जेपी : एक दुविधाग्रस्त क्रान्तिकारी

जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश की किताब ‘आपातकाल आख्यान : इन्दिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा’ का एक अंश जिसमें 1975 में देश में लगाए गए आपातकाल के दौरान उनकी गिरफ़्तारी और जेल के दिनों का वर्णन है। 

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“जिधर देखता हूँ, मेरी सारी दुनिया टूटकर बिखर रही है। और मुझे डर है कि मैं अपने जीवनकाल में इसे दोबारा बनता नहीं देख पाऊँगा। शायद मेरी संततियाँ उसे देख सकें। शायद।”

यह निराशा में डूबे शब्द जेपी के हैं जो उन्होंने 21 जुलाई, 1975 को अपनी जेल डायरी में गहरे विषाद के साथ लिखे। 26 जून, 1975 की रात कई प्रमुख विपक्षी नेताओं के साथ उन्हें भी गिरफ़्तार कर लिया गया था। ‘गांधी शान्ति प्रतिष्ठान’ दिल्ली में जहाँ वे ठहरे हुए थे, पुलिस अधिकारी पहुँचे और उन्हें नींद से जगाकर हिरासत में ले लिया गया। जेपी को मुख्यमंत्री बंसीलाल के राज्य हरियाणा में गुड़गाँव (अब गुरुग्राम) स्थित एक पर्यटक लॉज में ले जाया गया और 1 जुलाई को चंडीगढ़ ले जाने से पहले तक उन्हें वहीं रखा गया। इस 73 वर्षीय जर्जर स्वास्थ्य वाले ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के मसीहा को ‘पोस्टग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल रिसर्च एंड एजुकेशन’ (पीजीआई), चंडीगढ़ के परिसर में रखा जाना था। यह फ़ैसला उनकी क़ैद को सुरक्षित बनाने और उनकी चिकित्सकीय देखभाल, दोनों के मद्देनज़र किया गया था। 

चंडीगढ़ के अधिकारी सकते में आ गए। एक नेता के रूप में जेपी के ऊँचे क़द, देश के स्वाधीनता संघर्ष में उनके विशिष्ट योगदान और नेहरू के साथ उनके दीर्घ क़रीबी सम्बन्धों के बारे में हर कोई जानता था। भले इन्दिरा के साथ उनके रिश्ते ख़राब हो गए हों लेकिन वे उन्हें बचपन से जानते थे। ऐसे सम्मानित नेता को चिकित्सकीय चुनौतियों का सामना करते हुए हिरासत में रखना जोख़िम से ख़ाली नहीं था। वरिष्ठ अधिकारियों ने अपने इस प्रतिष्ठित क़ैदी के लिए अस्पताल में एक वातानुकूलित कमरे की व्यवस्था की। जेपी की उम्र और ख़राब स्वास्थ्य को देखते हुए एक ‘क्राइसिस ग्रुप’ का गठन किया गया, जिसने ‘ऑपरेशन मेडिसिन’ नामक इस ‘डेथ ड्रिल’ पर विचार करना शुरू किया कि ख़ुदा-न-ख़्वास्ता अगर हिरासत में उनकी मृत्यु हो जाती है तो ऐसी स्थिति में क्या किया जाएगा। जेपी के कारावास की व्यवस्था देखनेवाले चंडीगढ़ के ज़िला मजिस्ट्रेट एम. जी. देवसहायम को बंसीलाल का सन्देश प्राप्त हुआ, “ये साला अपने आपको हीरो समझता है। उसको वहीं पड़े रहने दो। किसी से मिलने या टेलीफ़ोन करने नहीं देना।” इसी क़िस्म की क्रूर अश्लीलता हरियाणा के इस बाहुबली की पहचान थी। इसी के दम पर वे देश के राजनीतिक मानचित्र में आगे बढ़े, फले-फूले। भारतीय राजनीति में किसी भी अन्य की तुलना में अधिक दबंगई और क्रूरता के साथ अपने राजनीतिक विरोधियों को परास्त करने के लिए बंसीलाल ने सत्ता का इस्तेमाल किया।

वह 1 जुलाई का दिन था जब शुभ्र सफ़ेद कपड़ों में कृशकाय जेपी एक विमान की सीढ़ियों से उतर उस ओर बढ़ चले, जिधर उन्हें बंधक बनाने के लिए लोग इन्तज़ार में खड़े थे। हवाईपट्टी पर इन्तज़ार कर रहे उस समूह में देवसहायम भी शामिल थे। जेलर की भूमिका ओढ़े खड़े देवसहायम ने बंसीलाल के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए जेपी के संरक्षक की ज़िम्मेदारी काँधे पर उठा ली और उनके साथ सदा शालीनता से भरा मानवीय व्यवहार किया। ख़ुद जेपी ने भी उनके इस व्यवहार को सराहा। जेपी की चंडीगढ़ में चार महीने की हिरासत का देवसहायम द्वारा लिखित विवरण कारावास की अवधि में उनकी मानसिक बुनावट का बड़ा दुर्लभ चित्र खींचता है। जेपी जब पीजीआई चंडीगढ़ पहुँचे, वे इन्दिरा की हरकतों से हैरान थे। क़ैद के दौरान उन्हें लगातार यहाँ से वहाँ भेजा जाना—गुड़गाँव के गेस्टहाउस से दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, फिर वहाँ से पीजीआई चंडीगढ़ और वहाँ भी उन्हें एक कमरे से दूसरे कमरे में ले जाया जाता रहा—इस सबने उन्हें परेशान कर दिया और उन्होंने ख़ुद को भाग्य के हवाले छोड़ दिया। “मैं 73 वर्ष का हूँ। पता नहीं, मैं कब तक जीवित रहूँगा। मुझे नहीं पता कि क़ैद में मेरा जीवन किस काम का होगा। ऐसा लगता है जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया है।”

यह उस व्यक्ति का कथन तो नहीं लगता, जिसने उम्र के पाँच दशक तक साथी रहीं अपनी पत्नी प्रभावती की मृत्यु के बाद 1973 के बिहार आन्दोलन के ज़रिये जीवन का नया अर्थ पाया था। जैसा उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, “प्रभा के चले जाने के बाद मेरी जीवन में रुचि ख़त्म हो गई थी। यदि मुझमें सार्वजनिक कार्यों के प्रति विशेष नज़रिया न विकसित हुआ होता तो मैं ज़रूर हिमालय जाकर संन्यास ले लेता। मैं भीतर ही भीतर रोया करता, लेकिन बाहर मैं रोज़मर्रा की दिनचर्या को जीता चला गया।” लेकिन इसके ठीक एक साल बाद पटना में, बिहार के छात्रों का जोशीला उत्साह उधार लेकर जेपी एक विशाल भीड़ के सामने आवाज़ में गरज भरकर कवि दिनकर की कविताएँ सुना रहे थे। और अब, जेल में क़ैद जेपी निराशा की गर्त में डूब रहे थे। “यह महिला देश के साथ क्या कर रही है? वो तो मेरी बेटी जैसी थी। उसके पिता और दादा दोनों मेरे आत्मीय थे। पंडित जी (नेहरू) ने तो लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुरक्षित रखने के लिए अपना जीवन दे दिया होता।” जेपी अचरज में थे कि देश में ऐसी शान्ति क्यों पसरी है। इतनी गिरफ़्तारियों पर कोई कुछ बोल क्यों नहीं रहा?

जेपी ने अपनी जेल डायरी में लिखा कि वे तो बस ‘लोकतंत्र के दायरे को व्यापक बनाने’ की कोशिश कर रहे थे। उनकी कोशिश थी कि लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सीधे शामिल किया जाए। नागरिकों और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच एक ज़्यादा घनिष्ठ और जवाबदेह सम्बन्ध विकसित हो सके। “सार रूप में यही था जिसे मैं बिहार आन्दोलन के शोर और कोलाहल के बीच हासिल करना चाहता था।” लेकिन इसका ख़ात्मा लोकतंत्र की मृत्यु में बदल गया। “आख़िर मेरी गणना कहाँ ग़लत हो गई? (मैं ‘हमारी’ गणना कहने वाला था, लेकिन यह ग़लत होगा। मुझे इसकी सम्पूर्ण, समूची ज़िम्मेदारी उठानी होगी)।” उन्होंने मान रखा था कि इन्दिरा उनके आन्दोलन को कुचलने के लिए सभी ‘सामान्य और असामान्य क़ानूनों’ का इस्तेमाल करेंगी, लेकिन उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि वह अधिनायकवाद के रास्ते चली जाएँगी। 

जेपी हताश थे, लेकिन उनके भीतर प्रतिरोध ज़िन्दा था। हालाँकि जेल में उनके लेखन में एक अपराधबोध की भावना को उभरते स्पष्ट देखा जा सकता है। भले ही लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए इन्दिरा ज़िम्मेदार थीं, फिर भी उन्होंने यह अनुमान नहीं लगा पाने के लिए ख़ुद को दोषी ठहराया कि उनके आन्दोलन से इन्दिरा का ग़ुस्सा इतना भड़क जाएगा। लेकिन इसके चलते वह झुके नहीं। जिस दिन उन्होंने अपनी दुनिया के टूटकर बिखरने के बारे में हताशा से भरी टिप्पणी की, उसी दिन उन्होंने इन्दिरा को एक मारक पत्र भी लिखा। पहले के वर्षों में उनके स्नेही सम्बोधन रहे ‘प्रिय इंदु’ का स्थान अब औपचारिक ‘प्रिय प्रधानमंत्री’ ने ले लिया था। कभी आत्मीय रहे पारिवारिक परिचितों के मध्य आई यह फाँक अब विडम्बनापूर्ण नाटकीयता में बदल रही थी। उन्होंने लिखा, “मैं आपके भाषणों और साक्षात्कारों की प्रेस रिपोर्ट पढ़कर स्तब्ध हूँ। (यह तथ्य कि आपको अपने कृत्य को सही ठहराने के लिए हर दिन कुछ न कुछ कहना पड़ता है, स्वयं दोषी मानसिकता को दर्शाता है।)” लेकिन इन्दिरा की यह सोच बेहद ग़लत साबित हुई कि प्रेस का गला घोंटने और असहमति को कुचल देने से जनता उनके शासन द्वारा बोले जाने वाले झूठ और सत्ता की विकृतियों को पहचान नहीं पाएगी। “मैडम, जो लोग वक़्त की नब्ज़ पहचानना जानते हैं, उनके लिए आपकी असलियत से वाक़िफ़ होने को नौ साल कम नहीं होते।” इस राजनीतिक संघर्ष ने आज़ादी से भी पूर्व से चले आ रहे उनके बीच के व्यक्तिगत सम्बन्ध को नष्ट कर दिया था। जेपी की पत्नी प्रभावती के साथ भी इन्दिरा के स्नेहपूर्ण सम्बन्ध रहे थे। इस गिरफ़्तारी ने उस सम्बन्धों में आई फाँक को सबके सामने उजागर कर दिया जो सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के समय से ही दोनों के बीच पैदा हो गई थी। जैसे रिश्ते का आख़िरी सिरा भी छटक गया। 

जेपी आहत थे, लेकिन झुके ज़रा भी नहीं थे। उन्होंने लिखा, “चूँकि मैं इस मामले का खलनायक हूँ, मैं सीधे एवं साफ़ तौर पर अपनी बात रखता हूँ।” अगले कई पन्नों में जेपी ने बिहार आन्दोलन को एक शान्तिपूर्ण एवं लोकतांत्रिक अभियान बताया। यहाँ कोई तोड़फोड़ का उकसावा नहीं था। यदि सत्याग्रह के माध्यम से राज्य सरकार को पंगु बनाने का प्रयास किया गया, तो उसका भी उपनिवेशवाद विरोधी आज़ादी की लड़ाई में शानदार इतिहास रहा है। हाँ, यह बात सही है कि औपनिवेशिक सत्ता ताक़त पर खड़ी थी जबकि उत्तर-औपनिवेशिक शासन लोकतांत्रिक संविधान पर आधारित था। पर जेपी का मानना था कि लोगों को प्रदर्शनों, जुलूसों और सत्याग्रहों के माध्यम से चुनी हुई सरकार से इस्तीफ़ा माँगने का अधिकार है। यह आंबेडकर के इस विचार से बिलकुल अलग था कि संवैधानिक लोकतंत्र ने सत्याग्रह और सड़क पर विरोध प्रदर्शन को व्यर्थ बना दिया है। जेपी लिखते हैं, “लोकतंत्र में जब एक नागरिक को यह महसूस होता है कि समस्या समाधान और सुधार के अन्य सभी रास्ते बन्द हो गए हैं, उसे सविनय अवज्ञा के मार्ग पर जाने का नैसर्गिक अधिकार है।” जेपी पुलिस और सेना को विद्रोह के लिए उकसाने के आरोप से आहत थे और आपातकाल के दौरान और उसके बाद बार-बार उन्होंने इसके बारे में बात की। उन्होंने तो पुलिस और सेना से बस अवैध आदेशों का पालन करने से इनकार करने को कहा था, जेपी का स्पष्टीकरण था।

अपने आन्दोलन को पूरी तरह से लोकतांत्रिक बताकर उसका बचाव करते हुए जेपी पत्र के आख़िर में वापस व्यक्तिगत सम्बन्धों पर लौटते हैं। वे लिखते हैं, “तुम्हें पता है मैं एक बूढ़ा आदमी हूँ। इस जीवन में मेरा जो भी काम था वो पूरा हो गया है। और प्रभा के जाने के बाद मेरे पास जीने के लिए कुछ बचा भी नहीं है।...पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैंने अपना सारा जीवन देश को समर्पित कर दिया और बदले में कुछ नहीं माँगा। इसलिए यदि मैं तुम्हारे शासन में एक क़ैदी के रूप में मरा, तो भी एक संतुष्टिदायक मौत मरूँगा।” फिर उन्होंने इन्दिरा को एक नसीहत दी, “कृपा करके उस नींव को नष्ट न करो जिसे इस राष्ट्र के पूर्वजों ने, जिसमें आपके महान पिता भी शामिल थे, अपने ख़ून-पसीने से सींचा था।” 

चंडीगढ़ के अस्पताल में चार महीने की क़ैद के दौरान जेपी का स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। उनका चेहरा सूजा हुआ रहता, वह घंटों तक बिस्तर पर पड़े रहते। न तो उठकर बैठ पाते थे और न ही चल पाते। उन्हें भूख लगनी बन्द हो गई थी और रह-रहकर उल्टियाँ होतीं। डॉक्टरों ने दवाइयाँ लिखीं, जाँचें कीं। पर जब कोई बड़ी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या नहीं निकली तो डॉक्टरों ने इन लक्षणों को अवसाद के खाते में डाल दिया। देवसहायम जब भी उनसे मिलते, उन्हें निराशा में डूबा ही पाते। बाद में देवसहायम ने उन आलोचकों से सहमति जताई, जिन्होंने जेपी के इलाज में उपेक्षा को सीधा उन्हें नुक़सान पहुँचाने की खुली साजिश बताया था। इस सहानुभूतिपूर्ण प्रशासक के पास सन्देह करने के पर्याप्त कारण थे। बंसीलाल के बदले से भरे निर्देश वे भूले नहीं थे। पीजीआई के प्रमुख डॉ. पी.एन. चुट्टानी का रवैया और नई दिल्ली का इस मामले में जैसा रुख़ उन्होंने देखा, वह भी कोई विश्वास दिलाने वाला नहीं था। फिर भी, उन्होंने इस बीमार क्रान्तिकारी को सुरक्षित रखने की हर सम्भव कोशिश की। 

 

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