
‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में पढ़ें, देवेश की रंगयाद : “गोबर का घोल और खेत में बैठी आकृति”
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‘होली’ शब्द सुनते ही दिमाग़ में कई दृश्य रील की तरह चलने लगते हैं। एक दृश्य है कि पापा के दोस्त आये हैं। बरामदे में बैठे गप कर रहे हैं। मुझसे या मेरे भाई से कह रहे है। कि मुझे मौसा कहो तो बिस्कुट दूँगा। हम कहते हैं। वे बिस्कुट नहीं देते, बस हँसते रहते हैं। हमारे मन में प्रतिशोध का भाव आता है। मम्मी को तैयार किया जाता है कि फलाँ चचा के ऊपर रंग डालो। मुसीबत ये होती कि मम्मी बरामदे में सबके सामने जातीं नहीं। दरवाजे के पास जाकर हम कोण और दूरी समझते, मम्मी को बताते। मम्मी लोटे में रंग घोलतीं...दरवाजे के पास मम्मी लोटा लिए खड़ी रहतीं और मौका पाते ही हमारे मौसा कहने पर गद्गद पड़े पापा के दोस्त के ऊपर लोटा उँड़ेल देतीं। अपना बदला पूरा होते देख हम प्रसन्न हो जाते।
कई बार बरामदे में यह कार्यवाही सम्भव नहीं हो पाती तो किसी न किसी बहाने से खटिया बाहर की जाती। फिर माता जी छत पर जातीं और वहाँ से रंग बरसातीं। ऐसे दर्जनों दृश्य हैं। स्मृति में लेकिन कभी किसी को बुरा मानते, नाराज़ होते नहीं देखा-सुना। यह सब होली के दस दिन पहले से लेकर दस दिन बाद तक चलता। बाज़ार से, रास्तों से गुज़रते हर व्यक्ति के कपड़े रँगे मिलते।
पतले बाँस को काटकर पिचकारी बनाने का काम बाबा कर देते। हमारी पिचकारी जब तैयार हो जाती तो पहले उसमें पानी भरकर यह जाँच की जाती कि कितनी दूरी तक प्रक्षेपण कर पाने की क्षमता इसमें है। ट्यूबवेल के हौज में जितना पानी रहता, वो हमारे लिए प्रशान्त महासागर से भी ज्यादा होता। मन में इच्छा होती कि काश घरवाले इतने पैसे दे दें कि पूरे हौज में रंग लाकर घोल दिया जाए और जमकर होली खेली जाए। हमारे गाँव के दक्खिन में एक गड़ही है। होली के आस-पास उसका अधिकांश सूख जाता। ऐसे में उसकी मिट्टी से हम बच्चे खेलते रहते। मिट्टी की विशेषता कहें या कमी कहें, उससे त्वचा में खुजली होने लगती। न जाने कब और किस शरारती पुरखे ने इस मिट्टी का नाम ‘गलमिजनी माटी’ रख दिया। यह गलमिजनी माटी होली में एक प्रमुख भूमिका में रहती। सभी हमजोली एक-दूसरे के गालों पर यह माटी रगड़ते रहते। कुछ रसायन विशेषज्ञ गलमिजनी माटी को गोबर के साथ पानी में घोलकर जो द्रव तैयार करते उसका उपयोग उन बाल और वृद्धों पर किया जाता जो बात-बात पर होली को सबसे फालतू त्योहार बताते। जब होलियारों की टोली फील्डिंग सेट करके ऐसे प्राणियों को सराबोर करती तब उनके मुँह से झड़ रहे वचनों को सुनने का अपना ही आनन्द होता।
एक बार होलिका दहन के दिन गाँव के जयराज भाई सउदी से आए। पैसे कमाकर लौटे थे तो हमउम्रों को जुटाकर उन्होंने आदेश दिया कि पाँच साल बाद मैं होली पर गाँव आया हूँ तो आनन्द में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। वे अपने साथ खूब रंग-गुलाल लाए थे। लौंडों ने तत्काल सभा बुलाई। जयराज भाई ने सभा के लिए समोसे और कोल्ड-ड्रिंक मँगवाए। एक बालक ने विचार रखा कि उसके खेत में लोग मना करने के बावजूद शौच के लिए जा रहे है। और पूरा खेत कुम्भीपाक बन गया है। उसकी इच्छा थी कि आज होलिका दहन से पहले ऐसे लोगों पर गोबर और गलमिजनी माटी का घोल फेंका जाए. शायद सउदी में पाँच सालों के दौरान जयराज भइया ने कोई लोमहर्षक कार्य नहीं किया था, उन्होंने इस विचार का न केवल समर्थन किया बल्कि घोषणा कर डाली कि उस लड़के के खेत में बैठी पहली आकृति पर बाल्टी लेकर वही धावा बोलेंगे।
सूर्य देवता अस्ताचल की ओर शनैः-शनैः बढ़ रहे थे। लड़कों की टोली तत्परता से लगी थी। गाँव के छोर पर कुएँ के पास बैठकर सबने खेतों की तरफ नज़रें गड़ा दीं। अचानक एक आकृति उस लड़के के खेत की तरफ चलती हुई आई और बैठ गई। जयराज भाई इतने उत्साहित थे कि कोई नारा लगाना चाहते थे लेकिन शिकार सतर्क हो जाता इसलिए उन्होंने किसी तरह स्वयं को नियंित्रत किया। बाल्टी लेकर टोली की तरफ दर्प भाव से देखने के बाद जयराज भइया शिकार की तरफ बढ़े। हौले-हौले बेआवाज़ कदमों से शिकार के पीछे जाकर जयराज भइया ने बाल्टी को ठीक उसके सिर के ऊपर लुढ़का दिया। प्रचलित गालियों से इतर, स्वयं की अद्भुत भाषिक क्षमता से नवीन गालियाँ गढ़ने का हुनर गाँव में सिर्फ एक ही व्यक्ति को था और वह थे जयराज के पिता जी। टोली ने कुएँ से और जयराज भाई ने बिलकुल पास से उस वक़्त एक वाक्य सुना—‘कौन डोमड़ा हौ रे?’ फिर क्या हुआ, इसका अनुमान आप इसी बात से लगाइए कि थोड़ी देर बाद हुए होलिका दहन पर जयराज भइया अनुपस्थित थे।
होली वाला दिन चरणबद्ध तरीके से बीतता। नीमअँधेरे मम्मी और दादी गुझिया बनाने में लग जातीं। सुबह उठते ही हम भरपेट गुझिया खा लेते। फिर महीनों पहले से निर्धारित किये गए वस्त्रों को धारण करके होली खेलने निकला जाता। बाल्टी में रंग घोले, पिचकारी लिए बेतहाशा गलियों में दौड़ते-शोर मचाते दोपहर हो जाती। आस-पड़ोस की लड़कियाँ समूह में जब हमारे घर की तरफ आतीं तो मातृरक्षा के संकल्प से मन भर उठता। हम उन्हें येन-केन-प्रकारेण रोकना चाहते। उनकी रंग भरी बाल्टी लुढ़काकर, भागकर जाके दरवाजा बंद करके हम उन्हें रोकना चाहते। हमारा गुस्सा तब और बढ़ जाता जब मम्मी या दादी हमें डाँटकर कहतीं कि उन्हें अन्दर आने दो।
अधिकतम चार बजे तक रंगों से होली खेलने का काम निपट जाता, नहा-धोकर हम बच्चे अबीर की पुड़िया लिए सबके घर जाते और पैर छूकर आशीर्वाद लेते। इसके बाद असली फाग शुरू होता। कहीं से दुखंती काका की आवाज़ आती—
नदी किनारे धनिया बोउली धनिया गइल सुखाय
भउजी आपन जान बचावैं देवर गइल बौराय... जोगीरा सा रा रा रा रा
इसी बीच बाढ़ू नाऊ कहीं से उग आते—
एक कुआँ में सात कबुत्तर सातों माँगै दाना,
लक्खन दादा ताल मिलावैं नाचैं वोनकर नाना... जोगीरा सा रा रा रा
फिर क्या...लोग जुटने लगते...‘होली खेलैं रघुबीरा अवध में’ से लेकर ‘जोगी जी धीरे-धीरे...नदी के तीरे-तीरे’ होते हुए ‘आज बिरज में होरी रे रसिया’ तक पहुँचते। भाँग मिली ठंडई पीकर रात होते-होते पूरा गाँव मदमस्त हो जाता।
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