क्यों जरूरी है ‘दलित’ मुस्लिमों के लिए आरक्षण?

“मुसलमानों में कई ऐसी बिरादरियाँ हैं, जिनके नाम और पेशे हिन्दू दलितों से मिलते-जुलते हैं। सामाजिक स्थिति भी क़रीब-क़रीब दोनों की बराबर है। मुस्लिम समाज में छुआछूत की बीमारी नहीं होने की बात कही जाती है, मगर अब तो हिन्दू समाज में भी पहले की तरह यह बीमारी नहीं है, लेकिन माली, तालीमी और सियासी दृष्टि से मुसलमानों के इन तबक़ों की हालत हिन्दू दलितों से खराब है। इसका एक प्रधान कारण हिन्दू दलितों की तरह मुसलमानों की इन बिरादरियों को आरक्षण की सुविधा का न होना है। भारतीय संविधान मज़हब की बुनियाद पर नागरिकों के बीच भेदभाव की मनाही करता है। बावजूद इसके, मुस्लिम दलितों के साथ यह भेदभाव हो रहा है।” 

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, राज्यसभा के सदस्य रहे अली अनवर की किताब ‘सम्पूर्ण दलित आन्दोलन : पसमान्दा तसव्वुर’ का एक अंश। जिसमें ‘दलित’ मुस्लिमों के लिए आरक्षण की जरूरत पर चर्चा की गई है। यह किताब सभी मज़हबों के दलितों के ‘दर्द के रिश्तों’ पर रोशनी डालती है। 

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मुसलमानों में एक तबके के लिए ‘दलित’ शब्द का प्रचलन हाल के वर्षों में शुरू हुआ है। पहले यह मान लिया गया था कि मुसलमानों में कोई ऊँच-नीच नहीं होता। सभी मुसलमान आपस में भाई-भाई होते हैं। उसूलन यह सही भी है। कुरान, हदीस की किताबों तथा रसूल (पैग़म्बर मुहम्मद) की ज़िन्दगी में मुसलमानों के बीच कोई तफ़रीक़ (भेदभाव) नहीं है। इस्लाम का दूसरा नाम ही मसावात (बराबरी) है।

मगर मुस्लिम समाज में उसूल-अमल (सिद्धान्त-व्यवहार) में फ़र्क़ की सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। यह फ़र्क़ लम्बे समय से मुस्लिम समाज में रहा है। अगर ऐसा नहीं है तो ‘अशराफ़’, ‘अज़लाफ़’, ‘अरजाल’ शब्द आए कहाँ से? ये तीनों शब्द उर्दू और फ़ारसी के नहीं बल्कि खाँटी अरबी जबान (भाषा) के हैं, जिनका अर्थ ‘शरीफ़’, ‘नीच’ और ‘कमीना’ होता है।

यह कोई अस्वाभाविक भी नहीं है। दुनिया के हर समाज और मजहब के माननेवाले लोगों में किसी-न-किसी नाम से भेदभाव पाए जाते हैं। अपने को दूसरे से बड़ा या छोटा समझना इनसानी फ़ितरत है। सवाल इस इनसान और समाजी कमज़ोरी की पहचान कर इसे दूर भगाने का है। इसके लिए कुछ दिन और कुछ साल के प्रयास नाकाफ़ी होंगे। यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, घर में रोज झाडू देने की तरह। कई मजहबों के लोग इस कमज़ोरी को छिपाने का प्रयास करते हैं। इससे सड़ाँध बढ़ती है। बहुत-से लोग अपने समाज की इस कमज़ोरी को दूसरे मजहब और समाज के लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं। यह दृष्टिकोण अत्यन्त घातक है। इससे अपना मर्ज़ तो बढ़ता ही जाता है, दूसरे मजहब और समाज के साथ भी कटुता बढ़ती है। 

यह सही है कि जब एक मजहब से दूसरे मजहब में लोग जाते हैं, तो उनका पुराना संस्कार जल्दी नहीं छूटता। जब एक तरह की संस्कृति और तहजीब से दूसरे तरह की संस्कृति और तहज़ीब का मिलना होता है तो खूबियों के साथ खामियों का भी आदान-प्रदान होता है। अगर इस बात को मान भी लिया जाए कि अपना पुराना मज़हब छोड़कर नये मज़हब में आनेवाले लोग अपने साथ जात-पाँत की बीमारी लेकर आए तो इसे दोहराते रहने से क्या फ़ायदा है? सैकड़ों वर्ष गुजर जाने के बाद भी अगर हम अपने समाज से जात-पाँत की बीमारी को दूर नहीं भगा सके तो इसमें पुराने मजहब का क्या दोष है? 

अगर कोई बार-बार इस बात को दोहराए कि उसके पड़ोसी से उसे छुआछूत का कोई रोग लग गया, तो (बात सही होने पर भी) इससे सिर्फ़ पड़ोसी के साथ कटुता ही बढ़ेगी। सबसे बड़ी बात यह है कि ज़िम्मेदारी दूसरे पर थोपने से समस्या की गम्भीरता घटती है। आदमी उसके निदान में ढिलाई बरतने लगता है। जब आदमी किसी समस्या की ख़ुद ज़िम्मेदारी लेते हुए उसकी चुनौती को स्वीकार करता है तो उसका हल भी आसान होता है।

यह बात सही है कि हिन्दू धर्म में वर्ण-व्यवस्था की मान्यता होने के चलते उनके समाज में जात-पाँत, ऊँच-नीच की भावना अत्यन्त जटिल और गहरी है, जबकि इस्लाम में जात-पाँत की कोई मान्यता नहीं है। चूँकि इस्लाम में जात-पाँत के आधार पर ऊँच-नीच का कोई सैद्धान्तिक आधार नहीं है, इसलिए मुस्लिम समाज से इस बीमारी को दूर भगाना भी आसान है।

इस्लाम में उसूलन जात-पाँत नहीं होते हुए भी अमलन मुस्लिम समाज में जात-पाँत का होना शर्मनाक है। इस लानत के लिए वे लोग ज्यादा ज़िम्मेदार हैं, जो अपने तार सीधे अरब से जोड़ते तथा पैग़म्बर के ख़ानदान से अपना शजरा मिलाते हुए अपने को आला और बाक़ी को अदना समझते हैं। इस तरह का फ़ितूर हमेशा समाज के ऊपरी तबक़ों से शुरू होता है। फिर देखा-सुनी बाक़ी लोग भी अपने तार मक्का-मदीना और किसी न किसी पैग़म्बर तथा उनके सहाबा से जोड़ने लगते हैं जबकि सच्चाई यह है कि हिन्दुस्तान में 15 प्रतिशत से ज्यादा मुसलमान हिन्दू धर्म और दूसरे पन्थों को छोड़कर मुसलमान बने हैं। जब चन्द लोग अरबों से अपना शजरा मिलाना नहीं छोड़ते और इस बुनियाद पर अपने को आला ख़ानदान और क़बीला समझते हैं तो यहाँ जो लोग हिन्दुओं की ऊँची जातियों से धर्मान्तरित होकर मुसलमान बने, वे यहाँ की नीची जातियों से धर्मान्तरित होकर मुसलमान बने लोगों को बराबरी का दर्जा क्यों देते?

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम सूफ़ी-संतों के असर और शख़्सियत से प्रभावित होकर ज़्यादातर हिन्दू दलितों और पिछड़ी आबादियों ने इस्लाम धर्म को क़बूल किया है। यह भी सही है कि हिन्दू धर्म और अपने पन्थों में व्याप्त छुआछूत और ऊँच-नीच की भावना तथा अत्याचार की घटनाओं से तंग आकर उन्होंने धर्म-परिवर्तन किया है। तलवार के ज़ोर पर हिन्दुस्तान में इस्लाम धर्म नहीं फैला है। मुस्लिम राजा और नवाबों के चलते जिन थोड़ी-सी ऊँची जाति के हिन्दुओं ने मज़हबे इस्लाम क़बूल किया होगा, उसके पीछे धन-दौलत और पद का लालच ही बड़ा कारण रहा होगा। अन्य मुस्लिम शासकों की बात कौन कहे, अकबर महान जैसे हुक्मरों के दिमाग़ में भी आला-अदना, जात-पाँत का यह फ़ितूर मौजूद था। मुस्लिम शासकों के इस तरह की ज़ेहनियत की चर्चा करना यहाँ मौजूँ नहीं है, लेकिन इतना बता देना ज़रूरी है कि आदमी से आदमी का पाखाना साफ़ कराने जैसा पेशा हिन्दुस्तान में सबसे पहले मुगल शासकों के दौर में ही शुरू हुआ था। मुगल शासकों की हवेलियों में पाखाना साफ़ करनेवाले और कोई नहीं, मुसलमान ही थे। यह बात और है कि उन्हें एक बढ़िया-सा नाम ‘लालबेगी’ या ‘हलालखोर’ दे दिया गया।

मुसलमानों में कई ऐसी बिरादरियाँ हैं, जिनके नाम और पेशे हिन्दू दलितों से मिलते-जुलते हैं। सामाजिक स्थिति भी क़रीब-क़रीब दोनों की बराबर है। मुस्लिम समाज में छुआछूत की बीमारी नहीं होने की बात कही जाती है, मगर अब तो हिन्दू समाज में भी पहले की तरह यह बीमारी नहीं है, लेकिन माली, तालीमी और सियासी दृष्टि से मुसलमानों के इन तबक़ों की हालत हिन्दू दलितों से खराब है। इसका एक प्रधान कारण हिन्दू दलितों की तरह मुसलमानों की इन बिरादरियों को आरक्षण की सुविधा का न होना है। भारतीय संविधान मज़हब की बुनियाद पर नागरिकों के बीच भेदभाव की मनाही करता है। बावजूद इसके, मुस्लिम दलितों के साथ यह भेदभाव हो रहा है।

पेशे और काम के आधार पर पहले जातियाँ बनी थीं, लेकिन आगे चलकर जन्म से ही जातियाँ बनने लगीं। मुस्लिम समाज में भी ठीक ऐसा ही होता है। एक मुस्लिम धोबी का बेटा भले कपड़ा धोने का काम नहीं करे, लेकिन वह ‘हवारी’ (धोबी) ही कहलाता है। इसी तरह किसी हलालखोर परिवार का आदमी चाहे जो भी पेशा अख्तियार करे, हलालखोर ही कहलाता है। भला कहें या बुरा, यह एक सामाजिक हक़ीक़त है। इससे मुँह चुराने से कोई फ़ायदा नहीं है।

मुसलमानों के ऐसे ही तबकों ने अपने को ‘मुस्लिम दलित’ कहना शुरू कर दिया है। ‘मुस्लिम दलित’ शब्द का प्रचलन राजनैतिक शब्दावली जैसा जरूर लगता है। इसके पीछे मुसलमानों की इन बिरादरियों को हिन्दू दलितों वाली सुविधा और सहूलियत दिलवाने की मंशा भी झलकती है। यह एक अच्छा संकेत है। लोग अपनी जड़ें हिन्दुस्तान की मिट्टी में तलाश रहे हैं। दरअसल, उनकी जड़ें यहाँ की मिट्टी में ही पैवस्त हैं। हिन्दू और मुसलमान, दोनों दलित तबक़ों के बीच एक दर्द का रिश्ता तो बनता ही है। यह एहसास हिन्दू और मुसलमान, दोनों ही मजहबों के कमजोर तबक़ों के बीच एकता की ठोस ज़मीन फ़राहम कराता है। इस एकता को अगर विकसित किया गया तो यह साम्प्रदायिकता की जड़ को काट देगी। जो चन्द लोग अपना शजरा अरब के खानदानों से जोड़ते हैं, उनकी हैसियत यहाँ किरायेदार की बनती है, मगर यहाँ के आम मुसलमानों की हैसियत तो ‘पट्टीदार’ की है। इस नाते वे यहाँ की हर चीज़ में बराबर के हिस्सेदार हैं। याद रहे कि गोतिया (भाई) चाहे जितना कमजोर हो, उसका हिस्सा जल्दी मारा नहीं जाता है।

एक सवाल यह भी उठता है कि मुसलमानों की किन बिरादरियों को दलित की श्रेणी में रखा जाए? कुछ तथाकथित बैकवर्ड मुस्लिम नेता वोट की राजनीति के हिसाब से इस सवाल को देखते हुए तक़रीबन सभी पिछड़े मुसलमानों को दलित का दर्जा और सहूलियत देने की माँग करते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि कुछ फ़ॉरवर्ड मुस्लिम नेता सभी मुसलमानों को पिछड़ा घोषित करने की माँग कर रहे हैं, लेकिन यह माँग न उचित है और न कभी पूरा होनेवाली। पूरी मुस्लिम आबादी में पिछड़े मुसलमान 80 प्रतिशत हैं। इतनी बड़ी आबादी को दलित का दर्जा देना क्या सम्भव है? एक सवाल यह भी है कि जब सभी पिछड़े मुसलमान दलित की श्रेणी में चले जाएँगे तो ओ.बी.सी. की श्रेणी मुसलमान से ख़ाली रहेगी। इससे साम्प्रदायिक तत्त्वों द्वारा अलग रंग देकर हिन्दू दलितों के साथ टकराव की हालत पैदा किए जाने का भी ख़तरा है।

सही बात यह है कि सभी पिछड़े मुसलमान अपने को दलित कहलाने को भी तैयार नहीं हैं। बिहार के एक तथाकथित बैकवर्ड नेता ने कानपुर में अपनी बिरादरी के सम्मेलन में जब अपनी बिरादरी को ‘खटिक’ बताते हुए यह समझाने की कोशिश की कि उनके पूर्व भी ‘हरिजन’ थे तो सम्मेलन में उपस्थित लोगों ने उस बिहारी नेता को पीटने के लिए दौड़ाया और उसे भद्दी-भद्दी गालियाँ दीं।

दलित मुसलमानों को शेड्यूल्ड कास्ट का दर्जा और सहूलियत मिलें, यह माँग अब जोर पकड़ने लगी है। इस माँग में दम भी है। यह बात सही है कि दलित मुसलमानों को सिर्फ़ शेड्यूल्ड कास्ट का दर्जा मिल जाने से उनकी गरीबी और जहालत (अशिक्षा) दूर नहीं हो जाएगी और न ही बड़े पैमाने पर उन्हें सरकारी नौकरियों में शामिल कर लिया जाएगा, मगर इतना ज़रूर है कि इससे इन तबकों में सियासी और समाजी बेदारी पैदा होगी और उनके बीच का ठहराव टूटेगा। वे फिर से सपने देखना शुरू कर सकेंगे—मसावात और तरक्की के सपने।

 

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