएँगे। इसके पहले निकाह हर हाल में हो जाना चाहिए।’’

बहन से हुई बातचीत के बाद मोहसिन अली तमतमाए फिर रहे थे। दोपहर के खाने के समय जब निकहत जहाँ ने बात शुरू की तो ताव खा गए। बात उलझ गई। अंगूरी बेगम निकाह की ज़िद पर अड़ी थीं। मोहसिन अली को बहन की बात जायज़ लग रही थी। वह पढ़ने में लुबना की दिलचस्पी को ख़तरनाक संकेत मानकर परेशान थे और जल्दी से जल्दी इस झंझट को निबटाना चाह रहे थे। दूसरी तरफ़ निकहत जहाँ को बेटी की तालीम पाने की दिलचस्पी जायज़ लग रही थी। हालाँकि वह निकाह के पक्ष में थीं, पर तालीम पूरी होने और हन्नू की अरब से वापसी के बाद।

रात का खाना नहीं पका। पिटने के बाद निकहत जहाँ अपने कमरे में चादर तानकर सो गईं। पकवाघर की हर आँख में किरकिरी की तरह चुभती लुबना का चेहरा ज़र्द पड़ गया था। पास होने की ख़ुशी काफ़ूर हो चुकी थी। भविष्य और वर्तमान दोनों नुकीली बर्छियों की तरह उसके आगे-पीछे तने थे। पकवाघर में उठे शोर के केन्द्र में घिरी लुबना बुरी तरह आहत थी। उसके मन में ढेरों प्रश्न थे। जिज्ञासाओं का अनंत प्रवाह था। वह इन प्रश्नों-जिज्ञासाओं के साथ अपनी सोच में ज्यों-ज्यों गहरे उतरती—अकेली...और अकेली होती जाती। वह राशिद को ढूँढ़ रही थी। मन के किसी कोने में यह उम्मीद थी कि शायद राशिद उसे उबार सकें!...पर राशिद थे कि ग़ायब! आँगन में वज्र की तरह गिरती थाली की झनक सुनते ही राशिद पकवाघर की चहारदीवारी लाँघकर बाहर निकल गए थे। लुबना ने सोचा, शायद हन्नू के डर से खिसक लिये हों! ऐसे मौक़ों पर हन्नू उन पर अपनी खीज मिटाते थे। अब मार-पीट तो नहीं कर पाते, पर ज़हर की तरह कोई जुमला कानों में ज़रूर उँड़ेल देते।

राशिद दबे पाँव आकर सामने खड़े हुए और ऊपर चलने का इशारा किया। वहीं, पीछेवाली मुँडेर पर, जहाँ से उनकी अम्मी की क़ब्र दिखती थी। आगे-आगे राशिद और पीछे-पीछे लुबना। दोनों छत की उस मुँडेर तक पहुँचे।

पहले लुबना बैठी। फिर राशिद। कुछ देर तक दोनों चुप बैठे रहे। फिर राशिद ने हौले से आवाज़ दी—‘‘लुबना!’’

लुबना कुछ बोली नहीं। उमड़ते आँसू पर क़ाबू पाने की कोशिशें नाकाम हो रही थीं। लुबना सिसकने लगी। राशिद ने धीरे से उसके सिर पर हथेली रखी और उसका माथा झुकाकर अपनी गोद में रख लिया। लुबना रोती रही और राशिद उसके बालों में उँगलियाँ फिराते रहे। 

राशिद को एहसास था कि उनका रास्ता दुर्गम है। वह मुखर नहीं हो सकते। उनके भीतर थीं विराट इच्छाएँ। ये इच्छाएँ इतनी उत्कट और सघन थीं कि कभी-कभी इनके दबाव में स्वयं राशिद की साँस उखड़ने लगती। राशिद ने घेराई में फैले सघन अँधेरे में अपनी अम्मी की क़ब्र ढूँढ़ने की कोशिश की। वह अँधेरे में भी आँखों से क़ब्र टटोल लेते थे। राशिद अक्सर क़ब्र में सोई अम्मी की कल्पना करते। उन्हें अम्मी की सूरत याद नहीं थी। कोई तस्वीर भी नहीं थी। लोगों से सुनकर उन्होंने शून्य में एक आकृति गढ़ ली थी। उन्होंने क़ब्र में सोई अम्मी को देखा। वहाँ शान्ति थी। क़ब्रगाह की शान्ति। शुद्ध और पवित्र शान्ति। वर्षों पहले दफ़्न हुए लोगों के पाप-पुण्य और सुख-दुःख से छनकर बाहर पसरती हुई शान्ति।

सिसकती हुई लुबना के आँसू थमे। हिचकियों का अंतराल बढ़ा और धीरे—धीरे वे समाप्त हुईं। लुबना ने राशिद की गोद से अपना चेहरा बाहर निकाला। बोली—‘‘मैं ज़हर खा लूँगी...जान दे दूँगी।’’

राशिद बोले—‘‘मैंने अब्बा से बात की है। तुम्हारे अंजुम मामू से भी बात की है मैंने। दोनों ने वायदा किया है कि मोहसिन चा...’’

‘‘तुम मेरे लिए पंचायत बटोरने गए थे? तुम ख़ुद कुछ नहीं कर सकते, तो छोड़ दो।...मेरे लिए पंचायत बुलाने की ज़रूरत नहीं।’’ लुबना तल्ख़ हो उठी। 

‘‘बच्चों जैसी बातें मत करो। भरोसा रखो मुझ पर। तुम्हारी तालीम...’’

‘‘तालीम!’’ बात काटती हुई लुबना ने कहा—‘‘तुम्हें सिर्फ़ तालीम की पड़ी है?...मेरी फ़िक्ऱ नहीं तुम्हें?...मैं एक लफंगे के संग बाँध दी जाऊँ...क़साई के ठीहे पर ज़िबह कर दी जाऊँ, ये तुम्हें मंजूर है?’’

‘‘लुबना! पगल हो गई हो तुम।...एक राह से दूसरी राह निकलती है।’’ राशिद ने एक गहरी साँस ली और लुबना का चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया। लुबना की आँखें चमकीं। फिर उसने पलकें झुका लीं। राशिद उठे। उसके काँधों को थामकर उठाया और अपनी बाँहों में हौले से समेट लिया। राशिद के सीने से लगी लुबना फिर रो पड़ी। 

ज़ाकिर अली ने बकरा कटवाया। रात में पकवाघर के सारे मर्द एक साथ दस्तरख़्वान पर बैठे। ज़ाकिर अली कम बोलते थे। अपने घर में उनकी अपनी कोई राय नहीं होती थी। उन्होंने तोता-रटंत की तरह अंगूरी बेगम का पढ़ाया पाठ सबको सुनाया। मोहसिन काफ़ी क्रोध में थे। साहेब अली ने अपनी बात रखी— ‘‘लड़की अगर पढ़ना चाहती है, तो बुरा क्या है? आज के ज़माने में तो तालीम की ही अहमियत रह गई है।...लुबना के निकाह को दो-तीन सालों के लिए टाला भी जा सकता है।...अभी उसकी उम्र ही क्या है?’’

‘‘हाँ, निकाह टाल दूँ ताकि तुम्हारी मुराद पूरी हो सके।’’ मोहसिन अली गरजे।

‘‘मेरी मुराद!’’ साहेब अली चौंके। सभी ने घूरकर राशिद की तरफ देखा। राशिद माथा झुकाए शोरबे में गोश्त की बोटी ढूँढ़ रहे थे।

‘‘हम यहाँ रास्ता निकालने बैठे हैं, जंग करने नहीं। खाने का ज़ायका मत ख़राब करो मोहसिन।’’ अंजुम अली ने अपनी रौबदार आवाज़ में मोहसिन को डपट दिया। फिर बोले—‘‘मेरी राय है कि लड़की की तालीम न रोकी जाए। ये मुनासिब नहीं होगा। प्राइवेट से इम्तिहान दे। जैसे मैट्रिक पास किया, वैसे ही बी.ए.-एम.ए. कर सकती है। राशिद जिस कॉलेज में पढ़ते हैं, उसी इस्लामिया कॉलेज से पर्चा भर देगी। राशिद मियाँ हैं ही। शहर आते-जाते रहते हैं, क़िताबें ला दिया करेंगे। राशिद मदद करेंगे तो सहूलियत हो जाएगी। क्यों भाई, राशिद मियाँ?’’

‘‘चोर का गवाह गिरहकट! ये तो ख़ुद ही सीवान जाकर आवारागर्दी करते—फिरता है।’’ अब तक चुप बैठे हन्नू ने एक जुमला जड़ दिया। 

‘‘ज़रा बदज़ुबानी कम कीजिए मियाँ। बाहर जा रहे हैं...दूसरे मुल्क में। और वो भी अरब। यही हाल रहा तो सारी ज़िन्दगी वहाँ के जेलख़ाने में कटेगी।’’ अंजुम अली ने डपटते हुए लावा उगलती आँखों से हन्नू को देखा।

दस्तरख़्वान पर बैठे मर्दों की मजलिस ने तय किया कि लुबना का निकाह हन्नू के अरब जाने से पहले कर दिया जाए। लुबना अपनी अम्मी के साथ रहेगी। हन्नू के आने पर रुख़सती होगी। लुबना की तालीम जारी रहेगी, पर घर में ही। राशिद इस काम में लुबना की मदद करेंगे। 

फ़ैसला सुनने के बाद लुबना ने तीन दिनों तक खाना नहीं खाया और अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। उसकी अम्मी भी चुप थीं। जब तीन दिन बिना अन्न-दाना के गुज़र गए, निकहत जहाँ ने बेटी से पूछा—‘‘बाप-बेटी दोनों मिलकर मेरा गला क्यों नहीं दबा देते? मैं इस फ़ैसले में कहीं नहीं हूँ। फिर मुझसे बदला क्यों ले रही है तू?’’

लुबना ने खाना खा लिया। लगभग सबों से उसकी बातचीत बंद हो गई थी। दो-चार लफ़्ज़ अम्मी से बोल लेती। ज़्यादातर हूँ-हाँ से ही काम चलाती। राशिद ग़ायब थे। थे तो इसी घर में, पर इधर का रुख़ नहीं करते थे। अगर कभी सामने पड़ जाते, तो नज़रें बचाकर खिसक लेते। लुबना अपने दुखों को विस्तार दे रही थी। पकवाघर के प्रभाव की प्रभुता के बीच अपनी दासता को परख रही थी। इन दिनों उसे अपना बचपन बहुत याद आता, जिसे विदा हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए थे। राशिद के साथ-साथ तितलियों के पीछे-पीछे भागना...घेराई में छिपकर आम के टिकोले खाना...हन्नू के साथ मार-पीट...और अम्मी से लिपट जाना...उनके सीने में मुँह छिपाकर गुदगुदी करना...और फिर खिल-खिल हँसते हुए भाग जाना,...ये स्मृतियाँ उसे सहारा देतीं। उसकी रक्षा के लिए शस्त्रों सी सज—धजकर उसके साथ आ जुटतीं। अपनी शंकाओं पर विजय पाने की कोशिश में वह बार-बार अपने से ही टकराती...अपने को दीक्षित करती...संकल्प लेती। उसे लगा, उसके स्वप्न दुर्गम ज़रूर हैं, पर इनका विकास रोका नहीं जा सकता। उसने एकांत से ताक़त बटोरने की राशिद की कला का रहस्य पा लिया था।...और शायद उसे उसके एकांत ने राशिद से भी ज़्यादा हुनरमंद बना दिया था।

हन्नू के लिए वीजा आ गया। ड्राइवर की नौकरी के लिए उन्हें दो सालों के कॉन्ट्रैक्ट पर आबूधाबी जाना था। 

लुबना का निकाह हुआ। तय था कि हन्नू के वापस आने के बाद ही विदा होकर वह अंगूरी बेगम के पास जाएगी। निकाह के बाद लगभग एक माह तक हन्नू हसनपुर में रहे, पर लुबना का चेहरा नहीं देख सके। राशिद के इम्तिहान के दिन क़रीब थे, सो वह शहर में ही अपने किसी दोस्त के साथ रहकर तैयारियों में व्यस्त थे। सिर्फ़ निकाह के दिन हसनपुर आए थे और वापस चले गए। 

हन्नू चले गए। पहले बम्बई गए। सप्ताह भर वहाँ रहे। फिर आबूधाबी के लिए उड़ गए।

हन्नू अरब से लौटे। गए थे दो सालों के लिए, पर चार सालों के बाद वापस आए। कम्पनी ने दो सालों के लिए कॉन्ट्रैक्ट बढ़ा दिया था। अंगूरी बेगम ने बीच में ख़त लिखा था कि छुट्टियाँ लेकर आ जाओ ताकि दुलहन की विदाई हो सके। हन्नू राज़ी नहीं हुए। उन्होंने ख़त लिखकर आने-जाने के ख़र्च और कॉन्ट्रैक्ट बढ़ जाने की ख़ुशक़िस्मती के बारे में अपनी अम्मी को समझाया था। 

हन्नू काफ़ी माल-असबाब लेकर लौटे थे। रुपए तो भेजते ही रहते थे। उनके अब्बा के नाम सीवान के बैंक में खाता खुला था। ड्राफ़्ट आता तो राशिद ही जमा करवाते। इस बीच समय बहुत आगे निकल चुका था। लुबना का बीसवाँ पूरा होने ही वाला था। बी.ए. का इम्तिहान सामने था। वह तैयारियों में लगी थी। राशिद बी.एड. करने के बाद सीवान के एक सरकारी मिडिल स्कूल में उर्दू के मास्टर हो गए थे। वही पुरानी दिनचर्या। रोज़ साइकिल चलाकर सीवान आना-जाना।

अंगूरी बेगम बहू के लिए हन्नू की लाई सौग़ात लेकर निकहत के कमरे में पहुँचीं, तो सबकी आँखें फटी रह गईं। हन्नू ढेरों ज़ेवर लाए थे। कपड़े, सिंगार के लिए विदेशी सामान...ख़ुशबू की कई शीशियाँ। निकहत जहाँ ने बेटी को दिखाना चाहा, पर लुबना ने नज़रें उठाकर देखा तक नहीं।

हन्नू की वापसी की ख़ुशी में ज़ाकिर अली ने दावत दी। इतवार का दिन था। राशिद भी घर में ही थे। सुबह उन्हें लुबना ने बुलाया था। बहुत देर तक बैठे दोनों बातें करते रहे। हन्नू के आने के बाद से राशिद थोड़े उद्विग्न चल रहे थे। एक अजीब क़िस्म की रुग्ण आकुलता उन पर छाई रहती। लुबना से बातें करके लौटने के बाद राशिद का मन हलका हो गया। लुबना के पास से जैसे जीवन पाकर लौटे हों राशिद। 

बाहरवाले दालान में मर्दों का दस्तरख़्वान बिछा। उनका खाना ख़त्म हुआ, तो आँगन वाले बरामदे में औरतें बैठीं। गोश्त, बिरियानी, ख़मीरी रोटी, पराँठे, ज़र्दा पुलाव, फ़िरनी...। अंगूरी बेगम दिल खोलकर लुटा रही थीं। मर्दों ने कहा कि औरतें ही तय कर लें लुबना की विदाई का दिन। औरतें गोश्त की बोटियाँ उड़ातीं तय करने में मशगूल थीं। इसी बीच किसी लड़की ने लुबना के साथ चुहल करते हुए पूछा—‘‘आपा! पहली मुलाक़ात में हन्नू भाई से क्या माँगेंगी?’’

‘‘ख़ुला।’’ लुबना बोली।

औरतें एक साथ चीख़ उठीं—‘‘हाय अल्ला! ख़ुला?’’

‘‘हाँ, ख़ुला।’’ लुबना ने अपनी बात दुहराई।

इस एक लफ़्ज़ से ज़लज़ला आ गया। मसालों की ख़ुशबू में पगी हौले-हौले झूमती पकवाघर की ख़ुशगवार हवा आँधी में बदल गई। गर्मी की दोपहरी में पछिया के बवंडर से उठी भँवर मानो सदर दरवाज़े से भीतर घुस आई हो और अचानक दरवाज़ों-खिड़कियों के पल्ले बजने लगे हों। सन् उन्नीस सौ पाँच के साबिक़ सर्वे सेटलमेंट के समय बने पकवाघर की बीस इंच मोटी दीवारों से सुर्खी-चूना भुरभुराकर गिरने लगा। आँगन में दाना चुगती मुर्ग़ियाँ दड़बों में छिपने के लिए रेल-पेल मचाने लगीं। छतों की मँुडेरों पर, ताख़ों में और रौशनदानों में बैठकर गुटर-गूँ करते कबूतरों के झुंड में भी अफ़रा-तफ़री मच गई। किसी को होश नहीं था। दस्तरख़्वान सूना हो चुका था और उस पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। सिर से आँचल और दुपट्टे सरकाए बदहवास भागती औरतों की आवाज़ हलक़ में ही अटक गई थी। मर्द हक्के-बक्के, जैसे भी, जहाँ थे—वहीं जड़वत् थे। 

‘‘ख़ुला। हाँ, मैं ख़ुला चाहती हूँ। यह इस्लाम में जायज़ है।...और ख़ुला चाहने की माकूल वजह है मेरे पास।...मेरा निकाह हुआ, तो मैं बालिग नहीं थी। मेरा सोलहवाँ चल रहा था। और फिर निकाह के बाद जिसका शौहर चार सालों के लिए छोड़ दे, उस औरत को ख़ुला माँगने का हक़ है। मेरा हक़ नहीं मिला तो मैं इमारते शरईया जाकर अर्ज़ करूँगी...। वहाँ नहीं मिला मेरा हक़, तो कोर्ट जाऊँगी।’’ यह लुबना की धीर-गम्भीर आवाज़ थी।

बस! इतना ही कहा था लुबना ने और पकवाघर का मौसम बदल गया था। तामीर के बाद पहली बार यह मनहूस लफ़्ज़ पकवाघर में गूँज रहा था। पकवाघर के बाशिंदे अपना सिर धुन रहे थे कि यह मरज़ जाने किस दरवाज़े से घुस आया! राशिद छत की मुँडेर पर उस जगह चैन से बैठे थे, जहाँ से उनकी अम्मी की क़ब्र दिखती थी।

 

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