प्रबीर पुरकायस्थ को जब जेएनयू से उठा ले गई पुलिस!

न्यूज़ क्लिक के संस्थापक-संपादक प्रबीर पुरकायस्थ को सुप्रीम कोर्ट ने आज रिहा करने का आदेश देते हुए यूएपीए के तहत उनकी गिरफ्तारी को अवैध घोषित कर दिया। 1975 में आपातकाल के दौरान भी पुरकायस्थ को इसी तरह ‘मीसा’ (आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम) के तहत गिरफ़्तार किया गया था। उस समय वह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र थे और उन्होंने एक साल जेल में रहते हुए बिताया था। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, इतिहासकार ज्ञान प्रकाश की शीघ्र प्रकाश्य किताब ‘आपातकाल आख्यान : इंदिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा’ के खास अंश जिसमें इस वाकये का विस्तार से उल्लेख है। मूल रूप से अंग्रेजी में ‘Emergency Chronicles : Indira Gandhi and Democracy's Turning Point’ शीर्षक से प्रकाशित इस किताब का अनुवाद मिहिर पंड्या ने किया है।

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25 सितम्बर, 1975 की उस सुबह प्रबीर पुरकायस्थ जब उठे, उन्हें ज़रा भी अन्दाज़ा नहीं था कि उनकी ज़िन्दगी कैसा मोड़ लेने वाली है। नई दिल्ली स्थित ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ (जेएनयू), न्यू कैम्पस के गंगा छात्रावास में रहनेवाले प्रबीर के लिए इस दिन की शुरुआत; भी किसी आम दिन की तरह ही हुई थी। वे सवेरे उठकर तैयार हुए और मेस में जाकर नाश्ता किया। विश्वविद्यालय का प्रशासनिक खंड और कक्षाएँ अभी तक ओल्ड कैम्पस में ही चल रही थीं। ठीक सुबह 9 बजे आने वाली शटल बस का इन्तज़ार करने के बजाय प्रबीर हॉस्टल छात्रावास के  पिछवाड़े, पथरीले रिज के ऊबड़-खाबड़, झाड़ीदार लेकिन शॉर्टकट रास्ते से पैदल चलते हुए पिछले प्रवेशद्वार से ओल्ड कैम्पस में दाख़िल हुए। कुछ ही मिनटों में प्रबीर ‘भाषा संकाय’ या स्कूल ऑफ़ लैंग्वेजेज़ के बाहर खड़े थे। वहाँ उनकी मुलाक़ात तीन अन्य छात्रों से हुई, जो पहले से वहाँ इकट्ठा थे। ये तीनों भी प्रबीर की तरह स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफ़आई) के सदस्य थे। राजनैतिक दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से सम्बद्ध इस छात्र संगठन का कैम्पस में काफ़ी दबदबा था। इसी संगठन के एक सदस्य देवी प्रसाद त्रिपाठी उन दिनों  जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष हुआ करते थे। 

कैम्पस में उस सुबह तनाव का आलम था। छात्रसंघ की चुनी हुई पार्षद (काउंसिलर) अशोका लता जैन के निष्कासन के ख़िलाफ़ एसएफ़आई की तीन दिन की हड़ताल का यह दूसरा दिन था। अशोका प्रबीर की मंगेतर थीं। हालाँकि वे सत्ता और प्रशासन से सिर फुटौव्वल को बेचैन रहनेवाले अन्य उद्धत छात्र नेताओं जैसी नहीं थीं, मगर विश्वविद्यालय द्वारा उन्नीस छात्रों को कथित रूप से राजनैतिक कारणों के चलते प्रवेश देने से मना किये जाने के विरोध में उन्होंने ही छात्रसंघ की बैठक की अध्यक्षता की थी और इस मुद्दे पर एक पर्चा भी निकाला था, जिसके चलते सत्ता और प्रशासन उनसे खार खाए बैठा था। इन उन्नीस छात्रों में एक नाम छात्रसंघ अध्यक्ष देवी प्रसाद त्रिपाठी का भी था। त्रिपाठी जेएनयू से अपना स्नातकोत्तर पूरा कर चुके थे और अब विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ़ पॉलिटिकल स्टडीज़ में एमफ़िल कोर्स में प्रवेश के लिए आवेदक थे। पर दाख़िले की मनाही के बाद वे तकनीकी रूप से विश्वविद्यालय के छात्र नहीं रह गए थे और इसी वजह से छात्रसंघ सभा की अध्यक्षता नहीं कर सकते थे। उनकी ग़ैरमौजूदगी में अशोका ने अध्यक्ष की कुर्सी सँभाली और अधिकारियों ने भड़ककर उन्हें भी निकाल दिया।

विश्वविद्यालय की इसी कार्यवाही के ख़िलाफ़ एसएफ़आई की हड़ताल के आह्वान को सफल बनाने के लिए प्रबीर 25 सितम्बर की उस सुबह स्कूल ऑफ़ लैंग्वेजेज़ के बाहर खड़े थे। भाषा और साहित्य की पढ़ाई का यह संकाय वास्तु के लिहाज़ से पीडब्ल्यूडी मार्का इकसार आधुनिकता से ग्रस्त एक नीरस-सी बहुमंज़िला इमारत में स्थित था। विश्वविद्यालय के मुख्य पूर्वी प्रवेशद्वार से डामर की एक सड़क, कुछ मुरझाए हुए पेड़ों से घिरे दो सूखे पड़े बग़ीचों के बीच से होती दक्षिण की ओर चली आई थी। प्रबीर और उनके कॉमरेड इसी सड़क पर स्कूल के प्रवेशद्वार से ठीक पहले खड़े थे और बाहर से आनेवाले इक्का-दुक्का छात्रों को रोककर उन्हें कक्षाओं का बहिष्कार करने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे थे। इसी बीच देवी प्रसाद त्रिपाठी उन्हें आकर मिले, हड़ताल की आगे दिन की कार्ययोजना पर चर्चा की और फिर पुस्तकालय की ओर निकल गए।

तक़रीबन 10 बजे सुबह काले रंग की एक गाड़ी ने मुख्य द्वार से प्रवेश किया, बायें घूमी और तेज़ी से स्कूल ऑफ़ लैंग्वेजेज़ की ओर बढ़ने लगी। एम्बेसेडर  थी—उस दौर के हिन्दुस्तान में निर्मित होनेवाले मोटरगाड़ी के चुनिन्दा तीन मॉडलों  में से एक, भारतीय अफ़सरशाही की पहली पसन्द। इसकी ड्राइविंग सीट पर थे शरीर से तगड़े, रोबदार सिख अफ़सर पी. एस. भिंडर (डीआईजी, दिल्ली पुलिस), साथ में डीएसपी टी. आर. आनन्द और दो सिपाही। सभी सादी वर्दी में थे।  

स्याह गाड़ी छात्रों के पास आकर रुकी। भिंडर गाड़ी से उतरे और प्रबीर की  ओर बढ़े। उन्होंने प्रबीर से पूछा, “क्या तुम देवी प्रसाद त्रिपाठी हो?” प्रबीर ने इसका जवाब ‘नहीं’ में दिया। लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने पाया कि उन्हें गाड़ी की ओर धकेला जा रहा था। ऐसा होता देखकर आसपास खड़े उनके साथी फ़ौरन उन्हें बचाने के लिए कूदे, और पल-भर के लिए उन्होंने प्रबीर को उन सादे कपड़े पहने अनजान लोगों की पकड़ से छुड़ा भी लिया। प्रबीर ने भी प्रतिरोध किया, लेकिन पुलिसवालों ने छात्रों को पीटना शुरू कर दिया और प्रबीर को टाँगों से उठाते हुए गाड़ी की पिछली सीट पर ठेल दिया। प्रबीर के साथी मदद के लिए चिल्ला रहे थे। उनमें से एक, दूसरी ओर ड्राइवर की सीट की तरफ़ भागी गाड़ी की चाबियाँ निकालने के उद्देश्य से, लेकिन भिंडर ने पीछे से आकर उसे बालों से जकड़ते हुए ज़मीन पर पटक दिया। इस बीच प्रबीर की नज़र कुछ दूरी पर खड़े छात्रों के एक समूह से जा मिली, जो दूर से ही उनकी इस दुर्दशा को देख रहा था। उनके मन में उम्मीद की किरण जागी। लेकिन जब उन्होंने इन छात्रों को भयभीत होकर इधर-उधर भागते देखा, उनकी रही-सही उम्मीद भी बिखर गई। छरहरे शरीर के छटपटाते प्रबीर को पीछे की सीट पर दो ‘ठुल्लों’ ने जकड़ रखा था और उनके दोनों पाँव गाड़ी के अधखुले दरवाज़े से बाहर लटक रहे थे। एम्बेसेडर तेज़ रफ़्तार से वापस प्रवेशद्वार की दिशा में घूमी, और फ़र्राटे के साथ कैम्पस से बाहर निकल गई। 

यह अपहरण इतना अचानक और तेज़ हुआ कि प्रबीर के दोस्त ग़ायब हुई उस एम्बेसेडर के पीछे चिल्लाते रह गए। घटनास्थल पर भीड़ लग गई। आक्रोश से भरे प्रबीर के साथी कॉमरेड सबको चीख़़-चीख़़कर आपबीती सुना रहे थे। पर वहाँ अभी जो घटा, उसका ठीक-ठीक मतलब वारदात के तीनों चश्मदीद छात्रों सहित किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन इतना साफ़ था कि प्रबीर को दिन-दहाड़े उठा लिया गया था। सदमे और संशय का माहौल जल्द ही आक्रोश में बदल गया। तभी किसी ने डीसीपी आनन्द को मुख्यद्वार की ओर चलकर जाते हुए देखा। इस सारी अफ़रातफ़री में अपहर्ता पार्टी उन्हें अकेले छोड़कर चली गई थी। सितम्बर के आग बरसाते सूरज तले सड़क पर आवेश से धधकती भीड़ पतली गली से छिपकर निकलने की कोशिश करते पुलिस अफ़सर पर झपट पड़ी। उनके साथ धक्कामुक्की शुरू हो गई, दो-चार हाथ पड़े भी। फिर इकट्ठा हुई भीड़ में से ही कुछ शान्त दिमाग़ लोगों और कुछ अन्य संकाय सदस्यों ने आगे बढ़कर बीच-बचाव किया, और उन्हें भड़की हुई भीड़ द्वारा अधिक मार-पिटाई से बचाया। विश्वविद्यालय मुख्यद्वार के बाहर सादे कपड़ों में तैनात पुलिसवाले भी अपने घायल डीएसपी की रक्षा के लिए भीतर आ गए। 

जैसे ही ख़बर फैली, कैम्पस में क़यासों और अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो उठा। आख़िर प्रबीर का अपहरण कौन कर सकता है? उनमें से कोई भी ये अन्दाज़ा नहीं लगा पाया कि यह पुलिस की टोली थी, क्योंकि अपहर्ता दस्ता सादे कपड़ों में आया था। सवाल पूछा जाने लगा कि क्या यह वही काली एम्बेसेडर तो नहीं थी जो मेनका गांधी, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की छोटी पुत्रवधू, को कैम्पस लेकर आया करती थी? ग़फ़लत में अपहरणकर्ता क्या किसी और को भी पीछे छोड़ गए थे? क्या वे लोग कहीं छिपकर बैठे थे? कुछ छात्रों ने सूचना दी कि उन्होंने एक सादा वर्दी पुलिसवाले को पीछे छूट गए डीसीपी को बचाने के प्रयास में अपनी रिवॉल्वर लहराते हुए भी देखा था। ग़ुस्साए छात्रों का रेला मार्च करता अकादमिक खंड पहुँचा और विश्वविद्यालय प्रशासन से कार्यवाही की माँग करने लगा। एक छात्र को इस अपहरण की रिपोर्ट लिखवाने के लिए हौज़ ख़ास पुलिस थाने भेजा गया, जिसके क्षेत्राधिकार में जेएनयू कैम्पस आता है।

इस बीच अपहर्ता पुलिसकर्मी अपने शिकार के साथ तेज़ी से नज़दीकी आर.के. पुरम थाने की दिशा में बढ़ रहे थे। प्रबीर उन्हें भरसक समझाने का प्रयास कर रहे थे कि वे देवी प्रसाद त्रिपाठी नहीं है। लेकिन भिंडर को उनके कहे पर ज़रा विश्वास नहीं था। प्रबीर पतले-दुबले थे और चश्मा पहनते थे, ठीक देवी प्रसाद त्रिपाठी की तरह। हालाँकि उन दोनों के बीच इससे ज़्यादा समानता ढूँढ़ना मुश्किल था, लेकिन इतने से ही भिंडर को पक्का भरोसा हो गया था कि आज उसने त्रिपाठी को दबोच लिया है। थाने पहुँचकर उसने क़ैदी की कमान ड्यूटी पर तैनात अफ़सर को सौंपी और उसे हिरासत में रखने का निर्देश देते हुए बताया कि क़ैदी को ‘मीसा’ (आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम) के तहत गिरफ़्तार किया जाना है।

प्रबीर अपनी ज़िन्दगी में आए इस अप्रत्याशित अप्रिय मोड़ के लिए क़तई भी तैयार नहीं थे। पिछले ही साल वो दिल्ली आए थे और अभी कुछ ही समय हुआ कि उन्होंने जेएनयू के कंप्यूटर साइंस विभाग में शोध के लिए दाख़िला लिया था। उनका दाख़िला लेना स्वाभाविक भी था, क्योंकि वैसे भी उनका ज़्यादा समय इसी कैम्पस में बीतता था, साझा राजनैतिक सोच रखने वाले अपने एसएफ़आई के बन्धु-बान्धवों के साथ। छात्र के रूप में ख़ुद प्रबीर की राजनैतिक दीक्षा उन्नीस साल की उम्र में साल 1969 में हुई थी। हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद कलकत्ता शहर में उन्होंने बंगाल कॉलेज ऑफ़ इंजिनियरिंग में दाख़िला हासिल किया, जो सामान्य मध्यवर्गीय परिवार की सन्तान के लिए उसका स्वाभाविक करियर विकल्प होता।  

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पहले उन्हें सेंटर फ़ॉर साइंस पॉलिसी में दाख़िला मिला, लेकिन कंप्यूटर साइंस विभाग में पीएचडी  प्रोग्राम के शुरू होने पर प्रबीर वहाँ के शोध छात्र बने। जेएनयूमें प्रवेश मिलने के  चलते उन्हें न्यू कैम्पस में छात्र छात्रावास में रहने को कमरा भी मिल गया। जैसे सब कुछ प्रबीर और अशोका की योजनानुसार घट रहा था, और इस जोड़े ने पहली फ़ुर्सत में अतिरिक्त ज़िलाधीश (एडीएम) प्रदीप्तो घोष के दफ़्तर में सिविल मैरिज  के लिए आवेदन भर दिया। आगे जाकर इसी अधिकारी की प्रबीर की ज़िन्दगी में दोबारा एंट्री होनी थी, लेकिन नितान्त भिन्न परिस्थितियों में। लेकिन 25 सितम्बर की सुबह के उस नाटकीय घटनाक्रम से ठीक पहले तक, जब वे अपनी कॉमरेड और भावी जीवनसाथी के निष्कासन के विरोध में हड़ताल की कार्यवाही को आगे बढ़ाने में लगे हुए थे, ज़िन्दगी प्रबीर के लिए एकदम सीधी-चिकनी पटरी पर दौड़ रही थी।

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फिर अचानक ऐसा क्या हुआ जिसने उस मनहूस सुबह उनकी क़िस्मत पलट दी? इसका तार सीधा जुड़ता था 25 जून, 1975 की आधी रात घटी उस घटना से जब राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफ़ारिश पर आपातकाल की घोषणा की थी। इस उद्घोषणा में आपातकाल लागू करने की वजह ‘देश की आन्तरिक सुरक्षा को ख़तरा’ बताया गया था। 

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उसी रात प्रबीर को पुलिस थाने से दिल्ली की तिहाड़ जेल ले जाया गया। कुछ ही समय बाद उन्हें वहाँ से आगरा जेल भेज दिया गया, जहाँ प्रबीर ने पच्चीस दिन अकेले कालकोठरी में काटे।  

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आपातकाल का असर किसी प्रचंड तूफ़ान जैसा विध्वंसकारी था, और प्रबीर  उसका ग़लती से चपेट में आया शिकार। लेकिन इस ज़लज़ले का विधाता कौन था? और यह ज़लज़ला जेएनयू नामक नेहरू के विचारों से रचे इस नख़लिस्तान पर क्यों फट पड़ा? नेहरू के प्रगतिशील, बहुलतावादी और अन्तरराष्ट्रीय नज़रिये को ख़ुद में धारण करने वाले इस विश्वविद्यालय ने राष्ट्रीय राजनीति की तरह पहले कभी जाति, धर्म या इलाक़ाई भेदों से उपजी झड़प नहीं देखी थी। लेकिन आपातकाल के इस ध्वंसकारी आगमन ने जता दिया था कि भारतीय राजनीति की दुरभिसंधियों से  जेएनयू रूपी यह वैचारिक टापू भी बच नहीं सकता है।

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आपातकाल के दौर की इंदिरा हुक़ूमत आसमान से नहीं टपकी थी, ना ही प्रबीर पुरकायस्थ का जेएनयू से दिनदहाड़े अपहरण कोई संयोग था। जो प्रलयंकारी घटनाएँ 1975 से 1977 के बीच घटीं, उनके लिए मेघखंड अतीत में काफ़ी पीछे से एकत्रित हो रहे थे और उनके नतीजे मुल्क को आगे कई दशकों तक देखने थे।

[नोट - ‘आपातकाल आख्यान : इंदिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा’ किताब अगले माह से पाठकों के लिए उपलब्ध होगी।]