राजीव को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहती थी सोनिया?

“जरा सी देर में हड्डियों तक सिहरन दौड़ा देने वाली यह भविष्यसूचक बातें कहकर राजीव ने गोया जता दिया था कि दुश्मन ताकतें उनका पीछा कर रही हैं और यह उन्हें भलीभाँति पता है। वे जानते थे कि उन्हें निशाना बनाया जा सकता है। ऐसा लगता है, मानो वे खुद मौत की ओर बढ़ चले थे।”

पूर्व-प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, रशीद किदवई की किताब ‘भारत के प्रधानमंत्री’ का एक अंश, जिसमें राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने से लेकर उनकी हत्या तक देश के राजनीतिक घटनाक्रम का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

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किताब - भारत के प्रधानमंत्री

 

31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की हत्या से उपजी असाधारण परिस्थिति में उनके पुत्र राजीव गांधी ने देश का सर्वोच्च पद सँभाला।

राजीव गांधी उस समय अमेठी से सांसद व कांग्रेस महासचिव थे। वे बंगाल का दौरा कर रहे थे कि उन्हें प्रधानमंत्री व अपनी माँ की हत्या की दुख भरी खबर मिली। दौरा अधूरा छोड़ तुरन्त वह दिल्ली के लिए उड़ चले। दिल्ली पहुँचते ही इन्दिरा गांधी के सचिव पी.सी. अलेक्जेंडर व दीगर विश्वस्त व्यक्तियों ने उन्हें बताया कि कैबिनेट तथा कांग्रेस पार्टी चाहती है कि प्रधानमंत्री का पद सँभालें। राजीव की पत्नी सोनिया गांधी इस निर्णय के खिलाफ थीं और उनसे बार-बार याचना कर रही थीं कि यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दें। अलेक्जेंडर के मुताबिक एम्स में बाकायदा प्रयास करके उन्होंने राजीव व सोनिया को दूर-दूर रखा। इस पद ग्रहण को राजीव ने अपना दायित्व समझा, जबकि इन्दिरा की हत्या के सदमे से उबरने में सोनिया को कई माह लगे।

प्रधानमंत्री बनने के बाद युवा राजीव गांधी ने तयशुदा कार्यक्रम को दरकिनार करते हुए समय से पहले ही देश में आम चुनाव की घोषणा कर दी तथा आक्रामक चुनाव अभियान में जुट गए। तब पंजाब में अलगाववादी आन्दोलन चल रहा था। उग्र सिख अलगाववादी अपने लिए अलग देश की माँग कर रहे थे। राजीव का चुनाव अभियान इसी आन्दोलन पर केन्द्रित रखा गया था, जिसका परोक्ष एजेंडा हिन्दू बहुसंख्यकों में पनप रही असुरक्षाबोध की भावना को भुनाना तथा राजीव के नेतृत्व वाली कांग्रेस को ऐसी एकमात्र पार्टी के रूप में प्रस्तुत करना था जो उनकी सुरक्षा करने में सक्षम थी।

निश्चित ही उस समय राजीव के पक्ष में जबर्दस्त लहर थी। चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा की 543 सीटों में से 415 पर जीत हासिल हुई। यह वह संख्या थी, जहाँ तक राजीव की माँ इन्दिरा गांधी तथा नाना जवाहरलाल नेहरू भी नहीं पहुँच पाए थे। इन्दिरा की निर्मम हत्या से मिली सहानुभूति के साथ ही यह राजीव द्वारा की गई अनथक मेहनत की भी जीत थी। चुनाव प्रचार के 25 दिनों में उन्होंने कार, हेलिकॉप्टर व वायुयान द्वारा 50 हजार किलोमीटर से ज्यादा की यात्राएँ कीं।

चुनाव में मिली अपार सफलता के बाद इस तरह की बातें भी कही जाने लगीं कि राजीव व आर.एस.एस. के तत्कालीन मुखिया बाला साहब देवरस के बीच गुप्त बैठक हुई थी। परिणामस्वरूप आर.एस.एस. ने अपने राजनीतिक संगठन भाजपा के होते हुए भी 1984 के इस चुनाव में कांग्रेस को समर्थन देने का फैसला किया। हालाँकि भाजपा अब राजीव गांधी की कांग्रेस के साथ आर.एस.एस. के किसी भी समझौते का खंडन करती है।

इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ऐसी आँधी चली कि विपक्ष की धज्जियाँ उड़ गईं। कांग्रेस की इस भारी-भरकम जीत को राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय मीडिया ने भी अभूतपूर्व माना। ‘टाइम’ मैगजीन ने इसे परिवर्तन, सुधार तथा कार्यकुशलता के लिए जनादेश बताया। ‘न्यूजवीक’ ने इसे जे.एफ. केनेडी को मिली जीत के समतुल्य ठहराया तो ‘इंडिया टुडे’ ने कांग्रेस की अति की हद तक प्रशंसा करते हुए इन परिणामों को कई मिथक तोड़ने वाला कह दिया। पहली और शायद आखिरी बार भी 24, अकबर रोड, दिल्ली स्थित ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी मुख्यालय, महाविजय की इस खुशी में तीन दिन तक रौशनी से जगमगाता रहा।

1984 के आम चुनाव ने देश की आन्तरिक राजनीति को गहरे तक प्रभावित किया। नवगठित भारतीय जनता पार्टी को मात्र दो सीटें मिल पाईं। भाजपा के पितृ पुरुष कहे जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर से माधवराव सिंधिया ने हरा दिया, तो उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेता हेमवती नन्दन बहुगुणा को बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने परास्त किया। बेशक इसमें इन्दिरा गांधी की दर्दनाक हत्या से उपजी सहानुभूति लहर का भी बड़ा हाथ था। तभी तो चुनावी सभा को सम्बोधित करते हुए अमिताभ याद दिलाते थे, ‘जब मैंने इन्दिरा जी के शरीर को इन्हीं दोनों हाथों में उठाया।’

राजीव को मिली इस अपार सफलता का कांग्रेस पर भी भारी प्रभाव पड़ा। इन्दिरा व संजय गांधी के निकट रहे कई वरिष्ठ नेता एकदम बेआसरा से हो गए। राजीव का दरबार परम्परागत दरबारों से कुछ अलग था। इसमें तकनीकी विशेषज्ञ, राजनीति के चाणक्य, स्वतंत्र व प्रयोगधर्मी उद्यमी तथा समय गति पहचानने वाले शामिल थे। इनके अलावा पी.वी. नरसिम्हा राव तथा एन.डी. तिवारी जैसे सलाहकारों, पी. चिदम्बरम व मणिशंकर अय्यर जैसे विषय-विशेषज्ञों के साथ ही बूटा सिंह, अरुण नेहरू व सीताराम केसरी जैसे राजनीतिक जोड़-तोड़ के माहिर भी शामिल थे।

तब राजीव की छवि बेहद साफ-सुथरी थी। उन पर किसी गड़बड़, घोटाले के दाग नहीं थे। उज्ज्वल छवि वाले, दून स्कूल तथा सेंट स्टीफेंस कॉलेज के कुछ ऐसे ही सहपाठी भी उनके साथ थे। मीडिया ने उन्हें ‘मिस्टर क्लीन’ पुकारना शुरू कर दिया था, हालाँकि यह सिलसिला लम्बा नहीं चल सका।

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राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तब श्रीलंका में आतंकवादियों का जोर चल रहा था। पड़ोसी देश से इन आतंकी गुटों का सफाया करने के लिए राजीव ने वहाँ भारतीय सेना भेज दी। कोलम्बो स्थित भारतीय उच्चायोग की सलाह पर यह कदम उठाया गया था। तब भारतीय सैन्य कमांडर्स तथा गुप्तचर एजेंसियों ने एक खतरनाक मिशन की कमान सँभाली। इसमें कई भारतीय सैनिकों को जान की आहुति देनी पड़ी। श्रीलंका में सक्रिय आतंकी संगठन लिबरेशन टाइगर ऑफ तमिल इलम (लिट्टे) का भी खासा नुकसान हुआ, लेकिन भारतीय सेना उसे समूल नष्ट नहीं कर सकी। नतीजा यह हुआ कि लिट्टे राजीव गांधी की जान का दुश्मन बन गया।

श्रीपेरम्बदूर में लिट्टे द्वारा किए गए आतंकी हमले में 21 मई, 1991 को जान गँवाने से कुछ समय पहले राजीव का इंटरव्यू करने वाली पत्रकार नीना गोपाल कहती हैं कि राजीव को अपनी मौत का अहसास हो गया था। अपनी किताब ‘द असेसिनेशन ऑफ राजीव गांधी’ में गोपाल ने लिखा है, “मैंने राजीव से पूछा था कि क्या उन्हें अपनी जान का खतरा महसूस होता है। राजीव ने इसका उत्तर एक प्रश्न से दिया, ‘क्या तुमने कभी इसे नोटिस किया कि दक्षिणी एशिया का कोई भी महत्त्वपूर्ण नेता जब कभी ताकतवर होने लगता है, अपने या देश के लिए कोई उपलब्धि प्राप्त करने की ओर बढ़ने लगता है तो उसे रोका जाता है, हमले किए जाते हैं या मार दिया जाता है... भले वह श्रीमती (इन्दिरा) गांधी हों, शेख मुजीबुर्रहमान हों, जुल्फिकार अली भुट्टो, जिया-उल-हक या भंडारनायके हों…”

गोपाल के अनुसार, “जरा सी देर में हड्डियों तक सिहरन दौड़ा देने वाली यह भविष्यसूचक बातें कहकर राजीव ने गोया जता दिया था कि दुश्मन ताकतें उनका पीछा कर रही हैं और यह उन्हें भलीभाँति पता है। वे जानते थे कि उन्हें निशाना बनाया जा सकता है। ऐसा लगता है, मानो वे खुद मौत की ओर बढ़ चले थे।

गोपाल ने भारतीय गुप्तचर एजेंसी रिसर्च एंड एनैलेसिस विंग (रॉ) के वरिष्ठ अधिकारी चन्द्रन चन्द्रशेखरन की उस बात का भी जिक्र किया है, जो बाद में उन्होंने गोपाल से कही थी, “हम असफल रहे, हम उनकी जान बचाने में असफल रहे।”

 

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