संजीव की कहानी 'ज्वार'

इनसानी मसले सियासत और मजहब वाले तय करते हैं, वही तय करते हैं हमारी तकदीरें...हमसे पूछा तक नहीं जाता। इथियोपिया, सोमालिया, तुर्की, मध्य एशिया, कैरेबियन कंट्रीज—कहाँ नहीं! यहाँ भी तो वही...! समाजशास्त्री कहेंगे, सभ्यताओं और संस्कृतियों का यह एक सामान्य-सा अन्त:प्रवाह है। मगर आबादियों के इस विस्थापन में हुई बर्बादियों की दास्तान कौन सुनना चाहेगा? एक बार जब टूटता है तो कितना कुछ टूट और छूट जाता है! जुड़ता क्या है...गाँठ पर पनपा जीवन का नया अध्याय! 

कथाकार संजीव को वर्ष 2023 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार देने की घोषणा हुई है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनकी ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ से एक कहानी ‘ज्वार’

...

माँ बताती थीं कि हम फरीदपुर के ‘सोनारदीघी’ गाँव से आए हैं, जो अब पाकिस्तान में है। सन् 71 में ‘बांग्लादेश’ बन जाने के बाद भी वे इसे ‘पाकिस्तान’ ही कहती रहीं। उस पार से आए कई बंगाली ‘ओ पार बांग्ला, ए पार बांग्ला’ (उस पार का बंगाल, इस पार का बंगाल) कहकर दोनों को जोड़े रहते, माँ ही ऐसा न कर सकीं। जाने कौन-सी ग्रंथि थी! ऐसा भी नहीं कि ‘उस पार’ के लिए उन्होंने अपने खिड़की-दरवाजे पूरी तरह से बन्द कर लिये थे। ‘इस पार’ आ जाने के बाद भी काफी दिनों तक उनकी जड़ें तड़पती रहीं वहाँ के खाद-पानी के लिए—वे लहलहाते धान के खेत, नारियल के लम्बे-ऊँचे पेड़, आम-जामुन के स्वाद, चौड़ी-चौड़ी हिलकोरें लेती नदियाँ, नदियों के पालने में झूलती नावें, रात में नावों से उड़-उड़ कर आते भटियाली गीत—

मॅन माझी तोर बइठाले रे,

आमी आर बाइते पारलॉम ना;

बाइते बाइते जीवॅन गेलो,

कूलेर देखा पाइलाम ना।

(हे मन के माझी, अपनी डाँड़ सँभालो, मुझसे अब और नहीं खेया जाता। खेते-खेते जीवन बीता, लेकिन कहीं किनारा नहीं दिखा...।)

छुलक-छुलक पानी की आवाज मानो ताल देती और गीत की टेर दिगंत तक फैलती जाती!

माँ अक्सर उन ‘टोंगा’ (मचानों) का जिक्र करतीं, जिन पर पानी से बचने के लिए पूरा परिवार बैठा होता। आम-जामुन के साथ-साथ कभी-कभी ‘सिलेट करवे’ के कमला नीबू की याद करतीं जिनके सामने दार्जिलिंग और नागपुर के संतरे उन्हें फीके लगते। मछलियाँ तो मछलियाँ, कच्चू डाँटा (अरबी की डंठल), मोचाई (केले के फूल), ओल (सूरन) की ऐसी उम्दा सब्जी बनातीं कि हमें पूछना पड़ता, “माँ तुमने इतनी बढ़िया तरकारी बनाना कहाँ से सीखा?”

“वहीं से, वहाँ की औरतों के बारे में कहावत है कि जूते का तलवा भी राँध दें तो खाने वाले उँगलियाँ चाटते रह जाएँ।”

“सारा कुछ अच्छा ही अच्छा था तो आप लोग चले क्यों आए वहाँ से?” हम पूछते। माँ हर बार इस प्रश्न पर मौन साध लेतीं।

मैं कभी इसके पहले ‘सोनारदीघी’ आई नहीं लेकिन माँ ने इतनी बार इन चीजों का जिक्र किया था कि मन के किसी अन्त:पुर में एक सोनारदीघी बस गया है जहाँ सुविधानुसार मैं कभी नारियल, सुपारी के पेड़ों को एक ओर कर देती कभी दूसरी ओर। कभी नदी को बगल में ले आती, कभी दूर कर देती। कभी सारा परिवेश ही कच्चू के बड़े-बड़े पत्तों से भर जाता, और कभी आम-जामुन के पेड़ों से...। आज सोनारदीघी आते हुए मेरे कल्पना-लोक में बार-बार खलल पड़ रहा है। नदी भी है, पेड़-पल्लव भी हैं, मगर कुछ अलग-से। लुंगियाँ पहने पुरुष, धोती एक भी नहीं। अलबत्ता औरतें साड़ी में ही हैं। वह स्कूल जो अभी भी है, मगर पक्का बन गया है—माँ ने यहीं ककहरा सीखा होगा। दूसरा स्कूल भी तो हो सकता है? ज्यादा टोक-टाक ठीक नहीं।

सन् 47 में पार्टीशन के समय सिर्फ माँ, नानी और नाना ही बॉर्डर पार कर पाए थे। दंगाइयों ने मझली मौसी का अपहरण कर लिया था, एक मामा मार डाले गए थे, बाकी छोटी मौसी और बड़के मामा वगैरह जैसे-तैसे जान बचाकर लौट गए थे सोनारदीघी। स्थिति सामान्य होने पर वे मिलने आए। तब तक हम बर्द्धमान में बस गए थे। मेरा जन्म बांग्लादेश बन जाने के बाद हुआ था। पाँच साल की हुई तभी अणिमा दी को देखा था। छोटकी मौसी अपनी इस सात साल की बेटी को लेकर अपने इस परिवार से मिलने आई थीं। आज अणिमा दी को छोड़कर उस परिवार में कोई नहीं बचा। वे अपनी ससुराल से वापस सोनारदीघी आ गई थीं। पत्रों से इतना भर ही मालूम हुआ था। ये भी दस साल पहले की बातें। अब तो सालों से पत्रों का सिलसिला भी टूटा हुआ है।

क्या पता, कितने हिन्दू बचे हैं यहाँ। सुना था, बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद बहुत से मंदिर तोड़ डाले गए थे। अभी तक इस रास्ते में एक भी मंदिर नहीं मिला। खालिदा जिया के शासनकाल में मौलवाद फिर से लौट आया है। कैसे रहती होंगी अणिमा दी?

क्या खूब विडम्बना है! हमें भी यहाँ पश्चिम बंगाल में ‘ईस्ट बंगाल’ का माना जाता है, ‘बांगाल’। मोहन बागान और ईस्ट बंगाल की फुटबाल प्रतियोगिता में ‘घोटी-बॉटी’ (कलश-कटोरे) या ‘ईस्ट-वेस्ट’ का फर्क पूरी तरह से प्रेसीपिटेट कर जाता है। लोग हमारी जाति तक पर शक करते हैं। बेचारी अणिमा दी अपनी ही जन्म-भूमि, अपने ही वतन में विजातियों, विधर्मियों के बीच निर्वासन भोगने को अभिशप्त हैं। हम इत्ता-सा बर्दाश्त नहीं कर पाते, ‘बांगाल’ कहते ही तिलमिला उठते हैं। कैसे सहती होगी दीदी इसे आठों पहर?

मैं एक मुहाजिर जैनुल को जानती हूँ, उसका बाप बिहार से बांग्लादेश गया था, जो तब पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था। मुक्ति संग्राम के बाद फिर उसे भागकर पश्चिमी पाकिस्तान जाना पड़ा। उसकी वफादारी पर भारत में भी शक किया गया, बांग्लादेश में भी और पाकिस्तान में भी...! उसने धर्म को एक मुकम्मिल और भरोसेमन्द आइडेंटिटी एवं सुरक्षा कवच समझा, पर ऐसा हो नहीं पाया। इनसानी मसले सियासत और मजहब वाले तय करते हैं, वही तय करते हैं हमारी तकदीरें...हमसे पूछा तक नहीं जाता। इथियोपिया, सोमालिया, तुर्की, मध्य एशिया, कैरेबियन कंट्रीज—कहाँ नहीं! यहाँ भी तो वही...! समाजशास्त्री कहेंगे, सभ्यताओं और संस्कृतियों का यह एक सामान्य-सा अन्त:प्रवाह है। मगर आबादियों के इस विस्थापन में हुई बर्बादियों की दास्तान कौन सुनना चाहेगा? एक बार जब टूटता है तो कितना कुछ टूट और छूट जाता है! जुड़ता क्या है...गाँठ पर पनपा जीवन का नया अध्याय! ओह! इस मनहूस जैनुल की याद भी अभी ही आनी थी! मेरे साथ का पुलिस का जवान सुहेल साइकिल पर चल रहा था और मैं रिक्शे पर थी। गाँव में प्रवेश करते ही एक चाले (झोंपड़ी) में चाय की दुकान पर कुछ लोग अड्डा जमाए हुए थे। मैंने पूछा, “दादा, एई ग्रामे नीहार सिंघॅ थाहेन कुथाय?” (भाई, इस गाँव में नीहार सिंह कहाँ रहते हैं?)

जवाब में कई सवालिया आँखें मुझ पर उठ गईं। मुझसे क्या भूल हुई? अपने तईं तो मैंने पूरी सावधानी बरत रखी थी। जीन्स छोड़ कर साड़ी पहन रखी थी मैंने, भाषा भी...न न, भूल हुई ‘एई’ की जगह ‘हेई’ कहना चाहिए था। मैं कट कर रह गई पर अब तो जो होना था, हो चुका। अड्डे वालों में आपस में कानाफूसी हुई, फिर एक साँवला-सा प्रौढ़ बोला, “की नाम कोइलेन, नीहार सींघॅ?” (क्या नाम बोलीं, नीहार सिंह?)

“आज्ञे हें।”

(जी हाँ।)

“नीहार सिंघा बोइल्ला काऊ रे तो जानी ना...।”

(नीहार नाम के किसी आदमी को तो जानता नहीं।)

“सिंघॅ सोब पलाई गेछे।” (सारे सिंह भाग गए हैं।) एक सम्मिलित ठहाके का श्लेष मुझे तेजाब-सा भिगो गया।

“आपनार बाड़ी कुथाय?” (आपका घर कहाँ है?)

चुगली खाती मेरी भाषा विश्वसनीय नहीं थी, सो अब मुझे आंचलिक भाषा का दामन छोड़कर सीधे मानक बांग्ला पर उतरना पड़ा। मैंने बांग्ला में बताया, “मैं बर्द्धमान, पश्चिम बंगाल से आई हूँ। बँटवारे के समय यहीं से गए थे हमारे पूर्वज। कभी इस गाँव में एक उज्ज्वल सिंह हुआ करते थे। मैं उन्हीं की नातिन हूँ। नीहार सिंह मेरे मौसेरे बहनोई हुए और अणिमा दी मौसेरी बहन। इधर आई थी तो सोचा अपना पुश्तैनी घर देख लूँ और परिवार के लोगों से मिलती चलूँ।”

अब गाँव के कुछ और लोग भी जुटने लगे थे। वे आपस में बतियाकर मुझे घूर रहे थे। उनकी नजरों में मैं संदिग्ध थी या निषिद्ध।

उस प्रौढ़ ने एक किशोर को पुकारा, “ताहिर! जरा इन्हें सलाहुद्दीन शेख के घर पहुँचा आओ तो!”

सलाहुद्दीन शेख! यह क्या बात हुई। मुझे अपनी पसलियों में एक मनहूस किस्म के खौफ की चुभन महसूस हुई।

कच्ची सड़क पर एक मध्ययुगीन बैलगाड़ी चली आ रही थी। बारिश से बचने के लिए उस पर बाँस की चटाई का चन्दोवा तना था। कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। दूर-दूर पर वही पुआल के छप्पर वाले घर, कहीं-कहीं दो मंजिलें भी और टीन की छत भी। जहाँ-तहाँ केले के स्तम्भ थे, कहीं-कहीं बँसवारियाँ भी। सड़क के दोनों ओर नारियल के पेड़ थे, कुछ साबुत, कुछ टूटे हुए या ठूँठ। शायद बार-बार की आने वाली झड़-झंझा (तूफान) का प्रकोप था। खेतों में इस मौसम में उपजने वाली अन्न की बालियाँ लहरा रही थीं, कहीं-कहीं झींगा (तरोई) और दूसरी सब्जियाँ भी। थाने का सिपाही अपनी साइकिल घसीटते हुए ताहिर से बात कर रहा था। भाषा कहीं-कहीं अबूझ हो जाती। इतना भर पता चला कि वह यहाँ मजूरी करने आया है। आज काम नहीं मिला, सो बेकार है। पता नहीं, कब तक काम मिलेगा। माँ-बाप कौन थे, कहाँ का मूल निवासी है, उसे कुछ पता नहीं।

मुझे ढाका और दूसरे शहरों के हजारों लावारिस बच्चों के बारे में बताया गया था कि उनमें से अधिसंख्य वे बच्चे थे जो बांग्लादेश युद्ध के दौरान बाहरी फौजियों के बलात्कार से जन्मे थे। उन अभागों को किसी ने नहीं अपनाया, अपने ही ढंग से वे जैसे-तैसे पले-बढ़े, जवान हुए। फिर उनके बच्चे हुए। लावारिसों की दूसरी खेप। भयंकर गरीबी, ऊपर से महँगाई की मार। दिल्ली, मुम्बई, दुबई और लन्दन तक फैल गई यह अमर बेलि।

सिपाही ने मेरी ओर इशारा कर ताहिर से कुछ कहा। ताहिर झेंपते हुए मेरे साथ-साथ चलने लगा, “मुझको भी साथ ले चलिए न दीदी, सभी तरह के काम कर सकता हूँ।”

“लेकिन मैं भला कैसे लिवा ले जा सकती हूँ तुम्हें?”

“क्यों सलाहुद्दीन के लड़कों को ले जाने आई हैं। मैं तो उनसे भी गरीब हूँ। उनके तो माँ-बाप भी हैं, जमीन भी है, नाव भी; मेरा तो कुछ भी नहीं।”

मैं अवाक् रह गई, “तुम्हें किसने बताया कि मैं सलाहुद्दीन के या किसी और के बच्चों को ले जाने आई हूँ। मैं तो उन्हें जानती भी नहीं। मैं तो नीहार सिंह का पता करने जा रही हूँ, जो मेरे मौसेरे बहनोई हैं।”

“ओह!” ताहिर निराश हो गया, फिर बोला, “लेकिन मैं यहाँ छह महीने से हूँ, नीहार सिंह या किसी हिन्दू परिवार का नाम नहीं सुना। खैर, देखिए, पूछिए शायद पता लग ही जाए। बस्ती तो यही है।”

मैं एक-एक घर को देखती हूँ, ये घर होगा, नहीं वो, नहीं, ताहिर तो आगे बढ़ गया, शायद आगे...। माँ किसी नदी का जिक्र करती थीं, जिसका पानी, ज्वार के समय मचान के नीचे तक फैल जाता। न अभी तक कोई मचान मिला, न नदी की झलक। एक घर के पास ताहिर आकर रुक गया, सिपाही ने साइकिल खड़ी कर दी, “यही है।”

फूस की छाजन। एक कोने में एक बकरा बँधा था, दूसरे कोने में एक गाय, सामने मुर्गियाँ और उनके छोटे-छोटे चूजे चिक-चिक करते टहल रहे थे। बच्चे सिर पर टोपी लगाए मदरसे में पढ़ने जा रहे थे। टिपिकल मुसलमानी घर।

“शेख मोशाय कहाँ हैं, देखिए आपसे मिलने आई हैं।” सिपाही ने आवाज दी। उस घर से एक औरत निकली, फिर देखते-देखते दूसरे घरों से अन्य औरतें। कुछ मर्द भी। सभी आँखें फाड़-फाड़ कर मुझे देखने लगे।

“सलाहुद्दीन तो ढाका गए हैं, उनकी बहू है।” एक औरत ने बताया।

“उन्हें ही बता दीजिए।” सिपाही सुहेल ने कहा।

“नया आदमी देख रही हूँ।” आँखों पर हाथ की ओट बनाकर एक बूढ़ी ने मेरे चेहरे में झाँका। मैं झेंप गई।

“हिन्दू प्रेस रिपोर्टर हैं। बर्द्धमान से आई हैं।” सिपाही ने कहा।

“यहाँ...?”

“यहाँ अपने बहनोई किसी नीहार सिंह को ढूँढ़ने आई हैं। कहती हैं, इनके पूर्वज इसी गाँव से गए थे।”

बूढ़ी थोड़ी गम्भीर हुई, “थाने का परमिशन है?”

“हाँ, तभी तो मैं साथ-साथ आया हूँ।”

“बूड़ी, ओ अंजुमन बूड़ी, देखो तो भारत से कौन आया है तुमसे मिलने।”

“अंजुमन बूड़ी!” शब्दों को मैंने चुभलाया। याद आया बर्द्धमान आई थीं तब अणिमा दी का भी पुकारने का नाम ‘बूड़ी’ ही था। तो क्या अणिमा सचमुच ही ‘अंजुमन’ बन गई और नीहार सलाहुद्दीन?

अन्दर से तेज-तेज चलकर कोई स्त्री आई और चौखट के फ्रेम में फ्रीज हो गई जैसे हुलास के वेग पर असमंजस की लगाम लग गई हो। हाँ, वही गंदुमी गोल चेहरा, चेहरे में जड़ी वही बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आँखें!

मैं अपने को और रोक न सकी। मैंने दौड़कर अणिमा दी को बाँहों में भरकर भींच लिया। “दीदी! दीदी! मेरी दीदी। कितने दिन बाद देख रही हूँ अपनी अणिमा दी को। पहचाना मुझे, मैं तुम्हारी शिखा हूँ—गुड्डी।”

“छोड़ो मुझे। मैं किसी शिखा, किसी गुड्डी को नहीं जानती।”

मुझे गहरा धक्का लगा। तो क्या मैं किसी मुर्दे को पकड़े हुए थी? हाथों के बन्द ढीले पड़े। काफी औरतें जमा हो गई थीं। मेरी स्थिति हास्यास्पद होती जा रही थी। मैं सफाई पर उतर आई, “याद है दीदी, जब आप बर्द्धमान आई थीं, मैं इत्ती-सी थी।” मैंने हाथ से पाँच साल के बच्चे का कद बताया, “मैं पाँच साल की थी, आप सात साल की। मुझे गोद में लेकर घूमा करती थीं। उठा नहीं पाती थीं पूरी तरह। एक बार लेकर गिर पड़ी थीं, इसके चलते आपको मार भी खानी पड़ी थी। यह रहा वह दाग भौंहों पर।”

अणिमा दी फटी-फटी आँखों से मुझे घूरे जा रही थीं।

“आपने मुझे कई बार बुलाया था, मरने से पहले मिल लो...याद है? खेल-खेल में आपने मेरी शादी में मुझे झुमका देने की बात कही थी।”

अणिमा दी काठ की पुतली-सी निर्विकार खड़ी थीं। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करूँ? तमाशा तो बन ही गई थी मैं। शर्म और अपमान की एक ठंडी लहर शिराओं में रेंग रही थी। इतनी बाधाएँ पार कर, इतनी दूर चलकर तो आज उन्हें पाना नसीब हुआ, और आज भी वे न बोलीं तो कब बोलेंगी?

सिपाही ने ऊबते हुए पूछा, “और कितनी देर लगेगी?”

“छोड़ो! उसे जब कुछ याद ही नहीं आ रहा है तो आगे क्या पूछोगी।” पहले वाली प्रौढ़ा ने कहा, “जो बीत गई सो बीत गई। हाँ! ननिहाल आई हो तो दो कौर भात और मछली तो पेट में डालना ही होगा।”

“लेकिन मौसी मैं तो...।”

“कोई लेकिन-वेकिन नहीं। हाँ, अगर मुसलमान के हाथ से खाने से तुम्हारा धरम भ्रष्ट हो जाए तो और बात है!”

“नहीं मौसी ऐसी कोई बात नहीं। मैं बस जरा नहाना चाहती थी। सारी देह चिपचिपा रही है।”

“ये लो, बगल में ही तो नदी है। सभी लड़कियाँ जा रही हैं। दो डुबकी मार आओ न! अंजुमन बूड़ी लिवा जाओ इसे भी...लेकिन ज्वार का कोई भरोसा नहीं, होशियार रहना।”

उस दल में कोई दस-एक युवतियाँ और बच्चियाँ थीं, बूढ़ी एक भी नहीं, सो वे खुलकर बोल-बतिया रही थीं।

“अच्छा दीदी, आपके बर्द्धमान से कोलकाता कितनी दूर है?” एक ने पूछा।

“ट्रेन से डेढ़ घंटा लगता है।”

“बहोत बड़ा शहर है न, जमीन के अन्दर रेल चलती है?”

“हाँ।”

“आप कभी बैठी हैं?”

“हाँ। कई बार।”

“बड़ा मजा आता होगा। है न?”

“हाँ।”

“अयोध्या कहाँ है?” एक ठिगनी-सी गम्भीर दिख रही लड़की का सवाल।

“हमारे यहाँ से पन्द्रह घंटे लगते हैं।”

शुक्र था उसके आगे उसने कुछ नहीं पूछा। डर और नफरत के बिन्दु की ओर इशारा-भर किया, उसे छुआ नहीं!

“आप तो हवाई-जहाज पर भी चढ़ती होंगी?” तीसरा सवाल।

“हाँ।”

“मुसलमानों को भी चढ़ने देते हैं?”

“क्यों नहीं?”

“अच्छा वहाँ रवि ठाकुर का शान्ति निकेतन है जहाँ लड़के-लड़कियाँ प्रेम कर सकते हैं?”

“क्यों गंगा-पद्दा (पद्मा) के तट पर रहनेवालों को प्रेेम करने से किसी ने रोका है क्या?”

सारी लड़कियाँ हँस पड़ीं। मैंने कनखियों से अणिमा दी को देखा जो खुद में खोई कटी-कटी सी चल रही थीं, उनके चेहरे पर एक मुस्कान तक न पसीजी। “दीदी आप कैसी प्रेस रिपोर्टर हैं, एक कैमरा लाई होतीं तो हम सबका फोटो हो जाता।”

“वाकई भूल हो गई।” मैंने बहाना बनाया; मैं उन्हें कैसे बताती कि कैमरा, टेप और मोबाइल तीनों रखवा लिए गए थे थाने में।

गाँव से निकल आए थे हम। हम बार-बार पीछे मुड़कर देख रही थीं।

“क्या देख रही हैं दीदी?”

“माँ ने कभी बताया था कि हमारे घर के पीछे एक तालाब हुआ करता था। सामने कोई मचान हुआ करता था जिस पर ज्वार के समय पूरा परिवार बैठा रहता और रात को नावों की लालटेन की लाल रोशनी लहरों पर मचलती हुई आती। गाँव में आम, जामुन और नारियल के ढेरों पेड़ थे, नीचे कच्चू के पत्ते जमीन को ढके रहते।”

“तब से कितनी ही बार बाढ़ें, कितनी ही बार झड़ (तूफान) आए, न जाने कितनी बार सोनारदीघी उजड़ा और बसा।”

ठीक ही कहती है युवती, इतिहास और भूगोल के मलबे में सब कुछ दब-दबा गया जब मेरा अपना ही मुझे पहचानने से इनकार कर रहा है। लेकिन इस ‘नॉस्टल्जिया’ का क्या करूँ मैं?

टीले के नीचे हरे-भरे खेत थे, फिर नदी। मैं बूँद-बूँद पी रही थी सारा कुछ!

“आपके पास बदलने के लिए तो कुछ नहीं है?” एक युवती को जैसे अभी-अभी याद आया।

“आप लोग...?”

“हमारा क्या है, गमछा पहन लिया या ऐसे ही...।”

“गमछा भी कहाँ है?”

“किसी का खींच लूँगी।”

लड़कियाँ खिलखिला पड़ीं। अणिमा दी के चेहरे पर क्षणांश-भर के लिए कोई मुस्कुराहट उभरी, फिर जब्त हो गई।

रेत में दबे सीप और झिनुक के टुकड़े चमक रहे थे—नीली-सी कौंध! इन्हीं में कुछ-एक मेरे पुरखों की अस्थियाँ भी शामिल हों। शायद अतीत के उस पार से जल रहा है उनका फॉस्फोरस!

“जल्दी करो दीदी। ज्वार आने से पहले लौट चलना है।” उस ठिगनी-सी युवती ने कहा और नदी में उतर गई। अणिमा दी घाट पर एड़ियाँ रगड़ रही थीं जैसे उन्हें कोई जल्दबाजी न हो।

सागर की तरह फैली हुई थी नदी। जहाँ-तहाँ हिलकोरें ले रही थीं नावें; इक्के-दुक्के स्टीमर भी। मटियाला पानी छुल्ल-छुल्ल ताल दे रहा था पर इस ताल पर साथ देने वाला कोई भटियाली गीत न था। कोई कातर-सा स्वर रह-रहकर उभर रहा था। यह कोरा वहम था मेरा या हकीकत? कहीं मेरे अन्दर की पीर उछलकर बाहर तो नहीं आ गई थी?

न! नहीं! तट पर किसी घड़ियाल ने बकरी को पकड़ लिया था। वही मिमिया रही थी कातर स्वर में। लड़कियाँ छप-छप करती हुई उधर भागीं। मेरे और अणिमा दी को छोड़कर वहाँ अभी कोई न था। खुद के खयालों में डूबी अणिमा दी धीरे से पानी में उतरीं, जैसे एक सागर दूसरे सागर में उतर रहा हो। यही मौका था मेरे लिए। डुबकी लगाकर उठी ही थीं कि मैंने उन्हें बाँहों में जकड़ लिया, “किसे छल रही हो दीदी, मुझे या खुद को?”

वह देह एक बार काँपी, फिर स्थिर हो गई, “छोड़ दो मुझे, नदी में ऐसा मजाक नहीं करते।”

“नहीं छोड़ूँगी, पहले सच-सच बतलाओ। तुम्हें मेरे सिर की कसम, झूठ बोलीं तो इसी नदी में डूब मरूँ मैं।”

दीदी की आँखें छलक आईं, “याद है। सब कुछ याद है गुड्डी। तुम्हें क्या मालूम कि हम पर क्या-क्या गुजरी! घड़ियाल के जबड़े में फँसी बकरी की मिमियाहट हर कोई सुन सकता है, हमारी कोई नहीं।” दीदी एक पल को रुकीं, खुद को सहेजा, फिर बोलीं, “जान बचाती या धर्म? हमने जान चुनी। कितना लड़ते, किस-किस से लड़ते हम? अब तुम अलग हो, हम अलग। तुम हिन्दू हो, हम मुसलमान। तुम हिन्दुस्तान, हम पाकिस्तान।”

आश्चर्य! अणिमा से अंजुमन बनी मेरी मौसेरी बहन भी ‘बांग्लादेश’ को बांग्लादेश न कहकर ‘पाकिस्तान’ बता रही थीं, ठीक माँ की तरह।

“दीदी”—मेरे अन्दर बहुत-से सवाल घुमड़ रहे थे लेकिन उन्होंने होंठों पर उँगली रख दी, “ना, कुछ मत पूछो, कुछ मत—खुदा के लिए अब इस बात का जिक्र भी मत करना। लौट जाना और कभी मत आना। बड़ी मुश्किल से सँभाला है खुद को गुड्डी।”

“ठीक है दीदी, जैसा तुम कहती हो, वैसा ही करूँगी। चली जाऊँगी, कभी डिस्टर्ब नहीं करूँगी तुम्हें। आँसुओं की तरह पी जाऊँगी सब कुछ...लेकिन एक बार, सिर्फ एक बार बाँहों में भींच लो कलेजे से लगाकर मुझे, चूम लो कस कर मन-प्राण-आत्मा से मुझे। डरो नहीं पानी की इस दीवार में पर्दे की ओट है, ईश्वर के सिवा कोई नहीं देख रहा हमें।”

“जिद न कर मेरी बहना, मेरी प्यारी गुड्डी, इस तरह तो हम दोनों ही डूब जाएँगे।”

“डूब जाएँ तो डूब जाएँ। मेरे लिए यही पल पहला है, यही आखिरी भी...।”

परस्पर आलिंगन में बँधी हम दोनों बहनें पानी के पालने पर झूलने लगीं। अद्भुत उल्लास पर्व था मेरे लिए वह। लगा, सारा ही परिवेश आम, जामुन, बाँस, केले और नारियल के पेड़ों से सघन हो गया। ऊपर पेड़ थे, नीचे कच्चू के पत्तों का टटका हरियालापन। देवता प्रसन्न थे, पृथ्वी महीयसी हो उठी थी। दूर से कोई मद्धिम-सी टेर कानों में बज रही थी, कोई भटियाली गीत—दुख और सुख से परे किसी अनजाने लोक से तिरकर आता हुआ। कच्चू के चौड़े चकले, पत्तों पर हीरे की कनी-सी दो बूँदें नाच रही थीं। नाचते-नाचते वे एक हो गईं...।

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