भगत सिंह को समझने के लिए कौनसी किताबें पढ़ें?

शहीदे-आज़म भगत सिंह की जयन्ती पर राजकमल ब्लॉग में उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण किताबों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है। इन पुस्तकों में भगत सिंह से जुड़े दस्तावेज़, अदालती बयान, पत्र, रेखाचित्र, निबन्ध, जेल नोटबुक और उनके मूल्यांकन सम्बन्धी अभिलेखीय साक्ष्यों के समेत उनके साथियों के लिखे संस्मरण भी शामिल हैं। उस असाधारण व्यक्तित्व को समझने में निश्चय ही यह पुस्तकें बेहद उपयोगी हैं। 

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क्रान्तिवीर भगत सिंह : ‘अभ्युदय’ और ‘भविष्य’

यह किताब आज़ादी की लड़ाई, ख़ासकर इन्क़लाबी नौजवानों के संघर्ष की हक़ीक़त तलाशती कोशिश का नतीजा है। इसमें शामिल पत्रिकाओं ‘अभ्युदय’ और ‘भविष्य’ की सामग्री हिन्दुस्तान की आज़ादी के संग्राम को ठीक से समझने के लिए बेहद ज़रूरी है। ‘अभ्युदय’ ने भगत सिंह के मुक़दमे और फाँसी के हालात पर भरपूर सामग्री छापी और 8 मई, 1931 को प्रकाशित उसका ‘भगत सिंह विशेषांक’ ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिया गया। भगत सिंह के जीवन, व्यक्तित्व और परिवार को लेकर जो सामग्री ‘अभ्युदय’ व ‘भविष्य’ में छापी गई—विशेषत: भगत सिंह व उनके परिवार के चित्र—उसी से पूरे देश में भगत सिंह की विशेष छवि निर्मित हुई।

‘भविष्य’ साप्ताहिक इलाहाबाद से रामरख सिंह सहगल के सम्पादन में निकलता था। पहले इसके सम्पादक पं. सुन्दरलाल के थे जिसमें रामरख सिंह सहगल काम करते थे। 2 अक्टूबर, 1930 को गांधीजी के जन्मदिवस पर रामरख सिंह सहगल ने, जो स्वयं संयुक्तप्रान्त कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य थे, ‘भविष्य’ साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया। पहले अंक से ही भगत सिंह आदि पर सामग्री प्रकाशित कर, ‘भविष्य’ ने सनसनी फैला दी। ‘भविष्य’ में भगत सिंह की फाँसी के बाद के हालात का जीवन्त चित्रण हुआ है।

‘भविष्य’ और ‘अभ्युदय’ से कुछ चुनिन्दा चित्र इस किताब में शामिल किए गए हैं। सम्पादक प्रो. चमन लाल ने विलुप्तप्राय तथ्यों को इस पुस्तक में सँजोकर ऐतिहासिक कार्य किया है। वस्तुत: इस इन्क़लाबी वृत्तान्त को पढ़ना स्वतंत्रता की अदम्य जिजीविषा से साक्षात्कार करना है।

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भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़

शहीद भगत सिंह ने कहा था : ‘क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है’ और यह भी कि ‘क्रान्ति ईश्वर-विरोधी हो सकती है, मनुष्य-विरोधी नहीं’। ध्यान से देखा जाए तो ये दोनों ही बातें भगत सिंह के महान क्रान्तिकारी व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। लेकिन इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण यह है कि भगत सिंह की विचारधारा और उनकी क्रान्तिकारिता के ज्वलन्त प्रमाण जिन लेखों और दस्तावेज़ों में दर्ज हैं, वे आज भी पूर्ववत् प्रासंगिक हैं, क्योंकि ‘इस’ आज़ादी के बाद भी भारतीय समाज ‘उस’ आज़ादी से वंचित है, जिसके लिए उन्होंने और उनके असंख्य साथियों ने बलिदान दिया था। 

भगत सिंह के क्रान्तिकारी विचार उन्हीं के साथ समाप्त नहीं हो गए, क्योंकि व्यक्ति की तरह किसी विचार को कभी फाँसी नहीं दी जा सकती। यह पुस्तक भगत सिंह की इसी विचारधारात्मक भूमिका को समग्रता के साथ हमारे सामने रखती है। वस्तुत: हिन्दी में पहली बार प्रकाशित यह कृति भगत सिंह के भावनाशील विचारों, विचारोत्तेजक लेखों, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों, वक्तव्यों तथा उनके साथियों और पूर्ववर्ती शहीदों की क़लम से निकले महत्त्वपूर्ण विचारों की ऐसी प्रस्तुति है जो वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक स्थितियों की बुनियादी पड़ताल करने में हमारी दूर तक मदद करती है।

इस पुस्तक का सम्पादन शहीद भगत सिंह की छोटी बहन अमर कौर (अब दिवंगत) के बेटे जगमोहन सिंह और प्रो. चमन लाल ने किया है। 

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शहीद भगत सिंह : क्रान्ति का साक्ष्य

भगत सिंह मानते थे कि एक क्रान्तिकारी के गिरफ्तार हो जाने या जेल जाने के बाद संघर्ष समाप्त नहीं हो जाता। उन्होंने कारागार की चहारदीवारी के भीतर पहुँचकर साम्राज्यवाद के विरुद्ध दूसरे हथियारों को लेकर लड़ना शुरू कर दिया। जेल में राजनीतिक बन्दियों की माँगों को लेकर लम्बी-लम्बी भूख हड़तालें शुरू कीं जिसमें 63 दिन बाद यतीन्द्रनाथ दास शहीद हो गए। अदालत में बयान, मुकदमे को राजनीतिक रूप से लड़ना, लेख और पत्र लिखना, लेनिन दिवस पर न्यायालय में गले में लाल रूमाल बाँधकर जाना, तीसरी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को अपना सन्देश भेजना जैसे गम्भीर क्रान्तिकारी कार्यभार उनके पास थे और जिन्हें वे पूरी सजगता के साथ निभा रहे थे। यही नहीं, काकोरी के सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों ने बरेली के केन्द्रीय कारागार में राजनीतिक कैदियों के अधिकारों के लिए लम्बा संग्राम किया तो भगत सिंह ने जेल के भीतर से उन्हें भी अपना समर्थन दिया था। इन सब व्यस्तताओं के बीच भी वे जेल में अपने साथियों से हँसी-मजाक और खेलने कूदने का अवसर भी निकाल देते थे।

इस भारतीय उपमहाद्वीप में समाजवाद के लिए यदि किसी एक व्यक्ति ने सर्वाधिक संघर्ष किया तो वह अकेले भगत सिंह ही थे। अध्ययन में उनकी विशेष रुचि थी। उनके साथी कहा करते थे कि उन्होंने बिना पुस्तक और पिस्तौल के भगत सिंह को कभी नहीं देखा। उनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं था। उन्होंने भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन को अपने कृतित्व से विचार की सर्वोच्च ऊँचाई प्रदान की। भगत सिंह की जेल नोटबुक को पढ़ने से पता लगता है कि विश्व साहित्य और राजनीति की कितनी पुस्तकों का उन्होंने अध्ययन किया था। वह एक राजनीतिक योद्धा थे लेकिन उनके भीतर गजब की साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि थी। ‘ड्रीमलैंड’ की लिखी उनकी भूमिका तथा ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ जैसे उनके आलेख उनके चिन्तक और दार्शनिक पक्ष को सामने लाते हैं। आश्चर्यजनक है कि भाषा और लिपि की समस्या से आज हम इतने उद्वेलित और रू-ब-रू नहीं होते जिस तरह भगत सिंह अपने समय में होते थे जबकि आज भी भाषा का मुद्दा छोटा नहीं है।

भगत सिंह के समस्त दस्तावेज़ों, अदालती बयानों, पत्रों, रेखाचित्रों, निबन्धों, जेल नोटबुक और उनके मूल्यांकन सम्बन्धी अभिलेखीय साक्ष्यों के बीच उनके साथियों के लिखे संस्मरणों को पुस्तकाकार प्रस्तुत करनेवाली यह प्रथम कृति है। ये दस्तावेज उन्हें एक सचेत बौद्धिक क्रान्तिकारी बनाते हैं। इसमें संकलित भगत सिंह से जुड़ी स्मृतियाँ उनके जीवन और उस युग के क्रान्तिकारी घटनाक्रम की एक स्पष्ट छवि निर्मित करने के साथ ही हमें अपने समय के सवालों से टकराने और आगे की अपनी क्रान्तिकारी भूमिका की खोजबीन करने को प्रेरित करती है। 

इस पुस्तक का सम्पादन सुधीर विद्यार्थी ने किया है।

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सरफ़रोशी की तमन्ना

लाहौर षड्यंत्र मामले में एक दिखावटी मुक़दमा चलाकर ब्रिटिश सरकार द्वारा भगत सिंह को गिरफ़्तार करने के बाद जेल में बंद कर दिया गया। जेल में रहने के दौरान उन्होंने अनेक पत्र और लेख लिखे जो उनके विचारों की एक स्पष्ट छवि प्रस्तुत करते हैं। हालाँकि उनकी लिखी हुई चीज़ें एक लंबे समय, आज़ादी के भी बाद सामने आईं। आज इसी सामग्री के आधार पर उन्हें देश की आज़ादी के लिए जान देनेवाले अन्य शहीदों से अलग माना जाता है। उनका यह लेखन उन्हें सिर्फ़ एक भावप्रवण स्वतंत्रता सेनानी से कहीं ज़्यादा एक ऐसे अध्यवसायी बुद्धिजीवी के रूप में सामने लाता है जिसकी प्रेरणा के स्रोत, अन्य विचारकों के साथ, मार्क्स, लेनिन, बर्ट्रेंड रसेल और विक्टर ह्यूगो थे। उनका क्रान्ति-स्वप्न अंग्रेज़ों को देश से निकाल देने-भर तक सीमित नहीं था, बल्कि वे उससे कहीं आगे एक धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी भारत का सपना सँजो रहे थे।

कुलदीप नैयर ने इस पुस्तक में शहीद भगत सिंह के पीछे छिपे उस आदमी, उनके विश्वासों, उनके बौद्धिक रुझानों और निराशाओं पर प्रकाश डाला है। यह पुस्तक पहली बार स्पष्ट करती है कि हंसराज वोहरा ने भगत सिंह के साथ धोखा क्यों किया, साथ ही इसमें सुखदेव के ऊपर भी नई रोशनी में विचार किया गया है जिनकी वफ़ादारी पर कुछ इतिहासकारों ने सवाल उठाए हैं। लेकिन इसके केन्द्र में भगत सिंह का हिंसा का प्रयोग ही है जिसकी गांधी जी समेत अन्य अनेक लोगों ने इतनी कड़ी आलोचना की है। 

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आमूल क्रान्ति का ध्वजवाहक भगत सिंह

भगत सिंह को यदि मार्क्सवादी ही कहना हो, तो एक स्वयंचेता या स्वातंत्र्यचेता मार्क्सवादी कहा जा सकता है। रूढ़िवादी मार्क्सवादियों की तरह वे हिंसा को क्रान्ति का अनिवार्य घटक या साधन नहीं मानते। वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं—‘क्रान्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का सम्प्रदाय नहीं है।’ अन्यत्र वे कहते हैं—‘हिंसा तभी न्यायोचित हो सकती है जब किसी विकट आवश्यकता में उसका सहारा लिया जाए। अहिंसा सभी जन-आन्दोलनों का अनिवार्य सिद्धान्त होना चाहिए।’

आज जब भगत सिंह के समय का बोल्शेविक ढंग समाजवाद मुख्यत: जनवादी मान-मूल्यों की निरन्तर अवहेलनाओं के कारण, समता-स्थापन के नाम पर मनुष्य की मूलभूत स्वतंत्रता के दमन के कारण, ढह चुका है, यह याद दिलाना ज़रूरी लगता है कि स्वतंत्रता उनके लिए कितना महत्त्वपूर्ण मूल्य था। स्वतंत्रता को वे प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार घोषित करते हैं। क्योंकि वे अराजकतावाद के माध्यम से मार्क्सवाद तक पहुँचे थे, इसलिए स्वतंत्रता के प्रति उनके प्रेम और राजसत्ता के प्रति उनकी घृणा ने उन्हें कहीं भी मार्क्सवादी जड़सूत्रवाद का शिकार नहीं होने दिया।

प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भगत सिंह के लिखे हुए लेख एवं पत्र संकलित है जिसका सम्पादन रणजीत ने किया है।

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भगत सिंह को फाँसी-1 

प्रस्तुत पुस्तक में भगत सिंह की गिरफ़्तारी से लेकर उनको फ़ाँसी दिए जाने तक अदालत के सामने उनके द्वारा दिए गए बयान, अदालतों के निर्णय और अन्य दस्तावेजों को एक जिल्द में प्रस्तुत किया गया है। इसमें दिल्ली सेशन अदालत के समक्ष दिए गए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान से लेकर उन्हें फाँसी देने से पहले प्रिवी काउंसिल द्वारा गठित की गई न्यायिक कमेटी के निर्णय तक शामिल हैं। 

प्रो. मलविन्दरजीत सिंह वढ़ैच और गुरदेवसिंह सिद्धू द्वारा सम्पादित यह किताब मूलरूप से अंग्रेजी में The Hanging of Bhagat Singh शीर्षक से प्रकाशित है जिसका हिन्दी अनुवाद कमलेश जैन ने किया है। 

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भगत सिंह को फाँसी-2

यह पुस्तक ‘भगत सिंह को फाँसी-1’ का ही दूसरा भाग है। इसमें लाहौर साज़िश केस के दौरान हुई 457 गवाहियों में से महत्त्वपूर्ण गवाहियों के पूर्ण विवरण और शेष गवाहियों के तथ्य-सार दिए गए हैं। शहीद सुखदेव ने इस दस्तावेज़ का बारीकी से अध्ययन किया था और उनके द्वारा अंकित की गई टिप्पणियों का उल्लेख सम्बन्धित गवाहियों के ब्योरे में किया गया है। इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ को पहली बार इसी पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया है, जिसके द्वारा पाठकों को अनेक विचित्र तथ्य जानने को मिलेंगे। इसमें शामिल गवाहियाँ विशेष ट्रिब्यूनल के सामने 5 मई, 1930 से 26 अगस्त, 1930 तक दी गई थीं जबकि इससे पहले 10 जुलाई, 1929 से 3 मई, 1930 तक मुक़दमा विशेष मजिस्ट्रेट की अदालत में चला था।

इस पुस्तक का सम्पादन मलवेन्दरजीत सिंह वढ़ैच और राजवन्ती मान ने और हिन्दी अनुवाद रमेश कुमार ने किया है। 

 

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