एक कहानी : असत्य का भौतिक प्रमाण

हम मानव सभ्यता की जिस अवस्था तक आ पहुँचे हैं, उसमें अब सत्य सत्यापित नहीं हो सकता। सत्यापित सिर्फ असत्य होता है। मेरा निष्कर्ष है कि चूँकि ईश्वर को सत्यापित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका कोई भौतिक प्रमाण कहीं मौजूद नहीं है, इसीलिए मेरे अपने जीवन अनुभव से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर इसलिए सत्य है।

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उदय प्रकाश की ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ संग्रह से उनकी कहानी ‘असत्य का भौतिक प्रमाण’

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यह तब की बात है जब विनायक दत्तात्रेय सरकारी कला और संस्कृति विभाग में नौकर थे, हालाँकि उन्हें वेतन, ताकत और सुविधाओं के कारण अफसर कहा जाता था। चूँकि वे यह मानते थे कि कलाएँ और संस्कृति अन्तत: गहरी संवेदनात्मक मानवीय सक्रियताएँ हैं, इसलिए यह उन्हें कतई सांस्कृतिक या कलात्मक न लगता कि वे अपनी मेज पर लगे प्लास्टिक के एक छोटे-से बटन को दबाएँ और उससे पैदा होनेवाली अजीब-सी आवाज से कोई जीता-जागता, एक अलग व्यक्तित्व, जीवनगाथा, विचार, स्वभाव और संवेदना का मनुष्य दौड़ता हुआ उनके पास आए और वे उससे पानी, चाय, सिगरेट, कागज या कोई दूसरी ऐसी निहायत मामूली, तुच्छ, कृत्रिम और बेजान-सी चीज मँगाएँ।

यह उन्हें ठीक न लगता कि जहाँ आदमी होने के बावजूद वे एक प्लास्टिक के नगण्य और निर्जीव बटन को दबाते हैं, वहीं एक दूसरा उनके जैसा ही जीवित मनुष्य, मनुष्य होने के बावजूद, उसकी यांत्रिक आवाज सुनकर अपना समूचा शरीर लिये हुए दौड़ता-हाँफता उनकी मेज तक चला आता है। यह तकनीक द्वारा प्रकृति और मनुष्य को गुलाम बनाने का एक अत्यन्त मार्मिक और दहला डालनेवाला उदाहरण था। विडम्बना यह थी कि स्वयं मनुष्य ही इस षड्यंत्र में शामिल था।

चुनाव इत्यादि होते रहने के बाद भी यह ठीक मानवीय लोकतंत्र नहीं है, और यह आधुनिकता तो बिलकुल नहीं है। बल्कि यह तो दरअसल मानव समाज में निरन्तर पाई जानेवाली ऐसी असभ्य असमानता है, जहाँ कमजोर और गरीब मनुष्य ताकतवर और अमीर मनुष्य के सामने गुलामी की इस पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया गया है कि वह राजाओं की सेना और पुलिस या महाजन के लठैतों और गुमाश्तों के डर के कारण नहीं, बल्कि एक छोटे से प्लास्टिक बटन पर होनेवाली एक उँगली की मामूली-सी हरकत पर दौड़ता-भागता चला आता है। और हद तो ये है कि ये काम वे लोग करते हैं जो अपने आपको कवि या संस्कृतिकर्मी या कलाकार आदि कहते हैं। ऐसा वे सोचते।

प्रविधि दरअसल आदमी को ज्यादा-से-ज्यादा गुलाम बनाने की ही युक्ति है, और इस युक्ति को उन बहुत थोड़े-से लोगों ने विकसित किया है, जो ज्यादा आदमियों को कुछ थोड़े-से आदमियों के बराबर नहीं देखना चाहते। ऐसा विनायक ने अपनी डायरी में लिख रखा था।

इसीलिए जब उन्हें प्यास लगती, तो वे खुद जाते और कूलर या जग से पानी गिलास में उड़ेलकर पी लेते। सिगरेट पीना होता तो सड़क के पार सिगरेट की दुकान तक चले जाते और वहीं माचिस जलाकर उसे सुलगाते और सुट्‌टे लगाने लगते। कई बार उन्हें बीड़ी पीने की इच्छा होती और वे बीड़ी पीने लगते। चाट या चाय की तलब होती तो ऑफिस के पास के एक ढाबे की गन्दी-सी बेंच पर, जहाँ हर वह आदमी बैठता था, जो वहाँ चाय पीने आता, वह भी बैठकर इत्मीनान से चाय पीते या चाट खाते। अगर इस दौरान उधर से उनका कोई परिचित गुजर रहा होता तो उसे वे जोरों से आवाज लगाकर पूछते कि भाई साहब, आप चाय पिएँगे? या चाट खाएँगे? उन्होंने देखा था कि उनके इस तरह बुलाने पर चपरासी या सफाई कर्मचारी या बाबू टाइप लोग तो उनके पास चले आते, लेकिन उनके पद के बराबर या उससे ऊपर के ओहदे के लोग कतराकर, या कोई बहाना बनाकर आगे निकल जाते। इसी तरह की कई और चीजें भी वे करते। ये वे काम थे, जिनके बारे में मान्यता थी कि इन्हें किसी अफसर को नहीं करना चाहिए। हालाँकि ऐसा उनकी सर्विस बुक में या राज्य सरकार के किसी औपचारिक ऑफिशियल प्रपत्र में कहीं नहीं लिखा था, लेकिन ऐसा ही अलिखित नियम प्रचलन में था।

मैं एक दिन यह पता लगाकर रहूँगा कि यह नियम किसने बनाया—अंग्रेजों ने, मुगलों ने, ब्राह्मणों ने, सामन्तवाद ने, लोकतंत्र ने, समाजवाद, नौकरशाही या ईश्वर अथवा शैतान ने? उन्होंने यह भी अपनी डायरी में लिख रखा था। हालाँकि विनायक दत्तात्रेय बहुत योग्य, कर्मठ और ईमानदार अफसर थे, लेकिन वे सरकार में लगातार विवादग्रस्त और सन्दिग्ध होते चले गए। उनके बारे में विभाग के कई तरह के मजाकिया किस्से और लतीफे चलते।

इन्हीं दिनों एक अखबार में संस्कृति विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनियमितता और भाई-भतीजावाद के बारे में हर रोज नियमित लेख आने लगे। उन लेखों को कोई व्यक्ति ‘अन्तर्यामी खैरनार’ के छद्म नाम से लिखता था। वे लेख बहुत तथ्यपरक, सनसनीखेज, विचारोत्तेजक, प्रामाणिक और साहसिक होते।

विभाग में अफरा-तफरी मच गई। बॉस ने मीटिंग में कहा, यह काम कोई ऐसा आदमी कर रहा है, जिसे विभाग के बारे में बहुत सारी जानकारियाँ हैं और उसकी भाषा में साहित्य की नैतिक परम्पराओं तथा उत्कृष्ट शिल्प का प्रभाव है। परन्तु जैसा राजनीतिक और प्रशासनिक जनतंत्र हमने इन पचपन सालों में विकसित किया है, उसमें ऐसे आदमी से खतरनाक कोई हो नहीं सकता, जो जनता को सरकार के बारे में ऐसी अपारम्परिक भाषा और शिल्प में सूचित करे। अखबारों में छपनेवाली सूचनाओं की भाषा तो अब सिर्फ अखबारों के लिए ग्राहक जुटाने या मालिक के लिए विज्ञापन और सम्पर्क भिड़ाने के काम आती है, जबकि इन लेखों की भाषिक संरचना और उनके विन्यास को ध्यान से देखें तो उनका उद्देश्य एक साथ मानवीय, सामाजिक और आध्यात्मिक लगता है। सरकार की विश्वसनीयता और हमारे विभाग से जुड़े बौद्धिकों की गरिमा और प्रतिष्ठा को बचाए रखने के लिए इस आदमी का तत्काल पता लगाया जाना चाहिए।

बॉस ने कहा कि यह आदमी हमारे जनतंत्र, प्रशासन और हमारे सांस्थानिक ढाँचों के लिए उतना ही खतरनाक है, जितना अमेरिका के लिए पहले रूस, फिर वियतनाम, फिर इराक और आगे चलकर ओसामा बिन लादेन हुआ।

अगले दिन एक स्थानीय अखबार में, जिसमें सरकारी विज्ञापन सबसे ज्यादा छपते थे, एक छोटी-सी खबर छपी। इस खबर के मुताबिक—‘शहर के कुछ लेखक किस्म के बुद्धिजीवियों की राय में उस सरकारी विभाग और उसके अधिकारियों के भ्रष्ट और अनैतिक आचरणों के बारे में ये लेख कोई और नहीं, उसी विभाग के क्लास वन अफसर श्री विनायक दत्तात्रेय लिखते हैं।’

कुछ दिनों बाद कुछ गम्भीर तथा उत्कृष्ट कही जानेवाली साहित्यिक पत्रिकाओं में भी, जो सरकारी विज्ञापनों और ऊँचे अफसरों के सृजन और अनुदानों के कारण प्रकाशित होती थीं, ऐसे लेख छपे, जिनमें श्री अन्तर्यामी खैरनार के उन लेखों तथा विनायक दत्तात्रेय की रचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन और उत्तर-आधुनिक पाठालोचन तथा विखंडन पद्धति द्वारा यह सिद्ध किया गया था कि भाषिक संरचना, शिल्प, शब्द-प्रीति, विन्यास तथा अवधारणात्मक समरूपता के आधार पर यह प्रकट होता है कि इनको लिखनेवाला कोई एक ही लेखक है। और चूँकि श्री अन्तर्यामी खैरनार नामक किसी लेखक का कोई भौतिक साक्ष्य कहीं उपलब्ध नहीं है, अत: निस्सन्देह संस्कृति विभाग, उसके अधिकारियों और उनके चीफ के कदाचार, अवैध कामकाज और भ्रष्ट आचरण से सम्बन्धित ये लेख श्री विनायक दत्तात्रेय ने ही लिखे हैं।

विनायक दत्तात्रेय चुप रहे। वे बचपन से मानते आए थे कि झूठ के पैर नहीं होते और सत्य की ही हमेशा विजय होती है। इसलिए वे हमेशा की तरह नौ बजे दफ्तर जाते, अपना काम करते और घर लौटकर लिखते, पढ़ते, गाते-बजाते या चित्र बनाते।

एक दिन उन्हें संस्कृति विभाग के बॉस ने अपने कमरे में बुलाया।

बॉस ने गहरी आँखों से उन्हें देखा और मुस्कराया। दत्तात्रेय भी मुस्कुराए। बॉस जवाब में और ज्यादा मुस्कुराया। इस जवाब के उत्तर में विनायक भी और ज्यादा मुस्कुराए। ऐसा दो-तीन बार हुआ। लगता है कि विनायक दत्तात्रेय की मुस्कुराहट उस नियंत्रण रेखा तक पहुँच गई थी, जिसके आगे मुस्कुराहट इसलिए सम्भव नहीं थी, क्योंकि अब बिना दाँत निकाले इसका जवाब दिया नहीं जा सकता था। इसलिए अब बॉस को अपने दाँत निकालने पड़े। वह हँसा। इसके उत्तर में विनायक दत्तात्रेय को अधिक हँसना पड़ा, जिसमें उन्हें और ज्यादा दाँत निकालने पड़े। इसके जवाब में बॉस को थोड़ा और हँसना पड़ा, जिसमें और अधिक दाँत निकालने की जरूरत पड़ी। इस तरह वह नियंत्रण रेखा या लाइन ऑफ कंट्रोल आ पहुँची, जिसमें अब दाँत की जगह आवाज की भूमिका शुरू होती थी।

‘हह...हह...हह...।’ बॉस हँसा।

‘हह...हह...हह...हहा...हहा...।’ इसके जवाब में विनायक हँसे।

‘हह...हह...हहा...हाहा...हाहा।’ बॉस और ज्यादा हँसा।

‘हाहा...हाहा...हाहा...हाहाहा...हाहाहाहा।’ विनायक दत्तात्रेय को और ज्यादा हँसना पड़ा।

‘हाहाहा...हाहा...हाहाहाहा...हह...हाहा...हाहाहाहाहाहा।’ यह बाॅस का ठहाका था।

‘हाहाहाहाहा...हूहूहूहू...हूहाहा...हूहूहा...हाहूहाहू...हाहूहूहूहूहू।’ और ज्यादा हँसने की कोशिश में इस बार दत्तात्रेय को खाँसी आ गई। उनकी साँस गले में कहीं फँस गई थी और वहाँ से सिर्फ ‘ऊआ...आऊ...’ की आवाज निकल रही थी। बॉस ने विजेता की दृष्टि से उन्हें देखा। दत्तात्रेय वास्तव में पराजित हो चुके थे। वह वस्तुत: जीत गया था।

विनायक दत्तात्रेय ने बड़ी मुश्किल से अपनी खोई हुई साँस वापस खोजी और हारे हुए व्यक्ति की आँखों से बॉस को देखा।

बॉस का चेहरा सख्त हो चुका था। पत्थर जैसा सपाट और खुरदरा। उसे देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि अभी कुछ पल पहले ही यह आदमी दाँत निकाल रहा था और इस कदर हँस रहा था।

‘आपको ऐसा काम नहीं करना चाहिए। मुझे शक तो था लेकिन यकीन नहीं था।’ यह बॉस की काफी मोटी और परा-मानवीय आवाज थी।

‘कौन-सा काम?’ विनायक दत्तात्रेय ने बहुत कोशिश करके वैसी ही परा-मानवीय आवाज अपने गले से निकालनी चाही, लेकिन चूँकि अभी-अभी वे खाँस चुके थे और उनको अपनी साँस बड़ी मुश्किल से वापस मिली थी, इसलिए एक खरखराती हुई, बारीक और गरीब-सी आवाज उनके गले से निकल पाई। उन्होंने एक प्रयत्न और किया—‘आपको क्या शक और यकीन था?’ यह कुछ ठीक आवाज थी। लेकिन वैसी नहीं, जिसके लिए उन्होंने प्रयत्न किया था। वे बहुत सन्तुष्ट नहीं हुए।

बॉस दाहिनी ओर झुका और उसने मेज की दराज को खींचकर उसमें से एक कागज का टुकड़ा निकालकर मेज पर रख दिया। यह मनीऑर्डर की पावती थी। उस पर लिखा था :

श्री अन्तर्यामी खैरनार

द्वारा श्री विनायक दत्तात्रेय

अधिकारी संस्कृति विभाग

इसके बाद उस दफ्तर और शहर का नाम था, जहाँ दत्तात्रेय काम करते थे। यह मनीऑर्डर उसी पत्रिका के कार्यालय से भेजा गया था, जिसमें वे विवादास्पद लेख छपते थे और इसे दत्तात्रेय के निजी सचिव ने रिसीव किया था। सिद्ध था कि दत्तात्रेय और अन्तर्यामी खैरनार दोनों एक ही व्यक्ति थे।

‘यह झूठ है। मुझे नहीं मालूम अन्तर्यामी खैरनार कौन है। मैं ऐसे किसी आदमी को नहीं जानता।’ विनायक दत्तात्रेय ने कहा।

बॉस थोड़ी देर तक उस कागज के टुकड़े की ओर देखता रहा, फिर उसने कहा, ‘अब आप जाइए। आपके साथ हँसते-हँसते मेरा गला दर्द करने लगा।’ उसने उस कागज को वापस दराज में रख लिया।

दूसरे दिन विनायक दत्तात्रेय ने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अपनी डायरी के एक पन्ने पर लिखा है :

सच यह है कि मैं यह नहीं जानता कि अन्तर्यामी कौन है और सत्य यह भी है कि उस नाम से मैंने कभी कोई लेख नहीं लिखा। लेकिन इस सच को प्रमाणित करने के लिए मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है। जब कि यह झूठ है कि मैं ही अन्तर्यामी खैरनार हूँ लेकिन इस झूठ का भौतिक प्रमाण मौजूद है और वह सरकार के संस्कृति विभाग के उस भ्रष्ट अधिकारी की मेज की दराज में फिलहाल बन्द है।

इसके बाद दत्तात्रेय की डायरी की कई पंक्तियों में काफी काटा-पीटी है। वाक्यों को काटते हुए उनके ऊपर कलम को इतना घिसा गया है कि यह समझ में नहीं आता है कि वहाँ आखिर लिखा क्या गया था। लगता है कि उस समय दत्तात्रेय काफी मानसिक उलझन और तनाव में थे। पन्ने के अन्त में कुछ वाक्य ऐसे हैं, जो पढ़े जा सकते हैं।

हम मानव सभ्यता की जिस अवस्था तक आ पहुँचे हैं, उसमें अब सत्य सत्यापित नहीं हो सकता। सत्यापित सिर्फ असत्य होता है। मेरा निष्कर्ष है कि चूँकि ईश्वर को सत्यापित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका कोई भौतिक प्रमाण कहीं मौजूद नहीं है, इसीलिए मेरे अपने जीवन अनुभव से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर इसलिए सत्य है।

और जिन-जिन चीजों का भौतिक प्रमाण मौजूद है, वे अधिकतर झूठ हैं भले ही उन्हें लोग सच मानें। वे बेचारे तो यह भी नहीं जानते कि वे सिर्फ झूठ के पुतले हैं। वे अपने आपको मनुष्य इसलिए कहते हैं क्योंकि उसका भौतिक प्रमाण उनके शरीर के रूप में सबके सामने है। सत्य यह है कि वे वास्तव में ऐसे झूठ हैं जो सिर्फ अपनी देह से सत्यापित हुआ करते हैं।

विनायक दत्तात्रेय के वैराग्य और विपन्नता के कारण को सम्भवत: उनकी डायरी के इन वाक्यों के द्वारा समझा जा सकता है।

विनायक दत्तात्रेय की डायरी के इस पन्ने पर बीसवीं और इक्कीसवीं, दोनों शताब्दियों की तारीखें पड़ी हैं।

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