नीतीश कुमार ने क्यों लौटा दिए थे नरेन्द्र मोदी के भेजे हुए पाँच करोड़?

लोकसभा चुनाव के बाद बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) के प्रमुख नीतीश कुमार बहुत चर्चा में है और उन्हें एनडीए के किंगमेकर के तौर पर देखा जा रहा है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उदय कांत द्वारा लिखित उनकी जीवनी ‘नीतीश कुमार : अंतरंग दोस्तों की नज़र से’ में से नीतीश कुमार एक रोचक किस्सा, जब उन्होंने बीजेपी नेताओं से लिए रखी हुई दावत को अचानक से रद्द कर दिया था।

***

1971 में बाँग्लादेश के पाकिस्तान से अलग कर दिए जाने के समय से ही पाकिस्तान की सरकार भारत से बदला लेने के लिए तिलमिलाती रहती थी। पाकिस्तान के हुक्मरानों की शह पर वहाँ की आतंकवादी शक्तियाँ और भारत से भागकर वहाँ जा बसे अवैध हथियारों के तस्कर तथा ड्रग्स के माफिया सरगना भारत में अस्थिरता पैदा करने के लिए कुछ न कुछ षड्यंत्र रचते ही रहते थे। इसके लिए मुम्बई, गोवा और गुजरात सहित भारत के पश्चिमी समुद्री तटों और राजस्थानी रेगिस्तान से पाकिस्तान में बैठे दाऊद इब्राहीम की शह पर ख़ुराफ़ातों की बौछार होती रहती थी। अहमदाबाद में बैठा गैंगस्टर अब्दुल लतीफ़ दाऊद का पक्का यार था।

लतीफ़ अवैध शराब के कारोबार के अलावा संगमरमर के व्यापारियों से जबरन वसूली, अपहरण, फिरौती, डकैती, ब्लैकमेल आदि करने के लिए कुख्यात तो था ही, वह हथियारों सहित हर प्रकार की तस्करी का उस्ताद भी था। बताया जाता है कि 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ढाँचे के गिरने के बाद दाऊद के इशारों पर लतीफ़ की टीम ने भारत में दंगे शुरू करवा के नया बवाल शुरू किया। एकाएक साम्प्रदायिकता का काला धुआँ भारत के पश्चिमी छोर पर फिर से मँड़राने लगा। यह भी कहा जाता है कि लतीफ़ ने ही देश में आतंक फैलाने के लिए पाकिस्तान से एके 47 जैसे हथियारों की बड़ी खेप स्मगलिंग के ज़रिये मँगाई थी। देश में जहाँ-तहाँ दंगे-फ़साद होने लगे थे। आतंक के इस ज़हर के पहले डोज़ का असर कम भी नहीं हो पाया था कि 12 मार्च, 1993 को मुम्बई में सिलसिलेवार ढंग से 12 जगहों पर धमाके हुए। इसमें क्रमशः 257 मारे और 713 लोग घायल हुए थे। इसे भारत में मुसलमानों पर हो रहे तथाकथित अत्याचारों और अयोध्या में हिन्दुओं द्वारा बाबरी ढाँचे के गिराए जाने का बदला लेना बताया गया। इससे देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने लगा। बिहार की अन्तरराष्ट्रीय सीमा के कुछ नौजवानों के नाम भी आतंकवाद के लपेटे में आए। बम्बई ब्लास्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक़ इस घटना का मास्टर माइंड दाऊद ही था। भारत में वैसे उसके सहयोगी कई बदमाश थे पर हथियारों की सप्लाई और हीरा-सोना जैसे बहुमूल्य पदार्थों की स्मगलिंग के लिए लतीफ़ उनमें सबसे मज़बूत माना जाता था।

10 अक्टूबर, 1995 को लतीफ़ को गुजरात एटीएस, सीबीआई और दिल्ली पुलिस ने जॉइंट ऑपरेशन में पकड़ा। कहा जाता है लतीफ़ के पास जो स्मगलिंग से आई काफ़ी बड़ी तादाद में एके 47 राइफ़लें थीं वह सब उसका ड्राइवर ले उड़ा था। सोहराबुद्दीन शेख नाम था उस ड्राइवर का। ये राइफ़लें पुलिस ने मध्य प्रदेश के उज्जैन ज़िले में सोहराबुद्दीन के घर से 1995 में बरामद कर लिए थे। इसलिए मुम्बई ब्लास्ट के सिलसिले में सोहराबुद्दीन का नाम भी बतौर हिस्ट्रीशीटर आया था। इस बीच 28 नवम्बर, 1997 को लतीफ़ अहमदाबाद क्राइम ब्रांच से हुई मुठभेड़ में मार गिराया गया। लतीफ़ के मरते ही सोहराबुद्दीन शेख का नाम नए डॉन के रूप में उभरा। गुजरात पुलिस के मुताबिक़ सोहराबुद्दीन के सम्बन्ध अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के साथियों और लश्कर-ए-तैयबा व पाकिस्तान के आइएसआई से थे। इसके बाद सोहराबुद्दीन पर हत्या, तस्करी, एके-47 राइफ़लों का अवैध ज़ख़ीरा रखने के अलावा गुजरात और राजस्थान के व्यापारियों से जबरन वसूली के कई मुकदमे दर्ज हो गए। सोहराबुद्दीन पर चरमपंथी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के साथ जुड़े होने, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और आन्ध्र प्रदेश में हथियार सप्लाई करने के आरोप तो थे ही लेकिन जो उस पर सबसे संगीन इल्ज़ाम लगाया गया वह था नरेन्द्र मोदी की हत्या की साज़िश रचने का।

गुजरात सरकार की मानें तो सोहराबुद्दीन आतंकवादी था जो राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मारने की फ़िराक में था। पुलिस की रिपोर्ट के मुताबिक़ उसे हैदराबाद में 22 नवम्बर, 2005 को उसकी पत्नी कौसरबी और साथी तुलसी प्रजापति के साथ गिरफ़्तार किया गया था। 26 नवम्बर, 2005 की सुबह सोहराबुद्दीन पुलिस एनकाउंटर में अहमदाबाद में मारा गया। उसकी पत्नी, कौसरबी, न जाने कहाँ गुम हो गई जिसका कोई पता नहीं चला। सोहराबुद्दीन का साथी और उसके एनकाउंटर का आख़िरी चश्मदीद गवाह, तुलसीराम प्रजापति भी गुजरात के ही बनासकांठा ज़िले में पुलिस एनकाउंटर में मारा गया।

2004 से 2014 तक केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। उसने यह मामला सीबीआई को सौंप दिया था। सीबीआई ने सोहराबुद्दीन की हत्या के सिलसिले में गुजरात के तत्कालीन गृह राज्यमंत्री, अमित शाह को 2010 में गिरफ़्तार करके रिमांड पर भेज दिया था। अमित शाह तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के दाहिने हाथ माने जाते थे। 2023 में, आज भी, देश के गृह मंत्री की हैसियत से, वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सबसे विश्वसनीय सहायक और मित्र हैं। दक्षिणपंथियों के लिए अमित शाह की गिरफ़्तारी का मतलब था नरेन्द्र मोदी पर सीधा आक्रमण। सोहराबुद्दीन के मामले में अमित शाह की गिरफ़्तारी से एक ख़ास विचारधारा रखनेवालों के लिए नरेन्द्र मोदी ‘हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तान’ के पर्यायवाची बन गए। गुजरात को तरक़्क़ी के रॉकेट पर चढ़ाकर आगे बढ़ाने की वजह से मोदी की प्रशासनिक प्रतिभा के डंके बजने लगे थे। इसलिए प्रधानमंत्री पद के लिए बीजेपी और हिन्दुत्ववादियों का सबसे पसन्दीदा प्रत्याशी होने से उन्हें कौन रोक सकता था?

यहाँ रुककर इस सिलसिले में नीतीश की मानसिकता समझने की ज़रूरत है। वह अपने एसवाईएस के दिनों से ही बाबा साहब आम्बेडकर और भारत के संविधान में लिखे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों पर अदम्य विश्वास रखता आया है। वह देश की शुरू से बनी धर्मनिरपेक्ष छवि को बचाए रखने के लिए किसी भी धुर दक्षिणपंथी नेता को प्रधानमंत्री बनाने के विचार का यथाशक्ति विरोध करता था। इधर उसके मंत्रिमंडल में शामिल दक्षिणपंथी विचारधारा वाले कुछ मंत्री ‘हर-हर मोदी, हर घर मोदी’ का मंत्र जाप करने लगे थे। नीतीश उसे चिढ़ानेवाले इस नए चलन को जानबूझकर बहुत महत्त्व नहीं देता था। उसे लगता था कि नारे लगानेवाले इन नेताओं की अपनी ही पार्टी में कोई ताक़त, कोई सुनवाई नहीं थी इसलिए अपनी पहचान बनाने के लिए ये सब इधर-उधर टरटराते रहते थे। उसका यह आकलन सही नहीं था क्योंकि इन नाच रही कठपुतलियों की डोर किसी और जादूगर की उँगलियों में थी। बिहार में बीजेपी के सर्वाधिक स्वीकृत चेहरे, सुशील मोदी ने सार्वजनिक रूप से नीतीश को प्राइम मिनिस्टर मैटेरियल बताकर फ़िज़ा बदलने की कोशिश भी की थी लेकिन इस बयान की क़ीमत उन्हें 2020 में चुकानी पड़ी जब उन्हें राज्य की राजनीति से खींचकर राज्यसभा भेज दिया गया। उनके साथ ही बिहार बीजेपी के कुछ और बड़े नाम भी हाशिये पर लटका दिए गए। ये सब नीतीश की सरकार में वर्षों से कैबिनेट मंत्री रहे थे।

फिर आ गया 2009 का मई महीना। एनडीए के प्राय: सभी घटक चाहते थे कि उनकी ओर से प्रधानमंत्री का चेहरा लालकृष्ण आडवाणी ही हों। इस सिलसिले में 10 मई को लुधियाना में सभी घटक दलों के मुख्यमंत्रियों को एक विशाल जनसभा को सम्बोधित करने बुलाया गया था। नीतीश के लिए इस सभा के आयोजकों ने चंडीगढ़ तक चार्टर्ड प्लेन की व्यवस्था की थी। उसके साथ गए एक सरकारी अधिकारी ने बताया था कि जाते समय ‘साहब’ बहुत ‘अनमने’ थे और लौटते समय बिलकुल ‘आगबबूला’। इसकी बेहद ख़ास वजह थी। दरअसल हुआ यह कि लुधियाना में जैसे ही नीतीश स्टेज पर पहुँचा वैसे ही कहीं से भाई नरेन्द्र मोदी अचानक प्रकट हो गए। उन्होंने पास आकर झट से नीतीश का दाहिना हाथ अपने बाएँ हाथ में पकड़ा और मुस्कुराते हुए उसे पट से हवा में उठा दिया! नीतीश के लिए यह अत्यन्त अप्रत्याशित था क्योंकि उसके सामने अनगिनत कैमरों के फ़्लैश अचानक चमक उठे थे। इस फ़ोटो में नीतीश के चेहरे पर ज़बरदस्ती ओढ़ी हुई खिसियानी मुस्कान बाक़ी सब कहानी अपने आप बयान कर देती है। नीतीश और मोदी सहित एनडीए के सारे दिग्गजों के इस रैली में भाग लेने से 2009 के चुनाव में आडवाणी या बीजेपी का तो क्या ख़ाक भला हुआ, उलटे दिल्ली में पाँच साल के लिए यूपीए की सरकार फिर से क़ाबिज़ हो गई!

लुधियाना में मोदी और नीतीश के इस फ़ोटो प्रकरण को किसी जानकार ने इसे ‘एडवांटेज मोदी’ का फ़तवा भी दे दिया! इसे सुनकर नीतीश कसमसाता रहा पर इधर-उधर अपनी भड़ास निकालने के सिवाय कुछ कर नहीं पाया। साल भर बाद ही बिहार में 2010 के अक्टूबर में विधानसभा चुनाव होने थे। नीतीश 28 अप्रैल से ही ‘विश्वास-यात्रा’ में राज्य के सुदूर क्षेत्रों में व्यस्त था। तब तक की ऐसी सभी यात्राओं में नीतीश के साथ उसके सहयोगी दल, बीजेपी के कई मंत्री भी होते थे। नीतीश यात्रा के बीच-बीच में एकाध दिनों के लिए पटना आकर सरकारी काम भी तत्परता से निबटा लिया करता था।

उन्हीं दिनों 12 जून से पटना में होनेवाली बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की ज़ोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हो गई थीं। बीजेपी में नीतीश के हिमायती पटना में इस बैठक के किए जाने के निर्णय से आशंकित थे क्योंकि इसमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का आना और उनको बड़ी धूमधाम से देश के बहुत सशक्त नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया जाना तय था। पटना की दीवारों पर पहले से लिखी पुरानी इबारतों पर एक नए और चमकदार चेहरे वाला पोस्टर चिपकाया जा रहा था।

अपना चचा बुक़रात 11 जून की दोपहर से ही पटना में था। जून महीने में पटना में ऐसी सड़ी गर्मी पड़ती है कि तौबा ही भली। नीतीश उसी शाम अपनी किसी लम्बी यात्रा से थका-हारा, गर्मी में झुलसकर, पटना लौटा था। फिर भी 12 जून की रात नीतीश ने अपने सरकारी घर में बीजेपी के सभी नेताओं की बड़ी दावत रखी थी जिसकी तैयारियाँ वहाँ सुबह से ही चल रही थीं। चचा भी वहाँ कुछ चुगने के चक्कर में 12 की सुबह को ही नीतीश के पास धमक गया था। वह निशान्त के पास बैठकर कई दिनों की दौड़-भाग से थककर सोए हुए नीतीश के जगने का इन्तज़ार कर रहा था। तभी उसके पुराने दोस्त (अब मरहूम) हाजी तक़ी उमर ख़ाँ साहब का फ़ोन आ गया। हाजी साहब नीतीश के ख़ैरख़्वाह थे। उन्होंने पहले चचा से आज के किसी भी अख़बार में छपे विज्ञापन को देखने के बारे में पूछा। चचा ने तब तक कोई अख़बार नहीं देखा था। जब चचा ने बताया कि उसे पटना के अख़बारों में कोई दिलचस्पी नहीं थी तब हाजी साहब ने उसे संजीदा होकर बात सुनने को कहा। उन्होंने कहा, ‘ब-ख़ुदा (ईश्वर की सौगन्ध) कुछ लोगों ने इस बार अख़बारों में इश्तहार देकर नीतीश जी के लिए बड़ा महीन ट्रेप बिछाया है। आप नीतीश बाबू से कहिए कि बिहार का हर समझदार मुसलमान नीतीश बाबू की नेकनीयती और ईमानदारी का क़ायल है। बाहर का कोई आदमी चाहे कितनी भी कोशिशें कर ले, हम नीतीश बाबू से अलग नहीं होने वाले। उन्हें इस इश्तहार को बिलकुल नज़रअन्दाज़ कर देना चाहिए।’

यह सब सुनकर चचा फ़ौरन बाहर गया और उसने एक हिन्दी अख़बार ख़रीदकर मामला समझा। 12 तारीख़ को पटना के बड़े हिन्दी अख़बारों में किसी ‘बिहार के मित्र’ ने काफ़ी रुपये ख़र्च करके एक विज्ञापन दिया था। उसमें कोसी के बाढ़ पीड़ित बिहारियों के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के पाँच करोड़ के महादान को महिमामंडित करते हुए इसके लिए ‘बिहार के मित्र’ ने उनका आभार व्यक्त किया था। इसमें लुधियाना वाली नीतीश और मोदी की फ़ोटो भी छपी थी। चचा को भी लगा कि यह तो कोई ख़बर नहीं थी, महज़ इश्तहार था नीतीश को इस इश्तहार के बारे में चुप ही रहना चाहिए। लोग अगले दिन ही इसे भूल भी जाएँगे। लेकिन जब तक वह नीतीश के पास पहुँचा तब तक तीर हाथ से निकल चुका था। नीतीश ने अख़बारों से झाँकते अपने और मोदी की फ़ोटो से सब जान और समझ लिया था। उसकी पहली प्रतिक्रिया थी कि जिस महायज्ञ में हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च हो गए उसमें मात्र पाँच करोड़ की रक़म ‘महादान’ कैसे हो गई? उसके बिना रिलीफ़ का कौन सा काम रुका? यह सब सोचकर उसने तुरन्त यह रक़म गुजरात सरकार को वापस करने का आदेश दे दिया जिसे गुजरात सरकार ने अपने ख़ज़ाने में फ़ौरन जमा करा लिया।

हर किसी समझदार आदमी को वह विज्ञापन थोड़ा अशिष्ट और अनावश्यक लगा। इसलिए रक़म लौटाने का नीतीश का फ़ैसला तो हर किसी के समझ में फ़ौरन आ जाने से उसे पूरे राज्य का मौन समर्थन मिल गया। लेकिन उसके बाद जो हुआ वह पहले किसी की समझ में ही नहीं आया। बिना कोई कारण बताए नीतीश ने उस रात बीजेपी के नेताओं के स्वागत में जो दावत रखी थी, वह भी कैंसिल कर दी। दूर बैठे हम लोगों को लगा कि यह गठबन्धन धर्म के अलिखित नियमों का सरासर उल्लंघन था। क्या नीतीश उसके साथ की गई किसी नीचता का जवाब दूसरी नीचता से दे रहा था? लेकिन यह तो उसके स्वभाव के बिलकुल विपरीत बात थी!

हमने चचा से सामने पत्तल परोसकर फिर से वापस खींचने की उस घटना की वजह समझने की कोशिश की। चचा ने बेहद मायूस होकर कहा—

‘ऐसा करके नीतीश ने बीजेपी की गोट ही लाल कर दी! रातों-रात वे ‘भगवा विलेन’ से ‘भगवा विक्टिम’ में तब्दील हो गए। इस तमाशे के बाद मुसलमानों के दिलों में बसी नीतीश की तसवीर का रंग चाहे और पक्का न हुआ हो लेकिन न जाने कितने ढुलमुल लोगों का रंग रातों-रात भगवा हो गया। नीतीश की इस ज़रा सी मेहरबानी से बीजेपी के वोट तो शायद बढ़ गए लेकिन नीतीश का कोई ख़ास नुक़सान नहीं हुआ। सोचो ज़रा कि इस इश्तहार के बाद अगर दावत होती तो अख़बार और टीवी वालों के सामने लुधियाना वाली कहानी एक बार फिर से दोहराई जाती। यह दास्तान अगले दिन की सुर्ख़ियाँ बनकर पूरे सूबे में नीतीश के कैरेक्टर के दोहरे चेहरे की झूठी और मनगढ़न्त कहानियाँ फैलातीं। लोगों में यह मैसेज चला जाता कि कहने को तो वह सेक्युलर है पर है वह भी अपने मेहमानों जैसा ही; जिनसे वह मज़े से गलबहियाँ ले रहा है! नीतीश माइनॉरिटी के लिए फ़िक्रमन्द होने की अपनी साफ़-सुथरी इमेज को हमेशा बेदाग़ रखता आया है। उसे वैसी ही बनाए रखने के लिए वह कोई भी क़ीमत देने को हमेशा तैयार रहा है, बड़ी मेहनत से बनाए तब तक के अपने पॉलिटिकल कैरियर तक की भी!’

अपने इस फ़ैसले से नीतीश बिलकुल ख़ुश नहीं था क्योंकि वह स्वभाव से बेहद संवेदनशील और सभ्य है। इसलिए किसी को दावत देकर फिर ऐन वक़्त पर पीछे हट जाने की मजबूरी उसे हमेशा सालती है। इससे फ़ायदा उठाकर लोगों के एक तबक़े ने शिगूफ़ा छोड़ दिया कि राष्ट्रवादी मोदी की तुलना में नीतीश अविवेकी, हठी, घमंडी और मुसलमानों का चापलूस है। हम जानते हैं कि चचा ने उस दिन कुछ भी नहीं खाया। उस रात उसने अपनी काली डायरी में बस एक लाइन लिखी—

‘आज एक मीठे ख़रबूज़े को बेहद कड़वे खीरे में तब्दील होते देखकर मैं बेहद पशेमाँ हूँ।’

इस अप्रिय घटना और उसके फलाफल की चर्चा तो किसी ने नहीं की पर हमारे ज़ेहन में बसी चचा की डायरी की लाइन ने सारी कहानी साफ़ कर दी। इस घटना से पहले बीजेपी और जेडीयू की दोस्ती ख़रबूज़े जैसी थी जिसकी धारियों को बाहर से देखने से लगता है कि इसके अन्दर भी ऐसे ही बहुत से टुकड़े मिलेंगे। लेकिन ख़रबूज़े के अन्दर कोई फाँक नहीं होती। इसके उलट खीरा बाहर से चिकना और एक जैसा ही दिखता है पर इसके अन्दर तीन फाँकें होती हैं। 12 जून की रात को अब तक ठीक चल रहे गठबन्धन का वही हाल हो गया।

नीतीश का ‘विश्वास-यात्रा’ पर कैबिनेट मंत्री नन्दकिशोर यादव और उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी के साथ निकलना पहले से तय था। लेकिन 12 जून की रात को हुई बदमज़गी के बाद बीजेपी के दोनों मंत्री कोई न कोई कारण बताकर साथ गए ही नहीं।

दूसरी बार 2010 में बिहार विधानसभा का चुनाव प्रचंड बहुमत से जीतने के बाद नीतीश कुमार की देश में राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व कर सकने की छवि बनने लगी थी कि मोदी को टक्कर देने की क्षमता सिर्फ़ नीतीश में है। लेकिन नीतीश विरोधी अफ़वाहों से बाज़ार अटा पड़ा था कि वह हिन्दू विरोधी है, कि वह अन्य लोगों की क़ीमत पर मुसलमानों को आगे बढ़ाने में लगा है, कि नीतीश की शह पर नेपाल से लगनेवाली सीमाओं पर दुनिया-भर के मदरसे और मस्जिद बन गए हैं, कि नीतीश की वजह से बिहार आतंकवाद की प्रयोगशाला बन गया है जहाँ से देश-भर के लिए जेहादी तैयार किए जा रहे हैं आदि-इत्यादि। नीतीश के नाम पर ऐसे कीचड़ उछालने का काम उसके लिए कोई नई बात नहीं थी। राज्य की राजनीति के आरम्भिक दिनों में नीतीश ऐसी ही अफ़वाहों का शिकार हो चुका था जब उसी की जाति के पुराने नेताओं ने उसकी समदर्शी सोच को कुर्मी विरोधी बताकर उसे विधानसभा के चुनावों में दो बार हरवा दिया था। अब ठीक वही सब केन्द्र की राजनीति में हो रहा था। विधानसभा के चुनाव की तारीख़ें तेज़ी से नज़दीक आती जा रही थीं। किसी अन्य विकल्प के अभाव में मीठे ख़रबूज़े से कड़वा खीरा बन गई इस जोड़ी ने 2010 का चुनाव साथ लड़ा भी और बिना नरेन्द्र मोदी की किसी मदद के बहुत बड़ी जीत भी हासिल की।

 

[‘नीतीश कुमार : अंतरंग दोस्तों की नज़र से’ पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें।]