चाँद रात वाले दिन हम दोनों भाई बड़े ख़ुश थे। शाम को मग़रिब की नमाज़ के बाद जब चाँद दिख गया तो मोहल्ले के दूसरे बच्चों के साथ हमने भी पूरे मोहल्ले में घर-घर जाकर लोगों को ईद का सलाम किया और उनको ईद की मुबारकबाद दी। मोहल्ले में ख़ासी चहल-पहल थी और हर कोई क़ुर्बानी के बारे में बातचीत कर रहा था। जब लोग हमसे पूछते, “इस बार तुम किसकी क़ुर्बानी करोगे...?” तो हम बड़े शान से जवाब देते, “हम तो बकरे की क़ुर्बानी करेंगे... आपने वो हमारा क़ुर्बान देखा है ना... उसी की...।”
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, बकरीद के दिन एक परिवार द्वारा अपने अजीज बकरे की कुर्बानी देने की कहानी—क़ुर्बान। यह कहानी शहादत के कहानी संग्रह ‘कर्फ़्यू की रात’ में संकलित है।
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उन दिनों मैं छठी कक्षा में पढ़ता था, जब अम्मी को बकरी पालने का शौक़ पैदा हुआ था। वह ईदगाह के पीछे वाली बस्ती में जाकर एक बकरी देख भी आई थी और फिर मुझसे बार-बार उसे देख आने का इसरार करने लगी थी। ताकि मैं जाकर उसे देख लूँ और उसे ख़रीदने के बारे में उन्हें अपनी राय बता सकूँ। लेकिन स्कूल, ट्यूशन और फिर आलस की वजह से मैं जा नहीं पाया। अम्मी ने भी इस पर कोई ऐतराज़ नहीं किया और एक दिन वह पड़ोस की एक औरत के साथ जाकर ख़ुद ही सात सौ रुपये में उसे ख़रीद लाई। वह हल्के कत्थई रंग की बकरी थी। उसके माथे पर सफ़ेद रंग का एक निशान था। कान छोटे-छोटे और नुकीले थे। उसके सींग नहीं थे। इसलिए अम्मी उसे ‘मुंडी’ बकरी कहती थीं। जब वह आई थी तो बहुत दुबली-पतली थी। इतनी दुबली कि उसकी पसलियाँ तक गिनी जा सकती थीं। लेकिन अम्मी की देखभाल से वह जल्दी ही गोल-मटोल हो गई। अम्मी जब उसे घास खाने के लिए बुलातीं तो कहतीं, “आजा है मुंडी... आ, घास खा ले...,” तो वह भी अम्मी की आवाज़ सुनते ही उनके पास दौड़ जाती।
हमारे घर आने के दो महीने बाद ही वह नये-दूध हुई थी। तब अम्मी ने कहा था, “अगर हमारी बकरी ने पहला बकरा दिया तो वह अल्लाह का नाम होगा।” यानी आनेवाली ईद-उल-अज़हा (बकरा-ईद) पर हम उसकी क़ुर्बानी करेंगे।
और फिर अगले पाँच महीनों तक वह हर नमाज़ में उस सास की तरह जिसकी बहू पहली बार हामला (गर्भवती) हो और वह अल्लाह से दुआ करती हो कि तू उसकी बहू को पहला बेटा ही देना... दुआ करती रही थीं, “ऐ अल्लाह तू हमारी बकरी को बकरा दियो। चाहे एक देना... लेकिन बकरा ही देना...।”
साथ ही वह उसके खाने-पीने का भी बहुत ख़याल करती। वह सुबह ही उसके सामने ताज़ी और हरी घास खाने को रख देती, जिसे छोटा भाई घास मंडी से ख़रीदकर लाया करता। दोपहर में वह उसके लिए भुस की ‘सानी’ किया करती और रात को मौसमी का गुद्दा खाने को देती, जिसे वह मोहल्ले के उन बच्चों को दो-पाँच रुपये देकर मँगवा लिया करती थीं जो बाज़ार में ढाबों, दुकानों और ठेलियों पर काम करने जाया करते थे।
ठीक पाँच महीने बाद जुमे के दिन बकरी बिआ गई और उसने बकरा ही दिया। काले रंग का। उस पर जगह-जगह सफ़ेद रंग के चित्तीदार धब्बे थे। अपनी माँ की तरह उसके भी नुकीले कान और माथे पर सफ़ेद निशान था। अकेला होने के कारण वह काफ़ी मोटा और स्वस्थ था। अम्मी उसे देखकर बहुत ख़ुश हुई थीं। होने के पाँच मिनट बाद ही उसने चलना शुरू कर दिया। अम्मी ने हाथ के नाख़ूनों से उसके खुरों को चूट दिया ताकि बड़े होने पर वे लम्बे और बेतरतीब न निकल आएँ। साथ ही उन्होंने उसका नाम भी रख दिया, ‘क़ुर्बान’।
अब वे दो हो गए थे। इसलिए अम्मी ने उन्हें घर में बाँधने की बजाय बैठक के आगे बनी एक छोटी-सी कोठरी में, जिसे हम लोग दुकान कहते थे, बाँधना शुरू कर दिया। वह उसे सारा दिन खुला रखतीं। रात को इशा की नमाज़ के बहुत बाद में जाकर उन्हें बाँधतीं। फिर सुबह फज़र की नमाज़ के वक़्त खोल देतीं। दुकान का दरवाज़ा बाहर सड़क पर खुलता। इसलिए जब सुबह में हममें से कोई एक उसे जाकर खोलता तो दरवाज़ा खुलते ही क़ुर्बान सड़क पर एक लम्बी दौड़ लगा देता। वह उछलता-कूदता दूर नहर तक जाता और फिर वापस आकर अपनी माँ की पिछली टाँगों के बीच घुस जाता। दूध पीते वक़्त वह अपनी छोटी-सी पूँछ को हाई-स्पीड से चलते पंखे की तरह फर-फर हिलाता रहता। बकरी के थनों में इतना दूध होता कि पीते-पीते उसके मुँह के दोनों ओर से सफ़ेद झाग निकलने लगते और फिर जब उसका पेट भर जाता तो वह छिंकता-धसकता इधर-उधर गर्दन हिलाने लगता।
नमाज़ पढ़कर अपने घरों को जाते लोग जब उसको दूध पीते हुए पूँछ हिलाते देखते तो वे हँसने लगते। हम भी उनसे मज़ाक में कहते, “आ जाओ ताऊजी... हवा खा लो...।”
स्कूल से आने के बाद शाम को हम दोनों भाई उसे और उसकी माँ को चराने ले जाया करते। कभी नहर पर तो कभी बाग़ में। कभी सड़क के इस तरफ़ तो कभी नहर के उस तरफ़। जहाँ वह चरता तो कुछ नहीं था बस सारा वक़्त हमारे पीछे भागता रहता। कभी हमें टक्कर मारता तो कभी हमारे पास आकर बैठ जाता। फिर मुँह के इशारे से हमें पीठ पर खुजाने को कहता। उसकी माँ की तरह उसके भी सींग नहीं निकले थे। अम्मी की ज़बान में वह मुंडा बकरा था।
क़ुर्बान अम्मी से कुछ ज़्यादा ही हिलमिल गया था। वह सारा दिन उनके पीछे-पीछे घूमता रहता। अगर वह बाहर तो बाहर और घर के अन्दर होतीं तो अन्दर। और जब वह नमाज़ पढ़तीं तो वो उनके मुसल्ले के सामने आकर बैठ जाता। फिर जब वह नमाज़ ख़त्म करके मुसल्ला उठाकर उसे अन्दर रखने जातीं तो वह भी उनके पीछे-पीछे अन्दर चला जाता। जहाँ वह उसे कभी मुट्ठी-भर गेहूँ, कभी मक्का तो कभी चने खाने को दे दिया करतीं। यह उसका रोज़ का काम था। हालाँकि वह हमेशा अन्दर कमरे में नहीं जाता था। बिजली के चले जाने पर जब कमरे में अँधेरा होता तो वह दरवाज़े पर ही रुक जाता और अम्मी के आने का इन्तज़ार करता। जब किसी दिन वह नहीं आता तो अम्मी बाहर गली के दरवाज़े पर खड़ी होकर कहती, “आ जा रे क़ुर्बान... ले... किटुउ-किटुउ...” और वह जहाँ कहीं भी होता अम्मी की आवाज़ सुनते ही फौरन दौड़ा चला आता।
कुछ ही महीनों में वह काफ़ी बड़ा हो गया। भारी और बलशाली भी। एक बार अब्बू जी उसे नहर पर घुमाने ले गए थे। वापसी में आते वक़्त पता नहीं उसे क्या सूझा कि एकाएक दौड़ पड़ा। उसका रस्सा हाथ में पकड़े अब्बू जी उसे पूरी जान लगाकर रोकने की कोशिश करते रहे। लेकिन वह रुका नहीं। उन्हें भी अपने साथ खींचता चला गया। जब उनसे उसके साथ भागा नहीं गया और उसका रस्सा उनके हाथ से फिसलता चला गया तो उन्होंने उसे छोड़ दिया। छूटते ही वह इतना तेज़ भागा कि घर आकर ही रुका। उसके पीछे-पीछे हाँफते हुए अब्बू जी आए, “इसमें तो मेरे से भी ज़्यादा जान है... साला बहुत तेज़ भागता है... आज इसने मुझे गिरा ही दिया होता...। माशाअल्लाह तुम्हारा बकरा बहुत अच्छा हो गया है तंज़ीला...”, उन्होंने अम्मी से कहा।
अम्मी उस वक़्त नमाज़ पढ़ने के बाद मुसल्ले पर बैठी हुई उँगलियों के पोरों पर तस्बीह पढ़ रही थीं। क़ुर्बान उनकी बगल में ही आ खड़ा हुआ। अब्बू जी की बात सुनकर उन्होंने मुस्कुराते हुए अपने दोनों हाथ उसकी गर्दन में डाल दिये और उसका लाड़ करते हुए कहा, “हे... आज तू इन्हें गिरा देता क़ुर्बान...”, फिर उसके मुँह पर अपनी नाक रगड़ते हुए बोली, “मेरा सोना बच्चा।”
रमज़ान के दिनों में वह और भी ठाड़ा (मोटा) हो गया था। उन दिनों दौड़ना तो दूर ज़ीने पर चढ़ते हुए भी वह हाँफने लगता। एक-एक पैड़ी पर बड़े आराम से और सुस्ता-सुस्ताकर चढ़ता। रमज़ान का महीना था। ईद आनेवाली थी और फिर उसके बाद बकरा-ईद। इसलिए शहर में उन दिनों चोरों का बड़ा शोर मचा हुआ था। पठानकोट में तो एक ही रात में कई घरों से बकरे चोरी हो गए थे। ख़ुद हमारे मोहल्ले में भी दिन में ही एक बकरी चोरी हो गई थी। इसलिए अम्मी ने अब उसे घर में ही बाँधना शुरू कर दिया था। वह भी अपनी चारपाई के पाये में। तो भी उन्हें सुकून नहीं था। वह रात को कई दफ़ा उठकर उसे देखतीं और उसकी पीठ पर हाथ फेरती रहतीं।
ईद से दो दिन पहले जब कोहरे की परत कुछ छँट गई और आसमान पर सूरज चमकने लगा और तेज़ धूप निकल आई तो अम्मी ने उसे नहला दिया। फिर अगले दिन शाम को जब उन्होंने अपने हाथों पर मेहँदी लगाई तो उसके पेट के सफ़ेद हिस्से पर भी मेहँदी से चाँद-तारा बना दिया।
ईद वाले दिन भी जब तेज़ धूप निकली तो उन्होंने उसे फिर नहला दिया। इस बार नहाने से उसकी हरे रंग की मेहँदी छूट गई और उसके नीचे से लाल रंग का चाँद-तारा निकल आया। नहलाने के बाद अम्मी ने एक पुराने शॉल से उसे पोंछ दिया और अपने साथ ऊपर धूप में ले गई, जहाँ वह सीर (सेवैयाँ) बना रही थीं। वहाँ उन्होंने उसे पिसी हुई मक्का और थोड़े भुने हुए चने खाने को दिये। फिर वह सारा दिन छत पर ही बैठा रहा।
दिन गुज़रते गए और फिर बकरा ईद का चाँद भी दिख गया। अम्मी क़ुर्बान का और भी ज़्यादा ख़याल करनी लगी थी। वह भी अब रात-दिन उन्हीं के इर्द-गिर्द मँडराता रहता। चाहे वह उसे कुछ खाने के लिए दे या न दे।
चाँद रात वाले दिन हम दोनों भाई बड़े ख़ुश थे। शाम को मग़रिब की नमाज़ के बाद जब चाँद दिख गया तो मोहल्ले के दूसरे बच्चों के साथ हमने भी पूरे मोहल्ले में घर-घर जाकर लोगों को ईद का सलाम किया और उनको ईद की मुबारकबाद दी। मोहल्ले में ख़ासी चहल-पहल थी और हर कोई क़ुर्बानी के बारे में बातचीत कर रहा था। जब लोग हमसे पूछते, “इस बार तुम किसकी क़ुर्बानी करोगे...?”
तो हम बड़े शान से जवाब देते, “हम तो बकरे की क़ुर्बानी करेंगे... आपने वो हमारा क़ुर्बान देखा है ना... उसी की...।” इस शान के पीछे भी एक राज़ था। क़ुर्बानी के जानवर से आपकी आर्थिक हैसियत का पता चलता है। वह समाज में आपके रुतबे और रसूख को प्रदर्शित करता है। जो लोग बकरे की क़ुर्बानी देते हैं वे ज़्यादा अमीर समझे जाते हैं और समाज में उनका रुतबा भी बढ़ता है।
हमारा जवाब सुनकर वो कहते, “माशाअल्लाह... माशाअल्लाह... तुम्हारा बकरा तो बहोत ठाडा है... उसमें तो ख़ूब गोश्त निकलेगा... हमें भी खिलाओगे या नहीं...।”
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं...? आप तो हमारे पड़ोसी हैं... आपका हक़ तो पहले बनता है...।”
घर से बाहर जितनी चहल-पहल और ख़ुशी थी, घर के अन्दर उतनी ही ख़ामोशी और उदासी पसरी थी। अब्बू जी मस्जिद गए और अम्मी अन्दर कमरे में पलँग पर बैठी हुई थीं। क़ुर्बान उनके पैरों के पास बैठा हुआ था। वह गुमसुम था। उसने पिछले दो दिनों में लगभग ना के बराबर ही खाया था। बल्कि कुछ खाया ही नहीं था। अम्मी के हाथ से भी नहीं।
अल-सुबह उठकर हम दोनों भाई अब्बू जी के साथ मस्जिद में नमाज़ पढ़ने गए। मस्जिद, जो आम दिनों में अन्दर के हिस्से को छोड़कर पूरी ख़ाली पड़ी रहती थी वह आज ऊपर से लेकर नीचे तक और अन्दर से लेकर बाहर तक नमाज़ पढ़नेवालों से ठसाठस भरी हुई थी।
मस्जिद से आकर हम लोग तैयार हुए और ईदगाह चले गए। वहाँ से आने पर देखा तो पूरे मोहल्ले में गेंदे के फूलों की माला पहने क़ुर्बानी के जानवरों और उन्हें घेरकर चलते टोपी पहने हिस्सेदार (बकरे को छोड़कर हर बड़े जानवर में सात हिस्सेदार होते हैं।) लोगों की बहार थी। उनके सिवा वहाँ और कोई दिखाई ही नहीं दे रहा था।
हमने भी क़ुर्बान को अच्छी तरह तैयार किया हुआ था। उसके गले में गेंदे और गुलाब के फूलों की माला पहनाई हुई थी। उसके माथे पर मेहँदी से चाँद-तारा बना था। वह बहुत अच्छा लगा रहा था। साथ ही उदास भी। अब्बू जी जब उसे क़ुर्बानी के लिए ले जाने लगे तो बहनें रोने लगी और अम्मी तो अन्दर वाले कमरे से बाहर ही नहीं निकली। उन्होंने मुझसे कहा, “चलो... इसे करवाना नहीं है क्या...?”
“आप जाएँ... मैं नहीं जाऊँगा... मुझे तो डर लगता है...”, यह कहकर मैं अन्दर चला गया। फिर उन्होंने तौहीद, जो छोटे होने के कारण भी बड़ा सख़्त दिल था, उससे कहा—“चल भई... जब वो नहीं जा रहा है तू चल...।”
तौहीद ने अब्बू जी के कहते ही क़ुर्बान की रस्सी पकड़ ली और उसे क़ुर्बानी के लिए लेकर चल दिया। लेकिन तभी अन्दर से छोटी बहन आई और क़ुर्बान के गले लगकर रोने लगी। उसने अब्बू जी से कहा, “अब्बू जी रहने दो... आप इसे न ले जाओ... हमें इसकी क़ुर्बानी नहीं देनी, आप किसी और की क़ुर्बानी दे दे...।”
“नहीं बेटा... हमने इसे बोल रखा... इसकी पैदाइश से भी पहले... और अल्लाह ने हमें यह क़ुर्बानी के लिए ही दिया... अब अगर हम पीछे हट गए तो अल्लाह नाराज़ हो जाएगा...।”
“अल्लाह इसकी क़ुर्बानी से कैसे ख़ुश होगा अब्बू जी...? वह तो अपने हर एक बन्दे से सात माँओं से भी ज़्यादा प्यार करता है... फिर यह तो बेचारा बेजुबान जानवर है... उसे इसकी क़ुर्बानी से क्या ख़ुशी मिलेगी...?”
“मुझे नहीं पता बेटा... लेकिन क़ुर्बानी अल्लाह का हुक़्म है... अब तुम अन्दर जाओ...।”
वह अन्दर आ गई और अम्मी के गले लगकर रोने लगी। साथ ही वह कह रही थी, “अम्मी, अब्बू जी क़ुर्बान को ले जा रहे हैं... आप उन्हें रोकती क्यों नहीं... वह उसकी क़ुर्बानी दे देंगे... फिर हम उसे कभी नहीं देख पाएँगे...।”
लेकिन अम्मी ने उसकी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया। वह सारा वक़्त ख़ामोश बैठी रही।
अब्बू जी और तौहीद के जाने के बाद मैं भी उनके पीछे-पीछे क़ुर्बानी वाली जगह चला गया। पर अब्बू जी वहाँ नहीं थे। बस तौहीद और मोहल्ले के चार-पाँच जवान लड़कों ने क़ुर्बान को ज़मीन पर लिटाकर उसे पकड़ा हुआ था। क़साई उसे क़ुर्बान करने के लिए अपनी छुरियाँ तेज़ कर रहा था। फिर जब उसने बिस्मिल्लाह पढ़कर उसकी गर्दन पर छुरी चलाई तो मैंने अपना मुँह दूसरी तरफ़ फेर लिया। मैंने देखा कि अब्बू जी दरवाज़े के पीछे छुपे हुए ग़मगीन खड़े थे और जब उन्होंने दर्द से कराहते क़ुर्बान की आवाज़ सुनी तो उनकी आँखों में आँसू आ गए थे। यह पहली और शायद आख़िरी बार था, जब मैंने अपने बाप को रोते हुए देखा था।
लोहे के एक बहुत बड़े टप में भरकर उसका गोश्त घर आया। लेकिन हममें से किसी ने भी उसका गोश्त चखा तक नहीं। अम्मी ने सारा-का-सारा मोहल्ले और रिश्तेदारों में बँटवा दिया। काम ख़त्म करने के बाद शाम को वह चारपाई पर लेट गई, पर रात को उन्हें बहुत तेज़ बुख़ार हो गया। बुख़ार की हालत में ही वह बार-बार अपनी चारपाई से नीचे झाँकतीं और कहतीं, “क़ुर्बान कहाँ चला गया... वह तो यहाँ है ही नहीं... देखना तो ज़रा... कहीं ऊपर तो नहीं चला गया।”
फिर जब वह नमाज़ पढ़तीं और सलाम फेरने के बाद क़ुर्बान को अपने पास न पातीं तो कहतीं, “क़ुर्बान तो आज आया ही नहीं... देखियो... बाहर तो नहीं बैठा कहीं...?” इसके बाद वह उठकर ख़ुद बाहर गली के दरवाज़े पर आ खड़ी होतीं और कहतीं, “आ-जा रे क़ुर्बान... ले... किटुउ-किटुअ...।” पर क़ुर्बान नहीं आता। वह तो अल्लाह के पास चला गया था, उसको ख़ुश करने।
अम्मी को जब इस बात का एहसास होता तो वह अपने मुँह पर दुपट्टा डालकर सुबक-सुबककर रोने लगतीं और कहतीं, “आ-जा रे क़ुर्बान... ले... किटुउ-किटुउ...।”
इसके बाद अम्मी ने फिर कभी कोई बकरी नहीं पाली। जो थी उसे भी बेच दिया था।
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