रंग याद है : साठ सालों की दास्तान-ए-होली

बचपन में गलती से भांग घुली हुई ठंडाई पीने का किस्सा हो या अखबारों में होली के मौके पर निकलने वाले गप्प भरे चुटकियों वाले पन्ने से जुडी़ यादें… ‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में पढ़ें, सुधा अरोड़ा की रंगयाद : “साठ सालों की दास्तान-ए-होली।" इसमें उन्होंने पिछले साठ वर्षों में देश के अलग-अलग शहरों- कोलकाता, जयपुर, इटावा, मुम्बई से बैंगलोर तक में मनाई गई होली की यादों को एक जगह समेटकर रख दिया है।

...

1964: होली की वानर सेना  

होली पर मन 60 साल पीछे लौट रहा है, जब हम स्कूल में पढ़ते थे। हम दो बहनें और पाँच भाई। वानर सेना घर में ही मौजूद थी। पास-पड़ोस के बच्चे आ जाते तो इस सेना में बढ़ोतरी हो जाती। भाई तो ऊधमी थे ही। हम दोनों बहनें और ‘रतन भवन’ में रहने वाली हमारी हमउम्र सखी-सहेलियाँ किसी से कम नहीं थीं । साल भर के बाकी त्यौहार तो पकवान की खुशबू और नये नकोर कपड़े की बाट जोहते थे पर होली शुद्ध हुड़दंगी त्यौहार था। ढूंढ़-ढूंढ़ कर हम फटे-चिथड़े पहनते, जिन्हें रंगों से तरबतर होने के बाद फेंका जा सके।

कलकत्ता में राजस्थान के वाशिंदों की तादाद काफी थी। हमारी ज़्यादातर सखी-सहेलियां मारवाड़ी थीं। यह वर्ग होली-दीवाली, गणगौर-तीज खूब जोश-खरोश से मनाता। घर के बने संदेश, रसगुल्ले, गुझिया, बूंदी के लड्डू और पान के आकार में भाँग मिली बर्फी होली के खास पकवान थे।

हम दोनों बहनों का होली खेलना तब बंद हुआ, जब एक बार की होली में किसी ने मुँह पर तेल और अभ्रक मिला एक ऐसा ज्वलनशील रंग चेहरे पर मल दिया कि पूरे चेहरे की त्वचा छिल गई। ऐसी जलन कि तेल मलने से भी कम नहीं हुई। चेहरे पर लाल-लाल चकत्ते पड़ गए। अपनी लंगूरों सी शक़्ल आईने में देखते न बने। घर से डाँट पड़ी, सो अलग। पाँच-छह दिन स्कूल में सूजा हुआ मुँह लिए जाते रहे और वहां भी वो लताड़ पड़ी कि बस, उसके बाद फिर कभी गीले रंगों से होली नहीं खेली। होली वाले दिन हम दोनों बहनें कमरे में दुबक जातीं। रंगों की बाल्टियाँ भर-भर कर उड़ेलने वाले हम रंगों से डरने लगे। होली से पहले तबीयत खराब का बहाना बनाकर घर में छिपकर रोनी सूरत बनाकर बैठ जाते और बाहर ही नहीं निकलते। एक बार बाहर निकले नहीं कि हुड़दंगी टोली से बेरंग और साबुत बचकर निकल आना नामुमकिन था।

कलकत्ता महानगर में बीते दिन थे वे। स्कूल, कॉलेज पास कर विश्वविद्यालय पहुँच गए। होली के त्यौहार को रंगों से खेलने का चाव कब का खत्म हो चुका था ले​किन सुबह उठकर, एक-दूसरे के गाल और माथे पर गुलाल का टीका लगाकर ही हम होली की शुरुआत करते। जिनसे कुछ नाराजगी भी होती, होली के दिन वे भी सारे गिले-शिकवे भूल कर, गुलाल मल कर गले मिलते, गुझिया खाते, अन्त्याक्षरी खेलते और होली का जश्न मनाते!

1964 - इटावा की होली और भांग का तमाशा

पिता के स्कूल के ज़माने के एक लंगोटिया यार थे—श्रीराम द्विवेदी, जो इटावा वासी थे। उनके दो बेटे हम दोनों बहनों के लगभग हमउम्र थे। उन्होंने एकबार बहुत ज़िद करके मां और पिता को राजी कर लिया कि हम इटावा में पंद्रह दिन बिताएंगे और होली के बाद लौटेंगे। मेरी छोटी बहन मीठे की बिल्कुल शौकीन नहीं थी सो उसने कोई मिठाई छुई नहीं। मैंने मिठाई भी खा ली और ठंडाई भी पी ली। पता नहीं था कि उसमें भाँग मिली थी। उसके बाद जो बवाल हुआ, वह मैंने दूसरों के मुंह से सुना। इतना ही याद है कि खाने के बाद मैं हवा सी हल्की हो गई। लग रहा था जैसे धरती का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत अपना असर खो बैठा है और मैं जमीन पर चल ही नहीं पा रही, गैस वाले गुब्बारे की तरह हवा में उड़ रही हूँ। बाद में सबने बताया कि मैं फूट-फूट कर रो रही थी कि हाय, मुझे कोई पकड़ कर नीचे उतारो, मुझे आसमान में कोई उठाए लिए जा रहा है। बहन ने बताया कि तुम रोती जा रही थी और सबलोग तालियां बजाकर हँस रहे थे, उसे ज़ाहिर है बहुत गुस्सा आ रहा था। आखिर श्रीराम चाचा जी ने सब बच्चों को अच्छे से हड़काया तब कहीं सहारा देकर होली का गैंग मुझे घर के भीतर ले गया। उसके बाद हम दोनों बहनों की नाराज़गी दूर करने के लिए हमें इटावा से कानपुर घुमाने ले जाया गया और रास्ते भर हमने मटर के खेतों से कच्चे मटर के इतने दाने खाए कि सबके पेट पर अफ़ारा चढ़ गया। उसके बाद से आज तक मैं होली के दिन किसी के घर में ठंडाई नहीं पीती। इटावा के लोग आज भी मज़ाक करते हैं—ये ठंडाई की जली हैं, छाछ भी फूँक कर पीती हैं। 

1967 - अखबार का होली पन्ना उर्फ़ फूल पत्तियों का अर्घ्य

होली पर हमारे लिए सबसे बड़ा आकर्षण होता—होली के दिन का अखबार का पहला पन्ना जिस पर छोटे-छोटे अक्षरों में ‘बुरा न मानो होली है’ की लंबी कतार का एक चौखाना बना होता और पूरे पन्ने पर राजनेताओं, अभिनेताओं के बारे में गप्प भरी, चुटकियाँ लेती हुई खासमखास मनगढ़ंत खबरें होतीं। पढ़ कर हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाते और इसे तैयार करनेवाले पत्रकारों का प्रमोशन हो जाता। असली अख़बार इस पन्ने के बाद शुरु होता ।

इससे भी ज्यादा जिस पन्ने का इंतजार होता, वह था—कलकत्ता महानगर से निकलने वाले अखबार ‘दैनिक विश्वमित्र’ और ‘सन्मार्ग’ का भीतर का एक पन्ना, जिसमें साल भर की कुछ नामी-गिरामी हस्तियों को—जिसमें कलकत्ता महानगर के प्रमुख उद्योगपतियों और मंत्री से लेकर बंगाली अभिनेताओं, नाट्यकर्मियों और हिन्दी के लेखकों-कवियों से लेकर विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों और छात्र युवा कार्यकर्ताओं को उपाधियों, जुमलों, मुहावरों-कहावतों या फिल्मी गानों के मुखड़ों से नवाजा जाता। पत्रकारिता अपनी मौलिकता के चरम उत्कर्ष पर होती। कलकत्ता के दैनिक अखबारों—‘सन्मार्ग’ और ‘दैनिक विश्वमित्र’ में उपाधियाँ सिरजने वाले पत्रकारों की हाजिरजवाबी और अक्ल का लोहा मानना पड़ता। कभी-कभी उनमें बड़ा तीखा व्यंग्य भी होता पर होली की नोक झोंक के नाम पर सबकुछ खुले मन से स्वीकार किया जाता। हमारे प्राध्यापक आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी, प्रो. लोढ़ा, राजेंद्र यादव, मन्नू जी—सबके नामों के साथ चुटीले पुछल्ले जुड़े रहते। जिस साल राजेंद्र जी दिल्ली चले गए थे और मन्नू जी कलकत्ता रह गई थीं, उनके नाम के साथ था—‘चंदा बिन चकोरी’। हमलोग अपने प्राध्यापकों— डॉ. प्रतिभा अग्रवाल, सुकीर्ति गुप्ता और कलकत्ता की नामचीन हस्तियों— सीताराम सेकसरिया, लक्ष्मीचंद्र जैन, कुंथा जैन, कृष्णाचार्य, भंवरमल सिंघी के नामों के साथ बाँटे गए फुलझड़ीनुमा जुमलों को ढूँढ़ते, आपस में साझा करते और फैसला देते कि सबसे बढ़िया जोरदार उपाधि किस की रही। तब मैंने नया-नया लिखना-छपना शुरु किया था, वजन पैंतीस किलो था। 1968 में मेरे नाम के साथ था—‘फूँक मारे, उड़ जाएँ’। यह पन्ना कई दिन चर्चा का विषय रहता। ...अब न पत्रकारों में वह जज्बा है, न लेखकों में व्यंग्य पर हँसने की ताब। कुछ साल पहले ‘आउटलुक’ में एक जोशीली पत्रकार ने होली पर कुछ चुटकियाँ ले ली थीं तो साहित्यिक बिरादरी के भाई लोग बुरा मान गए। होली के एक दिन तो कम-से-कम एक-दूसरे की टाँग खींचने और फूल पत्तियों का अर्घ्य देने का अधिकार हर पत्रकार-लेखक को होना चाहिए। 

1968 : कहो बालिके, क्या समाचार हैं

1968 की होली की एक घटना याद आती है। कमलेश्वर जी के संपादन में जनवरी ‘68 की सारिका में मेरी एक कहानी छपी थी— ‘आग’ । मार्च 1968 में पाठकीय प्रतिक्रिया में पूरे दो पृष्ठों पर जनवरी ‘68 की कहानियों के बारे में एक से एक चुहलबाजी करते पत्र छपे थे। एक पत्र में ‘आग’ कहानी की तारीफ़ के बाद भाषा की गलतियों पर तंज कसा गया था— “उनके चेहरे पर वैसी चहल पहल नहीं थी ... हमने सड़क पर, रेलवे प्लेटफॉर्म पर तो बहुत चहल-पहल देखी सुनी है पर चेहरे पर चहल-पहल? कृपया लेखिका अपनी भाषा और व्याकरण की अशुद्धियाँ सुधारें।’’ अंतिम पंक्ति थी— ‘‘आशा है, बालिका सुधा साहित्य में नाम कमाएँगी।’’ पत्र लेखक कोई पंडित नरोत्तम शास्त्री थे।

प्रतिक्रिया से आहत होकर मैंने कमलेश्वर जी को लिखा कि कहानी में भाषा की गलतियाँ कहाँ हैं। कमलेश्वर जी ने चुटकी लेते हुए फौरन उत्तर दिया कि पाठकीय पत्रों का वह पूरा पन्ना शरद जोशी ने अलग-अलग नामों से लिखा था। तब ध्यान से अंक का वह पाठकीय पन्ना खोलकर देखा—नीचे बहुत छोटे अक्षरों में लिखा था—इन पत्रों के अतिथि लेखक—शरद जोशी। जिनके पास सारिका मार्च 1968 का अंक हों, उसके पाठकों का पन्ना देखें।

यह बात कमलेश्वर जी की मार्फ़त शरद जोशी जी तक भी पहुंची। उसके बाद तो जब भी कलकत्ता या मुंबई में शरद दादा के मलाड वाले नए घर में उनसे मिलना हुआ, वे मेरी खिंचाई करते हुए कहते— ‘कहो बालिके, क्या समाचार हैं।’ उनका मजाहिया अंदाज में ‘बालिके’ कहना बहुत भला लगता!

कितने अच्छे दिन थे वे! होली पर इस तरह की ठिठोली अखबारों और पत्रिकाओं में आम थी।

1972 -  अनछुई गुलाल की पुड़िया

होली से जुड़ी कुछ और यादें हैं। 1971 के अक्टूबर महीने में मेरी शादी हुई। मैं पति के साथ मुंबई चली गई। मार्च 1972 यानी शादी के कुछ महीनों बाद, मेरी पहली होली थी। कलकत्ता में अरोड़ा परिवार में होली के दिन मेरे पाँचों भाई तो हमेशा हुड़दंगी टोली में शामिल होते रहे, हम दोनों बहनों ने एक साल की होली में चेहरे पर रंग की एलर्जी होने के बाद रंगों से होली खेलने से तौबा कर ली थी पर होली के दिन सुबह उठकर हम सब आपस में हथेलियों में गुलाल लेकर मम्मी-पापा को, भाइयों को और सबके माथे पर या गाल पर गुलाल लगाते। सो शादी के बाद की आई.आई.टी. के एच 10 क्वार्टर में अपनी पहली होली के एक दिन पहले मैं मार्केट जाकर ठेले वाले से थोड़ा सा गुलाल खरीद लाई और सुबह-सुबह अपने पति के उठने के बाद बड़े प्यार से उनके सामने गुलाल की पुड़िया खोली कि चलो, हम आपको गुलाल लगाकर होली की शुरुआत करें। वे तो गुलाल देखते ही भड़क गए—नहीं नहीं, हटाओ यह सब, मुझे रंग-वंग बिल्कुल पसंद नहीं। मैंने मनुहार की कि अच्छा, छोटा सा टीका लगा देती हूँ। अब वह गरम हो गए—मुझे नहीं लगाना... और कोई दरवाज़ा खटखटाए तो खोलने की भी ज़रूरत नहीं। खैर, गुलाल की पुड़िया मैंने उठाकर रसोई के आले में रख दी।

हर दिन की तरह हमने नाश्ता किया। अचानक दरवाजे पर ठकठक नहीं, ऐसी धड़धड़ाहट हुई कि दरवाज़ा टूटने को हो आया। बाहर पति के बैचलर कुनबे के तीन जवानों की मंडली तैनात थी जो उन्हें फौरन बाहर निकालने के लिए उतावली हो रही थी। रंगों से परहेज़ करनेवाला शख्स अपनी मित्र मंडली के हत्थे चढ़ गया। दो स्कूटरों पर सवार मित्र मंडली जुहू बीच की ओर चल दी। मुझे भी पड़ोसियों ने दरवाज़ा खुलते ही घेर लिया। जिन महाशय को रंगों से चिढ़ थी, वे शाम को रंगों से सराबोर लौटे तो आले में मन मसोस कर पड़ी बेचारी गुलाल की पुड़िया के भी नसीब जगे। आले से निकलकर वह उनपर उलट गई।

1978 - ज़िंदगी का आखि़री दिन

1978 की बात है। हमलोग जयपुर में थे। बिटिया गरिमा साढ़े पांच साल की थी। रेल की वापसी की टिकट भी पहले से बुक करवा ली थी। इस पर ध्यान ही नहीं गया कि उस दिन होली थी। सबने मना भी किया कि होली के दिन यात्रा करना सुरक्षित नहीं है पर हमने सोचा कि एक बार ट्रेन में चढ़ गए और ट्रेन चल पड़ी तो अपने गंतव्य पर पहुच ही जाएँगे। उन दिनों जयपुर से सवाई माधोपुर तक छोटी लाइन थी। जयपुर स्टेशन पर पहुंचने में हमें कोई दिक्कत भी नहीं हुई। यह जरूर लगा कि पूरा डिब्बा खाली था। हम तीनों को छोड़कर और कोई यात्री उस डिब्बे में नहीं था। ट्रेन चल पड़ी। अगले स्टेशन पर जैसे ही ट्रेन रुकी, रंगों से सराबोर चिल्लाते हुए युवा लड़कों का एक दंगाई जत्था हर डिब्बे की बंद खिड़कियों पर बेतहाशा मुट्ठियाँ भाँजने लगा। हमने अपने रिजर्व डिब्बे के सारे खिड़की दरवाजे बंद कर रखे थे पर बाहर से दरवाजे भड़भड़ाने का शोर इस कदर बढ़ता जा रहा था कि लगा,  खिड़कियों के कांच टूट जाएंगे। आखिर मैं डर से थरथराती बिटिया को लेकर बाथरूम में घुस गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। किसी तरह डिब्बे के अंदर भी कुछ लड़के घुस आए थे। हम दोनों माँ बेटी साँस रोके बाथरूम के दरवाजे से लगे खड़े रहे। लग रहा था जैसे वह हमारी जिंदगी का आखिरी दिन है। बेतरह डरी हुई गरिमा मेरे सीने में दुबके, सिसकियाँ भरती जा रही थी। थोड़ी देर दरवाजा पीटने की नाकाम कोशिश के बाद वे लड़के डिब्बे से नीचे उतर गए। ट्रेन चली तो हमारी साँस में साँस आई। उस दिन यह कसम खा ली कि होली के दिन कभी राजस्थान से ट्रेन की यात्रा नहीं करेंगे। 

2014 - होली पर मुखर स्त्री बनी मूर्ख

पत्रिकाओं के मार्च अंक,  होली की हास्य व्यंग की छटा के साथ,  महिला दिवस विशेष की सामग्री भी संजोये होते हैं! अब देखें कि एक पत्रिका ने मेरे लेख ‘‘स्त्री शक्ति की भूमिका से उठे सवाल’’ के साथ शब्दों की कैसी होली खेली! अनुक्रम में लेख ‘‘फीचर’’ कवर स्टोरी तक आते आते लेख ‘‘फिचर’’ हो गया और आखिरी पैराग्राफ़ की एक पंक्ति  ‘‘स्त्री मुखर हुई है’’ की जगह ‘‘स्त्री मूर्ख हुई है!’’ यह क्या? पहले मैंने सोचा शायद मुक्त का मिसप्रिंट मूर्ख हो गया है पर मूल देखा तो पता चला—मुखर को मूर्ख बना दिया गया! मुखर के बाद का र, ख से पहले लग गया और अर्थ का अनर्थ कर गया!

अब होली पर इतनी छूट तो देनी ही पड़ती कि स्त्री मुखर से मूर्ख करार दी जाए!

2020 - 2024 फूलों की महकती-गमकती होली

सन् 2000 के बाद पहली बार 2016 में मुंबई की हमारी रिहायशी सोसायटी में सिर्फ़ फूलों की रंग-बिरंगी पंखुरियों से होली खेली गई। महाराष्ट्र में पानी की किल्लत को देखते हुए बिना पानी की होली। सफ़ेद लाल गुलाब की पंखुरियां , गेंदे की पीली और नारंगी पंखुरियाँ...। गुलाब की पंखुरियों में अनोखी महक थी। पास पड़ोस में भी सिर्फ़ गाने बजते रहे और नाच चलता रहा... और सच मानिए—गाने रूह को ज्यादा सुकून दे रहे थे। पानी के रंगों के हुड़दंग में जो गीत खो जाते थे, वे आज इतने कर्णप्रिय और मधुर लग रहे थे। पूरे माहौल में जैसे सुरों की बारिश हो रही थी। यही माहौल मार्च 2020 में कोरोना के कारण था और बैंगलोर में इस बार 2024 में, जब अधिकांश सोसाइटी में पानी की सप्लाई में कटौती की जा रही थी, फागुन ज़्यादा खुशनुमा था।

हमारे 14 वर्षीय बच्चे अयान अत्रि ने एक पेंटिंग की—होली ऑर सेव द वॉटर की। बच्चे की पर्यावरण के लिए जागरूकता देख कर सचमुच मन अबीर गुलाल हो गया­­...

[सुधा अरोड़ा की पुस्तकें यहाँ से प्राप्त करें।]