पिछले वर्षों में देश में गरीबों की संख्या कितनी बढ़ी?

“हम सबको खुद से पूछना चाहिए : हम गरीबी के दुखद और ख़तरनाक गड्ढे में इतने लोगों को जाने से रोक क्यों नहीं सके? जैसा दूसरों ने किया दूसरे कर सके, वह हम क्यों नहीं कर पाए? इसका कारण, मेरी नज़र में यही है कि हम सच्चाई को नकारते रहे। हम सच्चाई का सामना करने में हिचकते रहे। हमारी सरकार यह दिखावा कर रही थी कि कहीं कोई समस्या नहीं है। आँकड़ों को दबाकर, उन्हें ठीक-ठाक करके, विज्ञापन और हरेक भाषा में प्रचार करके, सरकार ने लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की कि सब ठीक है।” 

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, परकाला प्रभाकर की किताब ‘नये भारत की दीमक लगी शहतीरें : संकटग्रस्त गणराज्य पर आलेख’ का एक अंश, जिसमें उन्होंने देश में बढ़ती गरीबी और सरकार द्वारा उसके आंकड़ों को छुपाने के खेल पर चर्चा की है। मूलरूप से अंग्रेजी में ‘The Crooked Timber of New India’ शीर्षक से प्रकाशित इस किताब का हिन्दी अनुवाद व्यालोक पाठक ने किया है।     

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प्यू रिसर्च सेंटर ने मार्च 2021 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इसने कहा कि महामारी के दौरान भारत की ग़रीबी बढ़ी है और देश का मध्यवर्ग सिकुड़ा यानी कम हुआ है। विद्वान जन इस पर तर्क कर सकते हैं कि इन निष्कर्षों पर पहुँचने की कार्य-प्रणाली (मेथेडोलॉजी) क्या थी, लेकिन मैं आपका ध्यान अपने देश में महत्त्वपूर्ण आँकड़ों की अनुपस्थिति और सरकारी एजेंसियों द्वारा दिये गए आँकड़ों की विश्वसनीयता की तरफ़ खींचना चाहता हूँ। ख़तरनाक बात यह है कि सरकार के ऊपर सन्देह है कि वह असहज करने वाले और उसकी नाकामी को दिखाने वाले आँकड़ों को छिपाती है। और यह भी लगातार महसूस किया जा रहा है कि देश के डाटा सिस्टम को राजनीतिक हस्तक्षेप से बदला जा रहा है।

प्यू की रिपोर्ट ने भारत और चीन की तुलना की है। यहाँ अभी हमें चीन के बारे में बात करने की जरूरत नहीं, इसलिए भारत के आँकड़ों पर ही बात करें। 2020 में वर्ल्ड बैंक के अनुमान और 2021 की तत्कालीन हालत को देखते हुए प्यू ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारत में और साढ़े सात करोड़ लोग गरीब हुए हैं। साथ ही मध्यम आय वर्ग में तीन करोड़ 20 लाख लोग कम हो गए हैं। और साढ़े तीन करोड़ लोग जो निम्न आय वर्ग में थे, वे भी ग़रीबी में धकेल दिये गए हैं।

वैश्विक सन्दर्भ में देखें तो महामारी के दौरान जितने लोग पूरी दुनिया में ग़रीब हुए, उनमें 60 फ़ीसदी भारत के थे। पूरी दुनिया में मध्यम आय वाले वर्ग से जितने लोग फिसले, उनमें से भी 60 प्रतिशत भारतीय थे। ये आँकड़े डरावने हैं। वह इसलिए, कि महामारी के पहले भी वैश्विक स्तर पर 28 फीसदी गरीब भारत में थे। संयुक्त राष्ट्र की 2019 की मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट के मुताबिक़— जो किसी देश के सामाजिक व आर्थिक विकास को आँकती है— भारत 189 देशों में 129वें स्थान पर था। यह महामारी के एक साल पहले था और भारत तभी उसके ठीक पहले के साल से एक स्थान पीछे आ चुका था।

अब, अगर हम मार्च 2021 की प्यू रिपोर्ट में दिये चीन के आँकड़ों को देखें, तो हमें पता चलेगा कि जो भी भारत में हुआ, वह महामारी का अवश्यंभावी नतीजा नहीं था। भारत ने जहाँ महामारी के पहले साल साढ़े सात करोड़ गरीब और जोड़े, चीन ने वह संख्या मात्र 10 लाख तक रखने में सफलता पाई। भारत का मध्यम आय वर्ग जहाँ 3 करोड़ 20 लाख कम हुआ, चीन में वह 3 करोड़ बढ़ा।

हम सबको खुद से पूछना चाहिए: हम गरीबी के दुखद और ख़तरनाक गड्ढे में इतने लोगों को जाने से रोक क्यों नहीं सके? जैसा दूसरों ने किया दूसरे कर सके, वह हम क्यों नहीं कर पाए ? इसका कारण, मेरी नज़र में यही है कि हम सच्चाई को नकारते रहे। हम सच्चाई का सामना करने में हिचकते रहे। हमारी सरकार यह दिखावा कर रही थी कि कहीं कोई समस्या नहीं है। आँकड़ों को दबाकर, उन्हें ठीक-ठाक करके, विज्ञापन और हरेक भाषा में प्रचार करके, सरकार ने लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की कि सब ठीक है। कुछ मामलों में तो किसी तरह के आँकड़े जुटाए ही नहीं गए, इसने शुतुरमुर्ग की तरह नीति-नियंताओं का सर बालू में गाड़ दिया और खुद को भी दिलासा दिया कि सब बढ़िया है।

महामारी से पहले भी सरकार ने ग्रामीण और शहरी दोनों ही इलाक़ों में गिरते हुए ऋण-परिमाप (क्रेडिट ऑफ़टेक) और उपभोग के आँकड़े समझने से इनकार कर दिया। इसने आर्थिक मन्दी की शुरुआत को भी नकारा। फिर, महामारी के दौरान भी सरकार ने कभी प्रवासी मजदूरों की संख्या, अग्रिम मोर्चे पर लड़ते हुए मरे लोगों की संख्या-जिसमें स्वास्थ्य कर्मचारी भी शामिल थे, किसानों की आत्महत्या, लघु व मध्यम उद्योगों की बन्दी, नौकरी और आय छिन जाने इत्यादि के आँकड़े जमा करने की कोई परवाह नहीं की। बेपरवाह और एक के बाद एक ग़लतियाँ करती सरकार ने आज भी इस पर आँकड़े एकत्र नहीं किये हैं कि प्रधानमंत्री मुद्रा योजना से कितने रोजगार सृजित हुए? 2015 में लागू यह योजना छोटे और लघु उद्योगों को आसान दरों पर ऋण देने के लिए शुरू की गई थी। इसने केवल वितरण के आँकड़े दिये हैं। 80 फ़ीसदी वितरण जब 50 हजार रुपये (जी हाँ, 50 हजार रुपये) या कम का हो, तो रोजगार की संख्या, गुणवत्ता और स्थायित्व भी नगण्य ही होंगे।

हमारे पास इसके भी आँकड़े नहीं हैं कि कितने लोग कृषि क्षेत्र से निकलने पर मजबूर हुए और वहाँ से गए तो कहाँ गए? प्रधानमंत्री के खुद के प्रयास—किसानों की आय दोगुनी करना—का क्या हुआ, इस पर भी कोई आँकड़ा नहीं है। जो आँकड़ा उपलब्ध था और जिसने ग्रामीण उपभोग में कमी दिखाई, उसे दबा दिया गया। यह तथ्य बहुत ही असुविधाजनक था कि ग्रामीण भारत में तो मज़दूरी महामारी के पहले भी नहीं बढ़ी, इसलिए सरकार ने इसे भी सार्वजनिक नहीं होने दिया।

आँकड़ों के प्रति यह आपराधिक लापरवाही और उनका यह अक्षम्य दमन बताता है कि किसी स्टिम्युलस—पैकेज और उसके लक्षित कार्यान्वयन के लिए सबूतों पर आधारित कोई योजना भी नहीं ही होगी, जो महामारी से उपजे आर्थिक तनाव और दुख को दूर कर सके। जो बहुचर्चित पैकेज सरकार लाई है, वह सबसे निरीह और जरूरतमन्द की रक्षा के लिए नहीं है। यह खोखली और महत्त्वहीन की लड़ी मात्र रह गई, जिसे जल्द ही भुला दिया गया। महामारी जो क्षति पहुँचाई उससे अधिक, वर्तमान भारतीय सरकार की लापरवाही और असावधानी ने साढ़े सात करोड़ लोगों को एक ही साल में ग़रीबी में धकेल दिया। यह एक पाप था, लेकिन सरकार को कोई पश्चात्ताप नहीं है।

भारत में गरीबी पर सरकारी सूत्रों से प्राप्त कोई हालिया आँकड़ा नहीं है। आखिरी सच्चा सरकारी आँकड़ा 2011-12 का है। वह नेशनल सैंपल सर्वे (राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण) के 68वें चक्र का है। इसीलिए, हम नहीं जानते कि सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के सन्दर्भ में हम कहाँ खड़े हैं, जिसका पहला ही लक्ष्य 2030 तक गरीबी मिटाना था। अक्टूबर 2020 की विश्व बैंक की द्विवार्षिक रिपोर्ट, ‘पावर्टी एंड शेयर्ड प्रॉस्पैरिटी रिपोर्ट’ में कहा गया है कि वैश्विक ग़रीबी का उनका अनुमान काफ़ी हद तक अधूरा है क्योंकि भारत से आँकड़े नहीं मिले। इस अभियोग की गम्भीरता उन लोगों की निगाहों से नहीं बची होगी जो जानते हैं कि अन्तर-सरकारी वैश्विक संगठनों की हल्की-सी फटकार वाली भाषा का उप-पाठ (सबटेक्स्ट) कैसे पढ़ा जाना चाहिए?

इस बीमारी—वास्तविकता से इनकार और आँकड़ों को दबाने की बीमारी—का स्पष्ट रूप 2019 में दिखा था, जब सरकार ने रोजगार के आँकड़ों को वाहियात क़रार दिया था। याद कीजिए, आवधिक श्रमिक बल सर्वेक्षण के आँकड़ों का दमन! आँकड़ों ने बताया था कि बेरोजगारी की दर उस समय पिछले चार दशकों में उच्चतम थी। वे आँकड़े सत्ताधारी दल के लिए असुविधाजनक थे, जिसने 1 करोड़ नौकरियाँ सृजित करने का वादा किया था। इसलिए, सरकार ने अपनी ही एजेंसी द्वारा एकत्रित आँकड़ों पर सन्देह किया, उन्हें सार्वजनिक होने से रोका और यह कहकर अपने कृत्य को जायज ठहराया कि रिपोर्ट पर और कुछ काम करने की जरूरत है। सांख्यिकी आयोग (स्टैटिस्टिकल कमीशन) के विशेषज्ञ सदस्यों ने विरोधस्वरूप आयोग को छोड़ दिया, जिससे यह आयोग अवशेष मात्र बनकर रह गया।

सरकार ने 2016 की अतार्किक नोटबन्दी पर भी जवाब नहीं दिये, न ही यह बताया कि उसके बाद कितना तथाकथित काला धन मिला। लगभग सारे के सारे नोट वापस बैंकों में जमा हो गए। काला धन व्यवस्था से बाहर नहीं गया, लगभग सभी बन्द नोट वापस आ गए, लेकिन जो नौकरियाँ गईं, वो वापस नहीं आ सकीं। कितनी जिन्दगियाँ तबाह हुईं? सरकार हमें नहीं बताएगी।

दुनिया भर के 108 अर्थशास्त्रियों और समाजविज्ञानियों ने सरकार को खुला पत्र लिखकर इस पर चिन्ता जताई थी कि भारतीय आर्थिक आँकड़ों की विश्वसनीयता खो चुकी है। विद्वानों ने महसूस किया कि भारत की सांख्यिकीय मशीनरी शायद ‘राजनीतिक विचारों के बादल तले घिर चुकी है, उससे प्रभावित और यहाँ तक कि नियंत्रित होने लगी है।’ उन्होंने सरकार से अपील की है कि वह ‘सार्वजनिक सांख्यिकी तक पहुँच और विश्वसनीयता सुनिश्चित’ करे।

एक समय था, जब भारत की सांख्यिकी और आँकड़ों के संग्रहण की मुरीद पूरी दुनिया थी, क्योंकि उनका संस्थागत गठन बहुत मजबूत था। न केवल तीसरी दुनिया के देश, बल्कि विकसित देश भी सामाजिक-आर्थिक आँकड़ों के संग्रहण, विश्लेषण और व्याख्या के भारतीय तरीक़ों को देखते थे। हाँ, उनकी कार्य प्रणाली (मेथेडोलॉजी) को लेकर स्वस्थ बहसें और असहमतियाँ होती थीं, लेकिन कभी भी इनकी निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठे। सरकार को हस्तक्षेप का अधिकार भी नहीं था। एनएसएस (नेशनल सैंपल सर्वे) के आँकड़ों को जारी करने की तिथि कभी सरकार नहीं बताती थी। यहाँ तक कि अन्तिम आँकड़ों से पहले ‘रॉ डाटा’ भी शोधार्थियों के विश्लेषण और सत्यापन के लिए सार्वजनिक कर दिया जाता था। अब वह मामला नहीं है। भारत के आँकड़ों की विश्वसनीयता सन्दिग्ध हो चुकी है।

आज भारतीय कॉरपोरेट, विदेशी निवेशक, आर्थिक विश्लेषक विश्वसनीय और भरोसेमन्द आँकड़ों के लिए कहीं और देख रहे हैं, क्योंकि कई अहम सूचकों जैसे जीडीपी, मुद्रास्फीति और रोजगार से सम्बन्धित सरकारी आँकड़े सन्दिग्ध हैं। यहाँ तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भी सरकारी आँकड़ों पर सन्देह करते हैं। पिछले साल जुलाई तक, भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के शोध समूह ने खुदरा मुद्रास्फीति के सरकारी आँकड़ों पर सवाल उठाए। भारत के मुख्य सांख्यिकीविद् प्रणव सेन, जो अब सरकार द्वारा गठित आर्थिक सांख्यिकी पर स्टैंडिंग कमिटी के मुखिया हैं, ने कहा, “आँकड़ों के दमन और उसके बाद लीक होने के परिणामस्वरूप धीरे-धीरे ‘डाटा का दानवीकरण’ हो गया है। और इससे देश की सांख्यिकीय व्यवस्था हतोत्साहित होने लगी है।”

एक तरफ़, तकनीकी बहुराष्ट्रीय निगम हमारे निजी आँकड़ों के पहाड़ पर बैठे हैं—हम क्या करते हैं, हम क्या ख़रीदते हैं, हम कहाँ जाते हैं, हमारी पसन्द क्या है। वे इन आँकड़ों का इस्तेमाल करके हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं, उनका उपयोग करते हैं। दूसरी तरफ़, हमारी सरकार हमें वे आँकड़े नहीं देती, जो हमारे सामूहिक जीवन के लिए ज़रूरी हैं, ताकि वह हमें अँधेरे में रख सके, भ्रमित रख सके और राजनीतिक विमर्श को अपने हित में इस्तेमाल कर सके। राज्य और पूँजी दोनों ही छिपाकर हमारा राजनीतिक और आर्थिक भविष्य गढ़ रहे हैं, वह भी हमारी सहमति के बिना। दोनों के ही प्रतिरोध की ज़रूरत है।

 

[परकाला प्रभाकर की किताब ‘नये भारत की दीमक लगी शहतीरें : संकटग्रस्त गणराज्य पर आलेख’ यहाँ से प्राप्त करें।]