राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, हृषीकेश सुलभ के उपन्यास ‘दातापीर’ का एक अंश। इस उपन्यास के लिए लेखक को हाल ही में ‘अज्ञेय शब्द सृजन सम्मान’ से सम्मानित किया गया है।
सर्द रात थी। ऊपर से शांत और नीरव, पर भीतर ही भीतर उथल-पुथल भरी रात। कुहरे और बिजली के खम्भों पर टँगे बल्बों की मरियल रोशनी की चादर ओढ़े रात के पहलू में सोए क़ब्रिस्तान के भीतर आकुल ज़िन्दगियाँ करवटें बदल रही थीं।
रसीदन को नींद नहीं आ रही थी। एक तो ठंड, दूसरे खाँसी और ऊपर से दोनों लड़कियों का चाल-चलन। बड़ी अमीना भी अब छोटी चुन्नी की तरह अपनी मरज़ी की मालकिन हो गई है। पहले अमीना उसके कहे में रहती थी। उसके पीछे-पीछे छाँही की तरह लगी रहती थी। भले ही कुछ बोलती नहीं थी, पर उसके दुखों को सहलाती थी। आजकल इस लड़की को भी पाँख निकल आए थे। यह भी छोटी की तरह इन दिनों लहराती रहती थी। बात-बेबात ज़ुबान चलाती रहती। इसकी भी गज भर की ज़ुबान निकल गई थी। झूठ तो इस सफाई से बोलने लगी थी कि रसीदन को उस पर अब रत्ती भर भरोसा नहीं होता था। पहले बे-परवाह रहती थी, पर इन दिनों उसे भी छोटी की तरह हर घड़ी आईने के सामने खड़ा रहने का रोग लग गया था। ठीक है। होता है इस उम्र में, पर इसका मतलब यह नहीं कि बिना आगा-पीछा देखे जो जी में आए करो और दूसरों की आँखों में धूल झोंकती रहो।...सौ बार कहा उसने कि इस सत्तार मियाँ से दूरी बना कर रहो, पर सुनने से रही। जीभ-चटोरी की ऐसी लत कि चौबीसों घंटे लार टपकती रहती।...और यह हरामी सत्तरवा ऐसा कि टुकड़े फेंकता रहता था इन लोगों के सामने। जैसे ही टुकड़ा फेंका कि यह बड़की और फजलुआ लपकने को तैयार। ग़ैरत तो बची ही नहीं थी इन दोनों के पास।
...छोटी से तो अब जी भर गया था रसीदन का। कहीं डूब-धँस कर मर भी जाती तो चैन मिलता। बाप रे! इतना गुरूर! इतना फ़रेब! उसका कलेजा काँपता रहता कि पता नहीं कब कौन सा कांड कर बैठे यह लड़की! पलक झपकते हवा-बयार की तरह उड़न-छू होती थी। एक काम कहो, तो दस बहाने। गुस्सा ऐसा कि मुँह से आग बरसाती रहती। चलती ऐसे थी कि मानो धरती मसल रही हो। ऐसी जवानी तो किसी की आज तक नहीं देखी रसीदन ने। दिन-रात कल्लू मियाँ का लौंडा चक्कर काटता रहता था। बिल्ली जैसी चाल थी इस लड़की की। क़ब्रिस्तान के फाटक पर फजलू के रहते भी यह पलक झपकते बाहर हो जाती। है तो अनपढ़, पर मोबाइल में घुसी रहती थी। कान में तार ठूस लेती और आँखें मोबाइल पर।
चौबीसों घंटे का यही हाल था। लाख पुकारे कोई, न सुनती कुछ और न जवाब देती।...और अगर कभी-कभार सुन भी लिया तो जवाब ऐसा देती कि जी करता कि इसका टेंटुआ दबा दें या अपनी ही ज़हर पीकर जान दे दें। साज-सिंगार का शौक ऐसा कि सुबह बिछावन छोड़ने से रात तक पैर के नोह से लेकर ज़ुल्फों तक में ही उलझी रहती थी। दूसरी गली में बच्चन गुप्ता की बड़ी बहू ने अपने घर में ही लड़कियों के सजने-सँवरने वाली दुकान खोल ली थी। वहाँ जाकर लटें टेढ़ी करवा आती थी। भवें छिलवाने तो हर हफ़्ते जाती। कौन रोके-टोके इस आफ़त को? एक दिन इतना-सा पूछा था रसीदन ने, “पैसे कहाँ से आते हैं गुप्ता जी की बहू को देने के लिए तेरे पास?”
बेहया की तरह जवाब दिया उसने, “सत्तार मियाँ से तो नहीं ही माँगते हैं हम!”
अब इस जवाब का क्या मतलब निकाले कोई? एक दिन भुट्टी भाई की पान दुकान के सामने खड़े किसी लड़के ने फ़ब्ती कसी तो पलट कर उसकी माँ-बहन करने लगी और भीड़ जुटा लिया। वो तो भुट्टी भाई नेक आदमी हैं और रसीदन को बहन की तरह मानते हैं, सो उन्होंने मामला सुलझाया और लड़कों को डाँट-फटकार कर भगाया। यह ढीठ वहाँ से टलने को तैयार नहीं थी। बड़ी मिन्नतें कीं भुट्टी भाई ने तब जाकर टली वहाँ से।
किसी दिन फ़ौजदारी करवा के ही मानेगी यह। इतने बड़े मोहल्ले में अब दो-चार घर भी नहीं बचे हैं अपनी क़ौम के। कभी रहे होंगे ढेरों लोग, पर अब तो गिनती के भी नहीं बचे थे। धीरे-धीरे घर-दुआर बेच कर सारे लोग मुसलमान आबादी वाले मोहल्लों में जाकर बस गए। आख़िरी बड़ा परिवार सैयद साहेब का था। वे लोग भी यहाँ इसलिए अटके हुए थे कि मकान की मालियत में कई भाई-बहनों की हिस्सेदारी थी। सारे लोग इधर-उधर कई शहरों में छितरा कर बसे हुए थे। बस एक छोटे वाले भाई रहते थे अपने परिवार के साथ। वे सरकारी साहब थे, सो जैसे-तैसे सारा मामला समेटा। सब को समेट कर किसी तरह औने-पौने दाम मकान बेचा। वे लोग हारुन नगर की कॉलोनी में रहने चले गए। उन लोगों के जाने के बाद अब एक भी रसूख़दार परिवार पीरमुहानी में नहीं बचा। बस यह क़ब्रिस्तान बच गया। अगर यह क़ब्रिस्तान नहीं होता, तो शायद वह भी नहीं होती पीरमुहानी में। हालाँकि दीन-दुनिया की आबोहवा इतनी ख़राब हो गई, पर रसीदन के परिवार के लिए कभी कोई दिक्क़त नहीं हुई। आज भी इस मोहल्ले में उसे बेटी-बहिन की हैसियत मिली हुई थी। लोगों के घर में उसका आना-जाना था। होली-दीवाली में कई घरों से उसके लिए पूआ-पूरी और मिठाई मिलती थी। छठ के पहले इस सड़क की सफ़ाई और सजावट का ज़िम्मा फजलू और साबिर के ऊपर ही रहता।...फिर भी इस छोटकी के चलते रसीदन की छाती काँपती रहती कि न जाने कब कौन-सा बवाल खड़ा का दे यह लड़की! उसके चाल-चलन की शिकायत सुनते-सुनते उसके कान पक चले थे अब।
...सिर्फ़ बेटियों से ही नहीं, बेटे से भी हलकान रहती थी रसीदन। एक तो अल्लाह मियाँ ने एक टाँग ले ली और ऊपर से बीड़ी-सुरती-गाँजा-दारू सबकी लत। वह किसके घर बेटी माँगने जाए! कौन देगा इसको बेटी? यहाँ से निकल कर रिश्तेदारों ने अपनी नई दुनिया बसा ली। उनकी हैसियत बदल गई। भला अब उसे कौन पूछेगा?...रसीदन की आँखों से नींद बहुत दूर जा चुकी थी। वह करवटें बदलती, कभी अपने हाथ-पैर तानती तो कभी सिकोड़ती, तो कभी गहरी उसाँसें भरती हुई बुदबुदाती—“या अल्लाह!”
रसीदन की बेचैनियों से बेख़बर चुन्नी और अमीना बरामदे में थीं। बरामदे के दोनों सिरों पर दो छोटे-छोटे तख़्त थे, जिन पर उनका बिछावन था। ओसारे में जूट वाले बोरों को सिल कर ठंड रोकने के लिए बड़ा-सा पर्दा पतले बाँस में लिपटा हुआ लटका था। सुबह इसे ऊपर खींच कर ओरी से बाँध दिया जाता था। बरसात के दिनों में इसी बरामदे पर खाना पकता था। अपने-अपने बिछावन पर बड़ी और छोटी दोनों जाग रही थीं।
बड़ी के पास छोटी की तरह बड़े-बड़े सपने नहीं थे। घर के कामकाज की व्यस्तताओं की चादर ओढ़े चुपचाप पड़े रहने वाले दुख थे। सीने में गेहुँअन साँप की तरह कुंडली मार कर बैठा हुआ भय था। मुर्दों के इस पनाहगाह से निकलकर कहीं और जा बसने और दो-चार बच्चे पैदा करके हँसी-ख़ुशी भरी ज़िन्दगी गुज़ारने की हसरत थी।...और सत्तार मियाँ, अम्मी, फजलू और छोटी को लेकर ख़फ़गी थी, जिसे वह अपनी छाती में दफ़्न किए अपने दिन गुज़ार रही थी।
बड़ी अक्सर जब नींद में होती, सपने में सत्तार मियाँ की हथेलियाँ उसकी छाती टटोलने लगतीं और वह चिहुँक कर जाग जाती। उसकी चीख़ उसके गले में अटकी होती। वह उस रात को कभी भूल नहीं सकी। सत्तार मियाँ जब भी सामने आते पल भर के लिए उनकी लम्बी कद-काठी वाली देह सिर्फ़ हाथ में बदल जाती और उसकी देह माटी की ढूह बन जाती। सारा घर यह समझता कि वह सत्तार मियाँ को फाँसे हुए है, पर यह सच नहीं था। उसे घिन आती थी सत्तार मियाँ से। हाँ, वह अपनी अम्मी की तरह सत्तार मियाँ को दुरदुरा कर भगाती नहीं। वह अगर अपने पैसे इस घर पर लुटाता है, तो लुटाए। उसके रोकने से इस घर में कुछ रुकने वाला तो है नहीं। अम्मी, फजलू को क्यों नहीं बोलती कुछ? वह तो दिन-रात सत्तार मियाँ की शागिर्दी में रहता है। अम्मी तो सालों से जानती थी सत्तार मियाँ को। उसके चाल-चलन का पता था उसे। फिर क्यों बिठा लिया उसे अपने घर में? उस समय नहीं सूझा था उसे कि घर में दो-दो जवान होती बेटियाँ हैं? इसी ओसारे में डर से थरथर काँपती छोटी के साथ लिपट कर वह सोई रहती थी और कोठरी से सत्तार मियाँ और उसकी अम्मी की अजीब-अजीब आवाज़ें सारी रात आती रहतीं।...वह चाहती थी साबिर के साथ निकल जाए इस क़ब्रिस्तान से, पर मन डोलता रहता था। साबिर की करतूतों से कभी-कभी उसका भरोसा हिल जाता था। वह भी फजलू के साथ दिन-रात सत्तार मियाँ के पीछे-पीछे डोलता फिरता था। वह ऐसी ज़िन्दगी नहीं चाहती जिस पर सत्तार मियाँ की छाँही पड़े। बस इतना भरोसा हो गया जिस दिन कि साबिर सिर्फ़ उसका है, वह उसके साथ निकल जाएगी यहाँ से।...बड़ी का हलक़ सूख रहा था और आँखें बरस रही थीं। साबिर तो बाद में आया उसकी ज़िन्दगी में। उससे पहले अपनी सहेली सरोज के भाई को वह पसन्द करती थी। यहीं तीसरी गली में रहती थी सरोज। उसका भाई वेल्डिंग का काम करता था। सरोज के घर उसका आना-जाना था। वह तो उसके भाई के साथ भागने तक को तैयार थी, पर लड़के के मन में खोट थी। वह चाहता था कि पहले...! इस शर्त पर भला वह कैसे भरोसा कर लेती! उसने सरोज के घर आना-जाना छोड़ दिया। सरोज के साथ वही हुआ, जो वह उसके साथ करना चाहता था। सड़क उस पार दलदली गली में एक सेठ के यहाँ सरोज की माई काम करती थी।
उसकी माई को कोई बड़ी बीमारी हो गई तो काम करने सरोज जाने लगी। सेठ के बेटे ने सरोज को फाँस लिया। उसे हमल ठहर गया। सेठ का लड़का साफ़ मुकर गया और भरा हुआ पेट लिये सरोज ने सल्फास की गोली खाकर जान दे दी थी। फिर उसका पूरा परिवार ही तीसरी गली से कहीं और चला गया था। साबिर चाहे कुछ भी कर ले, वह सरोज की तरह जान नहीं देना चाहती।...बड़ी उठी और पानी की बाल्टी के पास गई। हलक़ में काँटे चुभ रहे थे। बाल्टी से पानी निकाल कर पीने के बाद बिछावन पर लौटी और गुदड़ी में मुँह छिपा लिया।
चुन्नी दम साधे पड़ी थी। अँधियारा था, पर वह बड़ी का उठना, पानी पीना और फिर जाकर बिछावन पर लेट जाना, सब अपनी आँखों से टेर रही थी। अक्सर ऐसा होता था कि दोनों बहनें अपने-अपने बिछावन पर पड़ी जागती रहतीं, पर आपस में बतियाती नहीं। छोटी को लगता कि उसकी ज़िन्दगी तो बबलू के चलते डाँवाडोल है, पर इस बड़की को भला किस बात की फ़िक्र! सत्तार मियाँ के पैसों पर गुलछर्रे उड़ा रही है। चौबीसों घंटे कुत्ते की तरह लार टपकाते हुए इसके पीछे दुम हिलाते फिरते हैं सत्तार मियाँ। साबिर चुप्पा है। जल्दी खुलता नहीं, पर है चंट। जितना दिखता है, उससे दोगुना ज़मीन के भीतर छिपा रहता है। सत्तार मियाँ उसके उस्ताद हैं, सो खुल कर सामने नहीं आता, पर चुप-चोरी उसके और अमीना के बीच क्या-क्या चल रहा है, सब उसे मालूम है। हफ़्ता दिन पहले ही उसने और बबलू ने अमीना और साबिर को ठाकुरबाड़ी रोड में बनारसी चाट वाले के यहाँ चाट खाते हुए देखा था। उसके दूसरे दिन ही हरे रंग की नई कुर्ती पहन कर लहरा रही थी।
कहाँ से आई नई कुर्ती?...चुन्नी सोच रही थी कि अब वह इस घर के लोगों के बारे में सोचना छोड़ देगी। मरें-खपें सारे के सारे। उसे अब किसी से कुछ लेना-देना नहीं। इसीलिए जितना जी में आता है, घर का काम बटा देती है और जी न किया तो कुछ नहीं करती। चाहे लाख चीखे़-चिल्लाए कोई या ताना मारे, चुन्नी को अब किसी से कोई ग़रज़ नहीं। बस बबलू के पास कुछ और रुपए जमा हो जाएँ, निकल लेंगे दोनों। कलकत्ता जाना है। रात की गाड़ी पकड़े और सुबह कलकत्ता। हावड़ा में बबलू की फूफी रहती हैं। वहाँ आसरा मिल जाएगा। फिर अपना कोई काम-धंधा शुरू करेगा बबलू। पुलिस से भी जान छूटेगी। इतने बड़े कलकत्ता में पुलिस भला क्या खोज पाएगी बबलू को! कोर्ट-कचहरी का मामला अपने आप ठंडा पड़ जाएगा। बबलू का भी जवाब नहीं है। आजकल रात में लालजी टोला की ओर से चहारदीवारी फाँद कर क़ब्रिस्तान में घुसता है और बारी साहेब के मक़बरे में घुस कर बैठ जाता है। इस क़ब्रिस्तान में अकेला मक़बरा है वह। जब से टाटा वालों ने बनवा दिया है यह जगह साफ़-सुथरी हो गई है। महीने में एक-दो बार तो मौक़ा मिल ही जाता है। बस रात काली होनी चाहिए। पिछली बार तो मोबाइल में ऐसा सनीमा दिखाया कि उसकी देह जलने लगी थी। हलक़ सूख गया था और उसकी टाँगें ऐसे थरथरा रही थीं कि एक क़दम चलना मुश्किल। बहुत मुश्किल से जान बचा कर भागी थी वह। बबलू मियाँ कम हरामी नहीं हैं! सत्तार मियाँ से दो डेग आगे ही चलता है बबलू, पर वह बड़ी तो है नहीं कि उसे मुट्ठी में बन्द कर ले कोई! बबलू को बहुत पहले साफ़-साफ़ बता चुकी थी वह कि ‘हम जुनैदवा की बीवी नहीं हैं। निकाह के पहले ठेंगा नहीं मिलनेवाला।’ चुन्नी को मालूम था कल्लू मियाँ के घर का सारा खेल। बबलू का चचेरा भाई था जुनैद। कंकड़बाग में मीट की दुकान थी उसकी। वह दुकानदारी में उलझा रहता था और बबलू मियाँ उसकी बीवी...। ख़ुद बबलू ने ही उसे बताया था। उसे कोई एतराज़ नहीं।
निकाह के पहले जितना उड़ना है, उड़ लें बबलू मियाँ, पर उसके बाद पंख फड़फड़ाए तो ज़िन्दा क़ब्र में तोप देगी वह। पिछली बार अगर पकड़ा न गया होता बबलू तो अब तक उसकी ज़िन्दगी बहाल हो गई होती। इस मनहूस जगह से दूर जा चुकी होती वह। क़ब्रिस्तान से ज़्यादा और मनहूस कौन-सी जगह हो सकती है भला! नींद में चलती बड़ी की साँसों की आवाज़ें आ रही थीं। उसे नींद आ गई, पर छोटी की आँखों में नींद के लिए जगह नहीं थी। बबलू के साथ ज़िन्दगी गुज़ारने के सपने बसे थे। अब इन सपनों को हटा कर नींद को भला कैसे बसा ले वह!
ऐसी उथल-पुथल भरी रातों में सिर्फ़ रसीदन, बड़ी और छोटी ही करवटें नहीं बदलतीं, बल्कि क़ब्र के भीतर सोए काले फ़क़ीर की नींद भी उचट जाया करती थी। किसी को भरोसा हो न हो, पर रसीदन को भरोसा था कि अपनी ज़िन्दगी के दुःखों से घबरा कर जब-जब वह बेहाल होती है क़ब्र में सोए उसके नाना काले फ़क़ीर की नींद टूट जाती है। वह क़ब्र से बाहर निकल कर उसकी ख़ैरियत पूछने उसके सपनों में आ जाया करते हैं। उसे ढाढ़स बँधाते हैं। वह सिर्फ़ ख़ैरियत ही नहीं पूछते बल्कि उसके लिए अल्लाह ताला से दुआएँ करते हैं। उनकी दुआओं के असर से ही उसकी सारी बलाएँ अब तक दूर होती रही हैं।
रसीदन को ही नहीं पूरे पीरमुहानी के बाशिन्दों को काले फ़क़ीर की दुआओं पर भरोसा था और आज भी उनकी रूहानी ताक़त पर भरोसा है। आज भी कई लोग हैं जिन्होंने पूरे चाँद की रातों के सन्नाटे में काले फ़क़ीर की छाया को घूमते हुए देखा है। आटा चक्की वाले बटेसर भगत तो बताते हैं कि रसीदनी के नाना अक्सर उन्हें नींद से जगा कर सिगरेट माँगते हैं। जब उनकी आँखें खुलती हैं तो ग़ायब। बटेसर एक सिगरेट निकाल कर सिरहाने रख कर आँखें मूँद लेते हैं और फिर जैसे ही आँखें खोलते हैं सिगरेट ग़ायब। मोहन मिस्त्री के बाबूजी जब तक ज़िन्दा रहे, रोज़ रात में खैनी बना कर अपने सिरहाने काले फ़क़ीर के लिए रखते रहे। हर शब-बरात की रात रसीदन को खैनी के आठ-दस पत्ते और चूना की डिबिया उनकी क़ब्र पर रखने के लिए दे जाते थे।
रसीदन की आँखों में जैसे ही नींद की आवाजाही शुरू हुई और पलकें बोझिल होने लगीं, कोठरी की हवा में एक जुंबिश हुई। लगा, मानो दरवाज़े का पल्ला खुल गया हो और बलखाती हुई हवा का कोई झोंका घुस गया हो। उसने अपनी भारी होती पलकों को खोल कर कोठरी के अँधियारे में निहारने की कोशिश की थी। कहीं कुछ नहीं था। न हवा, न आदमी और न रोशनी...कुछ भी नहीं। उसने करवट बदली और फिर अपनी आँखें मूँद कर सोने की कोिशश की। कुछ देर बाद जैसे ही पलकें बन्द हुईं और नींद तारी हुई उसके नाना काले फ़क़ीर सामने खड़े थे।
काले फ़क़ीर हौले-हौले उसके पास आए और उसके सिरहाने बैठ गए। उसके माथ पर अपनी हथेलियाँ फिराते हुए उन्होंने पूछा, “किस बात पर इतनी बेचैन है हमारी बच्ची?”
“आ गए नाना?” रसीदन ने पूछा।
“कैसे नहीं आते भला! तुमको परेशान देख कर हम कबर में कैसे सोए रहते?”
“बच्चों को लेकर परेशान हैं नाना।”
“बच्चों को लेकर परेशान न रहा कर बच्ची। सबको अपना-अपना नसीब जीना होता है।”
“नसीब ही तो फूटा लेकर पैदा हुए हैं हम।”
“नसीब को मत कोस बच्ची। बस अल्लाह मियाँ पर भरोसा रख।...अल्हम्दुलिल्लाह,...इलिल्लाह!”
चौंक कर उठ बैठी रसीदन। चकित थी वह कि उसके नाना आकर चले गए!...और उसके लिए दुआ पढ़ गए! उसने अपनी आँखें मिचमिचाते हुए अँधेरे में अपने नाना को ढूँढ़ने की कोिशश की। वह दोज़ानू होकर बैठ गई। दोनों हथेलियों को खोल कर ऊपर उठाया और उसके होंठ लरज़े ‘अल्हम्दुलिल्लाह...’
रसीदन कोठरी से बाहर निकली। बाहर साँय-साँय बह रही थी हवा। किसी अजाने लोक के पंछियों की तरह अपने धूसर पंख फैलाए कुहरे के टुकड़े हवा के झोंकों से उड़े जा रहे थे। बड़ी और छोटी अपने-अपने बिछावन पर गुदड़ी ओढ़े गहरी नींद में पड़ी थीं। हवा की आवाज़ के सिवा क़ब्रिस्तान की सारी आवाज़ें ग़ायब थीं। धूसर रंग के सिवा सारे रंग ग़ायब थे। रसीदन ओसारे से नीचे उतर कर आँगन में आई। उसने एक बार मुँह उठा कर ऊपर आसमान की ओर फिर देखा। बिजली के खम्भे पर टँगे बल्ब की पीली रोशनी आँगन के टाट के पार आकर गुम हो गई थी। वह टाट हटा कर आँगन से बाहर निकली। रात-बिरात यही एक परेशानी थी।...अब सुबह होने में बहुत देर नहीं थी, पर इस कुहरे में आज सूरज निकलेगा, इसकी उम्मीद कम ही थी।
हृषीकेश सुलभ की पुस्तकें यहाँ से प्राप्त करें।